- महुआ सीट बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, जहां कई दलों के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा चल रही है.
 - आसमा परवीन को टिकट न मिलने पर उन्होंने JDU के खिलाफ बगावत कर चुनावी मैदान में है.
 - तेज प्रताप यादव ने अपनी राजनीतिक वापसी महुआ से करने का ऐलान किया है.
 
बिहार की राजनीति इन दिनों अपने सबसे दिलचस्प दौर में है और इस बार इसकी धड़कन तेज हो रही है. महुआ विधानसभा सीट. यह वहीं सीट है, जहां कभी लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव ने अपनी राजनीति की शुरुआत की थी और जहां अब जेडीयू की बागी नेता डॉ. आसमा परवीन अपने ही दल के खिलाफ खुली चुनौती बनकर खड़ी हैं. चुनावी फिजा में यहां हर मोड़ पर सियासी नाट्य देखने को मिल रहा है.
एक तरफ आरजेडी के मौजूदा विधायक मुकेश रौशन हैं तो दूसरी तरफ तेज प्रताप की वापसी की गर्जना, और तीसरी तरफ एनडीए के गठबंधन प्रत्याशी जो टिकट बंटवारे के बाद से ही विवादों में हैं. नतीजा यह है कि महुआ इस बार सिर्फ एक सीट नहीं, बल्कि बिहार की राजनीति की दिशा और दशा का पैमाना बन गया है.
बगावत के रास्ते पर आसमा परवीन
डॉ. आसमा परवीन, जेडीयू की पूर्व प्रदेश महासचिव, जिन्होंने 2020 के चुनाव में इसी सीट से एनडीए के बैनर तले मुकाबला किया था. इस बार टिकट न मिलने से बगावत के रास्ते पर निकल पड़ी हैं. सूत्रों के मुताबिक, सीट गठबंधन समझौते के तहत लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) को चली गई और यह निर्णय स्थानीय स्तर पर काफी विरोध का कारण बना. टिकट कटने के बाद आसमा परवीन ने मीडिया के सामने भावुक होते हुए कहा, “मैंने पार्टी के लिए दिन-रात मेहनत की, लोगों के बीच रही, लेकिन जब वक्त आया तो मुझे किनारे कर दिया गया.” उनके आंसू न सिर्फ व्यक्तिगत आघात थे, बल्कि उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज भी थे जो नेताओं को केवल “समीकरणों का हिस्सा” समझती है.
नई सियासी राह पर तेज प्रताप यादव
दूसरी ओर, महुआ का नाम आते ही तेज प्रताप यादव की कहानी अपने आप खुल जाती है. वह नेता जिनकी सियासी यात्रा कभी इसी जमीन से शुरू हुई थी. तेज प्रताप अब न सिर्फ अपने परिवार की पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित हैं, बल्कि अपने ‘जनशक्ति जनता दल' के नाम से एक नई सियासी राह पर चल निकले हैं.
दिलचस्प बात यह है कि तेज प्रताप ने एलान किया है कि वे महुआ से ही चुनाव लड़ेंगे, चाहे आरजेडी उन्हें टिकट दे या न दे. उनके लिए यह चुनाव महज राजनीतिक नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और अस्तित्व की लड़ाई बन गया है. उन्होंने हाल ही में अपने भाषणों में कहा, “महुआ मेरी कर्मभूमि है, मैं यहां का बेटा हूं और इस धरती से फिर से शुरुआत करूंगा.”
मुकेश रौशन के लिए यह चुनाव सबसे कठिन परीक्षा
इन सबके बीच आरजेडी के मौजूदा विधायक मुकेश रौशन के लिए यह चुनाव सबसे कठिन परीक्षा साबित हो रहा है. 2020 में उन्होंने आसमा परवीन को लगभग 13,700 वोटों के अंतर से हराया था. लेकिन इस बार समीकरण पहले जैसे नहीं हैं. तेज प्रताप और आसमा परवीन के अलग-अलग मोर्चे से मैदान में उतरने से यादव और मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण टूट सकता है. वहीं, एनडीए की अंदरूनी असहमति भी गठबंधन के लिए सिरदर्द बन गई है. महुआ के स्थानीय मतदाता भी इस बार चुपचाप देख रहे हैं, कि किसने उनके लिए सच में कुछ किया और किसने सिर्फ भाषण दिए.
जनता से किया वादा आज भी अधूरा
महुआ की राजनीति का दूसरा पहलू विकास का है, जो चुनावी मंचों पर बार-बार गूंजता है. 2018 में जिस 462 करोड़ रुपए की लागत से अस्पताल की घोषणा तेज प्रताप ने बतौर स्वास्थ्य मंत्री की थी, वह आज भी अधूरा पड़ा है. सड़कें, जल निकासी, और रोजगार जैसे मुद्दे अब भी लोगों की जुबान पर हैं. स्थानीय व्यापारी मोहम्मद शाहिद कहते हैं, “नेता हर बार आते हैं, वादा करते हैं, पर चुनाव खत्म होते ही गायब हो जाते हैं. इस बार जनता भी सबक सिखाएगी.”
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो महुआ इस बार तीन कोणों वाला रणक्षेत्र है. आरजेडी के परंपरागत वोट बैंक की परीक्षा, जेडीयू की अनुशासन व्यवस्था पर सवाल और तेज प्रताप के व्यक्तिगत पुनरुद्धार की कोशिश. पटना विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर अशोक मिश्रा कहते हैं, “अगर महुआ में कोई बड़ा उलटफेर हुआ, तो यह बिहार की राजनीति के लिए एक निर्णायक संकेत होगा कि गठबंधन से ज्यादा असर स्थानीय असंतोष और व्यक्तिगत करिश्मे का है.”
और यही कारण है कि अब खुद तेजस्वी यादव को मैदान में उतरना पड़ रहा है. रिपोर्ट्स के अनुसार तेजस्वी ने हाल ही में महुआ में चुनावी रैली की, जहां उन्होंने अपने भाई पर निशाना साधे बिना कहा “हमारी लड़ाई विकास के लिए है. परिवार के लिए नहीं.” लेकिन जनता जानती है कि यह चुनाव केवल विकास की बातों पर नहीं, बल्कि राजनीतिक विरासत और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की जंग पर टिका है.
महुआ का यह चुनाव बिहार की राजनीति का प्रतिबिंब है जहां गठबंधन से ऊपर उठकर स्थानीय असंतोष और व्यक्तिगत संघर्ष ने केंद्र ले लिया है. डॉ. आसमा परवीन का विद्रोह यह दिखाता है कि महिलाएं अब सिर्फ पार्टी का चेहरा नहीं, बल्कि अपनी शर्तों पर राजनीति गढ़ने की हिम्मत रखती हैं. तेज प्रताप की वापसी यह साबित करने की कोशिश है कि राजनीतिक परिवारों में भी असहमति एक नया अध्याय लिख सकती है. और आरजेडी, जेडीयू, एनडीए सबके लिए यह सीट एक चेतावनी है कि जनता अब सिर्फ प्रतीक नहीं, निर्णायक है.
महुआ की मिट्टी इस बार तय करेगी कि बिहार की राजनीति में किसकी आवाज सुनी जाएगी वफादारी की, विद्रोह की, या उस जनता की जो हर पांच साल बाद अपने सपनों को फिर से मतदान की स्याही में डुबोती है.
श्रेष्ठा नारायण की रिपोर्ट
 
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