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This Article is From Apr 17, 2022

बिहार में बीजेपी से डरते हैं उसके सभी सहयोगी दल, लेकिन मौका मिलते ही बयां कर देते हैं दर्द

वीआईपी पार्टी के सुप्रीमो मुकेश साहनी ने लड्डू बांट-बांटकर राष्ट्रीय जनता दल की जीत से अधिक भाजपा की हार का जश्न मनाया

बिहार में बीजेपी से डरते हैं उसके सभी सहयोगी दल, लेकिन मौका मिलते ही बयां कर देते हैं दर्द
जीतनराम मांझी ने एक कार्यक्रम में अपना दुखड़ा सुनाया.
पटना:

बिहार में भारतीय जनता पार्टी से सभी सहयोगी दलों को डर लगता है. ये राजनीतिक सत्य है जिसके बारे में उसके सभी सहयोगी कभी खुलकर, कभी चुपके से बोलते जरूर हैं. शनिवार को बोचहा विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद वीआईपी पार्टी के सुप्रीमो मुकेश साहनी ने जैसे कैमरे के सामने लड्डू बांट बांटकर राष्ट्रीय जनता दल की जीत से अधिक भाजपा की हार का जश्न मनाया उसके बाद तो एकबारगी लगा कि आखिर भाजपा के कुछ हफ्ते पूर्व तक सहयोगी दल उसके पतन से इतने खुश आखिर क्यों होते हैं? 

मुकेश साहनी प्रकरण से ही शुरुआत करें तो ये सत्य है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के इशारे पर उस समय के महगठबंधन के संवाददाता सम्मेलन में जैसे ही वे आरोप लगाकर निकलकर आए और फिर 11 सीटों पर समझोता भी हुआ. और फिर जैसे-तैसे उस समय जो सरकार बनी उसमें उनकी भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. लेकिन उतर प्रदेश चुनाव में जब उन्होंने अपने उम्मीदवार उतारे, जो नीतीश कुमार की जनता दल यूनाईटेड ने भी किया था, तब से उनके भाषण को आधार बनाकर भाजपा ने उनको सबक सिखाने की ठान रखी थी. और जैसे ही उपचुनाव की तिथि की घोषणा हुई, मुकेश अपना उम्मीदवार उतारने पर अड़ गए. तब भाजपा ने ऑपरेशन वीआईपी को अंजाम देना शुरू किया और सबसे पहले उनके तीन विधायकों का अपनी पार्टी में विलय कराया. बाद में उनको इस्तीफा के विकल्प देने के  बजाय बर्खास्त करने की अनुशंसा नीतीश कुमार को कर दी. ये बात अलग है कि भाजपा का ये ऑपरेशन पूरी तरह विफल रहा और चुनाव में हार हुई. वीआईपी को तीस हजार के करीब वोट मिले और मुकेश साहनी मल्लाह जाति के नेता के रूप में स्थापित हुए. 

भाजपा का ऑपरेशन मुकेश मल्लाह विफल रहा. पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की मौत और खासकर बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक दुर्गति से तिलमिलाए नीतीश कुमार का मन रखने के लिए “ऑपरेशन लोक जनशक्ति “ में भाजपा ने अपनी भागीदारी दी. इसके तहत पहले संसदीय दल को तोड़ा गया. चिराग के अलावा सभी सांसदों ने पशुपति पारस के नेतृत्व में नया दल बनाया. बाद में उन्हें नीतीश कुमार के आग्रह पर मंत्रिमंडल में भी शामिल किया गया. लेकिन शनिवार को पासवान जाति के सबसे पवित्र चोहरमल मेले में चिराग को उनके पिता की तरह सम्मान मिला, वहीं पारस को काला झंडा दिखाया गया और उन्हें मंच से उतरकर जाना पड़ा. यह बिहार भाजपा के सुशील मोदी जैसे वरिष्ठ नेताओं के अपने पार्टी के दिल्ली में शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं को दिए गए फीडबैक के अनुरूप है कि पासवान वोटर चिराग़ के साथ हैं ना कि पारस के. चिराग तेजस्वी के साथ चले गए तो खामियाजा एनडीए को उठाना पड़ सकता है. लेकिन ऑपरेशन चिराग अगर विफल है तो इसके पीछे नीतीश की जिद्द और भाजपा का बिहार की जमीनी राजनीतिक हकीकत से मुंह मोड़ना है. 

लेकिन भाजपा ने सबसे बड़ा ऑपरेशन अगर अब तक कोई किया है तो वह है “ऑपरेशन नीतीश. “ हालत यह है कि कोई इस पर खुलकर बात नहीं करना चाहता लेकिन इस ऑपरेशन की वजह से आज बिहार की राजनीति में भाजपा नम्बर एक पार्टी बन गई. इसके तहत उसने नीतीश को लोकसभा में मनमुताबिक सीट दीं लेकिन विधानसभा में उनकी एक नहीं चलने दी. दूसरा चिराग को जब नीतीश के इशारे पर गठबंधन से बाहर किया तो ये सुनिश्चित किया कि वे भाजपा के चुनिंदा उम्मीदवार को छोड़ किसी के खिलाफ़ अपने निशान पर उम्मीदवार न दें. और नीतीश को इसका काफी नुकसान हुआ. चुनाव के दौरान विरोधियों के खिलाफ एजेन्सी के इस्तेमाल के लिए अब तक अभ्यस्त विपक्ष उस समय भौंचक हो गई जब जनता दल यूनाइटेड के नजदीक लोगों पार छापा पड़ा. हालांकि चुनाव परिणाम कुछ ऐसा आया कि भाजपा ने नीतीश को मुख्यमंत्री मानकर इस पहलू का और अधिक विश्लेषण नहीं होने दिया. 

इसके अलावा एक जमाने में भाजपा के सहयोगी रहे और अब जनता दल यूनाइटेड में संसदीय दल के नेता उपेन्द्र कुशवाहा भी भाजपा के 'इस्तेमाल कर गड्ढे में डाल नीति' के शिकार हो चुके हैं. हालांकि वे लोकसभा और केंद्र में मंत्री भी भाजपा की कृपा से बने लेकिन उनके लिए ऐसी राजनीतिक स्थिति बना दी गई कि उनके पास लालू यादव की शरण में जाने के अलावा पिछले लोकसभा चुनाव में कोई विकल्प नहीं रहा. अब नीतीश के मार्फ़त एनडीए में आए जीतन राम मांझी ने जब नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मुख्यमंत्री बने रहने के लिए विद्रोह का बिगुल फूंका तो उन्हें विश्वास था कि भाजपा उनका सदन में साथ देगी लेकिन उन्हें उसमें निराशा हाथ लगी. हालांकि वे कुछ समय भाजपा के साथ राजनीति किए लेकिन उनका अनुभव यही था कि उनसे अधिक भाजपा को उनके मांझी वोट अपनी और करना हैं और ये भी संयोग है कि शनिवार को एक पार्टी के कार्यक्रम में मांझी ने अपने मन की बात कह डाली -

सहयोगियों को निबटाने के इस नीति के पीछे बताया जा रहा है कि भाजपा उनके ऊपर अपनी निर्भरता कम करना चाहती है और उसका प्रयास है कि बिहार में गठबंधन के बजाय सीधे उनका मुक़ाबला तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल से हो. इसलिए वह इस तरह से राजनीतिक वर्ताव करती है. 

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