
सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है बस्तर दशहरा.
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यहां दशहरे में नहीं जलाया जाता है रावण.
75 दिनों तक मनाया जाता है बस्तर दशहरा.
दशहरे पर बस्तर की आराध्य देवी दंतेश्वरी की पूजा होती है.
राम-रावण नहीं देवी का पर्व
मान्यता है कि भगवान राम ने अपने वनवास के लगभग दस साल दंडकारण्य में बिताए थे. छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका प्राचीन समय में दंडकारण्य के रूप में जाना जाता था. लेकिन फिर भी यहां का ऐतिहासिक दशहरा राम की लंका विजय के लिए नहीं मनाया जाता है. दशहरे में बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी की की विशेष पूजा की जाती है. उनके लिए यहां एक भव्य रथ तैयार किया जाता है, इस रथ में उनका छत्र रखकर नवरात्रि के दौरान भ्रमण के लिए निकाला जाता है.

75 तक मनाया जाता है त्योहार
बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण (सावन) के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है. इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है. इस रस्म को पाट जात्रा कहा जाता है. यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है. इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं. यह त्योहार देश का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है.

कारीगरों को बदलनी पड़ती है जाति
दशहरे के लिए विशेष रथ तैयार किया जाता है, इस रथ को बनाने की परंपरा करीब 600 साल पुरानी है. रथ बनाने का काम केवल संवरा जनजाति के आदिवासी कर सकते हैं, लेकिन अब यह जनजाति विलुप्त हो चुकी है. इस वजह से दूसरी जनजाति के आदिवासी अपनी जाति परिवर्तित कर संवरा बनते हैं. दशहरे के बाद अपनी जाति में दोबारा शामिल होने के लिए इन आदिवासियों को आर्थिक दंड देना पड़ता है.

नवरात्रि से शुरू होती है रौनक
नवरात्रि शुरू होने के बाद रथ परिक्रमा शुरू होती है. पहले दिन मिरगान जाति की एक छोटी बच्ची काछन देवी बनती है. उसे कांटे के एक झूले पर बिठाया जाता है. इस परंपरा को काछन गादी कहते हैं. इसके बाद काछन देवी से बस्तर दशहरा मनाने की अनुमति ली जाती है. अनुमति मिलने के बाद ही आगे की परंपराएं निभाई जाती हैं. इस पर्व में जोगी बिठाई की भी एक रस्म होती है, जिसमें देवी की प्रतिमा के सामने जमीन में गड्ढा खोदकर एक जोगी को बैठाया जाता है. नौ दिनों तक वह जोगी उस गड्ढे से उठ नहीं सकता है, इस दौरान वह फल और दूध से बनी चीजें खा सकता है. जोगी बिठाई से पहले देवी को मांगुर प्रजाति की मछली की बलि दी जाती है.

रथ होता है खास आकर्षण
बस्तर दशहरे का खास आकर्षण होता है आदिवासियों द्वारा लकड़ियों से तैयार किया गया भव्य रथ. जिसे फूलों और विशेष तरह के कपड़े से सजाया जाता है. इस रथ को बनाने के लिए आदिवासी पारंपरिक तकनीकों का उपयोग करते हैं. बिना किसी आधुनिक तकनीक की मदद के बना यह रथ बेहद मजबूत होता है. दशहरे में शामिल होने बस्तर क्षेत्र के कोने-कोने से आदिवासी पहुंचते हैं और रथ को खींचते हैं. रथ पर मां दंतेश्वरी का छत्र रखा जाता है, राजशाही के समय में बस्तर के महाराज भी रथ में सवार होते थे. जोगी बिठाई के अगले दिन से ही फूल रथ का चलना शुरू हो जाता है. दशहरे के दिन भीतर रैनी और एकादशी के दिन बाहर रैनी की रस्म निभाई जाती है.

रथ को आदिवासी ही खींचते हैं.
चोरी की भी है रस्म
बाहर रैनी की रस्म पूरी होने के बाद रात को माड़िया जनजाति के आदिवासी रथ को चुरा का कुम्हाड़कोट नाम की जगह पर ले जाते हैं. बस्तर दशहरे की हर रस्म के लिए आदिवासियों की अलग-अलग जनजातियों को जिम्मेदारी दी गई, इस तरह हर जनजाति इसका हिस्सा बनती है. लेकिन जब पहली बार बस्तर दशहरा मनाया गया तब माड़िया जनजाति को कोई काम नहीं दिया गया था जिससे वे नाराज हो गए और उन्होंने रथ चुरा लिया. अगले दिन बस्तर के महाराज को जाकर उन्हें मनाना पड़ा, उन्होंने महाराज को अपने साथ बैठकर खाना खाने को कहा. खाना खाने के बाद ही रथ वापस किया गया. इसके बाद रथ चोरी भी परंपरा का हिस्सा बन गई.
आज भी लगता है राजा का दरबार
माड़िया जनजाति से रथ छुड़ाकर लाने के बाद अगले दिन देवी के छत्र को रथ से उतारकर मंदिर में वापस स्थापित किया जाता है. इसके बाद जगदलपुर के राजमहल में बस्तर के महाराज दरबार लगाते हैं और लोगों की समस्याएं सुनते है. इसे 'मुरिया दरबार' कहते हैं. बस्तर के वर्तमान महाराज कमलचंद्र भंजदेव हैं, अब मुरिया दरबार में महाराज के साथ-साथ राज्य के सीएम भी लोगों की समस्याएं सुनते हैं. मुरिया दरबार के साथ ही बस्तर दशहरे का समापन होता है.
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