 
                                            चुनावी जंग का मैदान रथी और महारथियों से सजा है. अस्त्र-शस्त्र से लैस योद्धा घात-प्रतिघात में जुटे हैं, तैयारी इतनी मुक्कमल कि कोई वार खाली नही जाए. लेकिन, यह लड़ाई चुनाव क्षेत्र से अधिक सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर लड़ी जा रही है. आज अस्त्र-शस्त्र की जगह यूट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर चुनावी जंग के मैदान का आधुनिक हथियार साबित हो रहा है. बदले हुए चुनावी परिदृश्य में पार्टी कार्यकर्ता हाशिये पर हैं और पार्टी संगठन बेमानी साबित हो रहे हैं. वजह साफ है कि चुनावी अखाड़े में मौजूद 'नेताजी ' को कार्यकर्ताओं से अधिक सोशल मीडिया पर एतवार है.
नेताजी की पैनी नजर व्यूज, लाइक और हिट पर होती है, और उसी के माध्यम से अपने ग्राफ का आकलन करते हैं. लेकिन, स्याह सच यही है कि सोशल मीडिया वर्चुअल दुनिया है और यहां सब कुछ आभासी है, सच से दूर. सोशल मीडिया के जंग में एक न्याय अध्याय यूट्यूबरों ने जोड़ने का काम किया है, जिसका सहारा लेकर प्रत्याशी शह और मात का खेल, खेल रहे हैं. प्रत्याशी चाहे जितना आभासी दुनिया का सहारा ले लें, अंतिम फैसला जनता की अदालत में ही होना है और यही लोकतंत्र है.
समर्पित कार्यकर्ता अब हुए बीते दिनों की बात
दो दशक पहले तक चुनावी जंग की पतवार पार्टी कार्यकर्ताओं के हाथों में ही हुआ करती थी. क्षेत्र से लेकर मतदान-केंद्र तक की जिम्मेवारी पार्टी कार्यकर्ता ही उठाया करते थे. नेता भी अपने कार्यकर्ता से सीधे जुड़े हुए रहते थे. लेकिन धीरे-धीरे पार्टी से कार्यकर्ताओं का भावनात्मक-जुड़ाव कम होता गया और ऐसे कार्यकर्ता जो मतदान-केंद्र पर मरने-मारने पर उतारू रहते थे, अब बिरले ही नजर आते हैं.
वजह यह रही की नेता और कार्यकर्ता के बीच का रिश्ता भावनात्मक से अधिक व्यवसायिक रह गया. कोई भी दल हो, कार्यकर्ताओं की लंबी-चौड़ी फौज होने का चाहे लाख दावा कर ले, समर्पित कार्यकर्ता अब बीते दिनों की बात हो गई है. चूंकि, अब राजनीति में दलीय प्रतिबद्धता और विचारधारा की कोई जगह नही तो कार्यकर्ता भी नेताजी के ही नक्शे-कदम पर चलने में अपनी भलाई समझते हैं. नेताजी की तरह ही कार्यकर्ता अपना नफा-नुकसान को देखकर अपनी विचारधारा और प्रतिबद्धता तय करते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता विकास आनंद कहते हैं 'चुनाव में जब से धनबल और बाहुबल का प्रचलन बढ़ा, समर्पित कार्यकर्ता नेता और पार्टी से दूर होते चले गए. कार्यकर्ता भी संघर्ष की जगह सत्ता के गलियारे को प्राथमिकता देते हैं'.
जनसुराज ने आरम्भ किया कॉरपोरेट कार्यकर्ता की परिपाटी
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जब खुद चुनावी मैदान में उतरे तो राजनीति में कई नई परिपाटी को आरम्भ किया. उन्होंने परंपरागत कार्यकर्ताओं की जगह कॉरपोरेट कल्चर में कार्यकर्ताओं को मैदान में उतारा. मासिक वेतनधारी ऐसे कार्यकर्ता पी के की पार्टी जनसुराज का संकटमोचक बने हुए हैं.
