- लंबी दूरी की उड़ानों के लिए एयरलाइंस ग्रेट सर्कल रूट अपनाती हैं जो समय और ईंधन की बचत करता है
- आर्कटिक क्षेत्र में कई देश होने के कारण इमरजेंसी लैंडिंग के विकल्प उपलब्ध रहते हैं
- अंटार्कटिका पूरी तरह बर्फ से ढका महाद्वीप है जहां कोई बड़ा एयरपोर्ट या शहर नहीं है
दुनिया में हवाई सफर करना किसे पसंद नहीं. भारत जैसे गरीब देश के लोगों के लिए तो आसमान में सफर करने किसी सपने के सच होने जैसा है. आसमान में कई हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ते प्लेन के सफर के कई दिलचस्प किस्से हैं, जिनके बारे में हर कोई जानना चाहता है. दुनिया भर में लंबी दूरी की उड़ानों के लिए एयरलाइंस अक्सर ऐसे रूट चुनती हैं जो समय और ईंधन की बचत करें. इसी वजह से कई फ्लाइट्स आर्कटिक क्षेत्र के ऊपर से गुजरती हैं. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि विमान अंटार्कटिका के ऊपर से क्यों नहीं उड़ते? इसके पीछे कई तकनीकी, सुरक्षा और भौगोलिक कारण हैं.
आर्कटिक और अंटार्कटिका में अंतर
आर्कटिक उत्तरी ध्रुव के आसपास का ऐसा क्षेत्र है, जहां समुद्र के ऊपर बर्फ की परत होती है इसके चारों ओर कई देश हैं जैसे रूस, कनाडा, अमेरिका (अलास्का), नॉर्वे आदि. इसका मतलब है कि यहां इमरजेंसी स्थिति में लैंडिंग के लिए विकल्प मौजूद हैं. वहीं अंटार्कटिका दक्षिणी ध्रुव पर स्थित है और यह पूरी तरह बर्फ से ढका महाद्वीप है. यहां कोई बड़ा शहर या एयरपोर्ट नहीं है, सब सिर्फ रिसर्च स्टेशन हैं. यानी आपात स्थिति में लैंडिंग लगभग असंभव है.
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ग्रेट सर्कल रूट और ईंधन बचत
लंबी दूरी की उड़ानों के लिए एयरलाइंस ग्रेट सर्कल रूट अपनाती हैं, जो पृथ्वी पर दो बिंदुओं के बीच सबसे छोटा रास्ता होता है. यूरोप से एशिया या उत्तरी अमेरिका से एशिया जाने वाली फ्लाइट्स के लिए आर्कटिक के ऊपर से उड़ना समय और ईंधन दोनों की बचत करता है. मगर अंटार्कटिका के ऊपर से उड़ान भरने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि वहां से होकर जाने वाले रूट बहुत कम हैं.
लंबी दूरी की उड़ानों के लिए ETOPS (Extended-range Twin-engine Operational Performance Standards) नियम लागू होते हैं. ये नियम कहते हैं कि विमान को हमेशा ऐसे रूट पर उड़ना चाहिए जहां डाइवर्जन एयरपोर्ट तक पहुंचने में ज्यादा समय न लगे, अंटार्कटिका में यह संभव नहीं है.
सुरक्षा और इमरजेंंसी लैंडिंग
गौर करने वाली बात ये है कि अंटार्कटिका में कोई बड़ा एयरपोर्ट मौजूद नहीं है. ऐसे में अगर विमान में तकनीकी खराबी आ जाए या किसी तरह की मेडिकल इमरजेंसी का सामना करने पड़े, तो प्लने की लैंडिंग करना लगभग असंभव है. इसके अलावा, वहां का मौसम बेहद कठोर है. जैसे कि वहां पर तापमान -60°C तक गिर सकता है, जिससे बचाव अभियान भी मुश्किल हो जाता है.
नेविगेशन और कम्यूनिकेशन की चुनौतियां
अंटार्कटिका के ऊपर उड़ान भरते समय नेविगेशन और रेडियो कम्यूनिकेश में भी काफी दिक्कतें आती है. इसकी वजह है कि यहां पर सैटेलाइट कवरेज सीमित है और मैग्नेटिक कम्पास भी ध्रुवों के पास सही काम नहीं करते हैं. जिसके चलते पायलटों के लिए दिशा बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो जाता है. ऐसे में प्लेन को इस एरिया में उड़ाना किसी खतरे से कम नहीं है.
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बेरहम मौसम की मार
अंटार्कटिका में तेज़ हवाओं के साथ बर्फीले तूफान और जरूरत से ज्यादा ठंडा मौसम प्लेन कंट्रोलिंग को और भी जोखिम भरा बना देते हैं. यहां मौसम अचानक बदल सकता है, जिससे उड़ान सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है. जब मौसम विपरीत होता है तो फिर दुनिया की सबसे उन्नत तकनीक भी इंसान के ज्यादा काम नहीं आती. इसकी बानगी हम पूरी दुनिया में कई बार देख चुके हैं.
आर्कटिक में प्लेन उड़ाना क्यों फायदेमंद
आर्कटिक के ऊपर उड़ान भरना एयरलाइंस के लिए सहुलियत के साथ बेहद फायदे का भी सौदा है क्योंकि यह छोटा रास्ता देता है और किसी भी तरह की इमरजेंसी में लैंडिंग के विकल्प भी मुहैया करा देता है. जबकि अंटार्कटिका के ऊपर उड़ान भरना न तो व्यावहारिक है और न ही सुरक्षित माना जाता है. यही कारण है कि विमान आर्कटिक के ऊपर से उड़ते हैं, लेकिन अंटार्कटिका के ऊपर नहीं.
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