हालांकि, बाद में जनजुराज ने भी पार्टी का सदस्यता अभियान चलाकर आमजनों को जोड़ने का काम किया.लेकिन, आज भी जनसुराज में कॉरपोरेट कार्यकर्ता के जिम्मे ही सारी रणनीतिक जिम्मेवारी है.जनसुराज के कार्यक्रमो में बेहतर प्रबंधन-शैली देखने को मिलता है जो कॉरपोरेट कार्यकर्ताओं की ही देन है. जनसुराज की देखा-देखी अन्य दलों ने अब प्रोफेशनल की सेवा लेना आरम्भ किया है.
प्रत्याशी को कार्यकर्ता से अधिक सोशल मीडिया पर भरोसा
आज के चुनावी -जंग का स्वरूप काफी बदल चुका है. लाउडस्पीकर माइकिंग और पोस्टर-बैनर पर सोशल मीडिया अब भारी पड़ रहा है. नेताजी का भले ही टेबलेट और लैपटॉप से कभी कोई रिश्ता नही रहा हो लेकिन चुनाव में वे भी सोशल -मीडिया की पूरी फौज उतारने में गुरेज नही करते हैं. सोशल मीडिया की टीम प्रत्याशी के फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर को संभालते तो हैं हीं, रील बनाने की जिम्मेवारी उन्हीं की होती है. आज के दौर में शॉर्ट रील का प्रचलन काफी बढ़ा हुआ है. सोशल मीडिया की टीम में आईटी प्रोफेशनल, कंटेंट राइटर, वीडियो एडिटर, वीडियोग्राफर और स्टील फोटोग्राफर शामिल होते हैं.
एक टीम का एक माह का पारिश्रमिक 5 लाख से लेकर 20 लाख तक होता है. चूंकि, यह टीम प्रत्याशी का इमेज-बिल्डिंग का काम करता है तो जाहिर तौर पर कार्यकर्ताओं से अधिक तवज्जो इन्हें मिलती है. कुल मिलाकर आज के दौर में प्रत्याशियों को कार्यकर्ताओं से अधिक भरोसा सोशल मीडिया पर रह गया है. सोशल मीडिया कंपेनर अरुण कुमार मेहता कहते है 'जब वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस पेशे की शुरुआत हमने किया था तो लोग हमारा मजाक उड़ाया करते थे. लेकिन, आज यह प्रत्याशियों के लिए जरूरत बनकर सामने आया है'.
यूट्यूब के जरिए चल रहा समर्थन और विरोध का काला -कारोबार
चुनावी शतरंज की बिसात है तो शह और मात के मोहरे भी चले जा रहे हैं. इस बिसात पर जो एक नया मोहरा है वह यूट्यूब बना हुआ है. पत्रकारिता के क्षेत्र में जब से यूट्यूब पत्रकारिता की शुरुआत हुई है, पत्रकारिता का रंग-रूप भी बदला-बदला नजर आ रहा है. प्रत्याशी यूट्यूबरों की मदद से अपने समर्थन और प्रतिद्वंदी के विरोध में अभियान चला रहे हैं.दरअसल, कुछ यूट्यूबर को यह जिम्मेवारी सौंपी जाती है कि वे उनके समर्थन और प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ पब्लिक ओपिनियन का वीडियो बनाकर यूट्यूब पर अपलोड करें और बदले में उन्हें पारिश्रमिक मिलती है.
इस फर्जी ओपिनियन से आम मतदाता भी कंफ्यूज रहते हैं और कई बार इसका फायदा भी प्रत्याशी विशेष को मिल जाता है क्योंकि यूट्यूब के माध्यम से नैरेटिव सेट करने में मदद मिलना आश्चर्य की बात नही है. हालांकि, अब बहुसंख्यक मतदाता इस काला-कारोबार के सच से भी वाकिफ हो चुके हैं. वाबजूद, आज के दौर में सोशल मीडिया की महत्ता से इनकार नही किया जा सकता है.
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