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This Article is From Nov 22, 2023

दुबई में होने जा रहा जलवायु परिवर्तन सम्‍मेलन COP28 क्यों खास? यहां समझिए

इस साल का वार्षिक जलवायु सम्मेलन संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में  30 नवंबर से 12 दिसंबर तक हो रहा है. यह 28वां सम्मेलन है, इसलिए इसे कॉप-28 कहा जा रहा है.

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दुबई में होने जा रहा जलवायु परिवर्तन सम्‍मेलन COP28 क्यों खास? यहां समझिए
प्रतीकात्मक तस्वीर

संयुक्त राष्ट्र लगभग तीस वर्षों से वैश्विक जलवायु शिखर सम्मेलन के माध्यम से दुनिया के देशों को एक मंच पर ला रहा है. इस सम्मेलन को कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) कहा जाता है, क्योंकि United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC) पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देश इसके पार्टीज (पक्षकार) होते हैं. कॉप, UNFCCC का सर्वोच्च निर्णयनकारी निकाय है. इसमें UNFCCC पर हस्ताक्षर करने वाले सभी देशों का प्रतिनिधित्व होता है. इसमें UNFCCC के कार्यान्वयन और कॉप में स्वीकृत अन्य कानूनी उपायों की समीक्षा होती है. इसमें कन्वेंशन के प्रभावी कार्यान्वयन को प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी फैसले लिए जाते हैं. 

इस साल का वार्षिक जलवायु सम्मेलन संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में  30 नवंबर से 12 दिसंबर तक हो रहा है. यह 28वां सम्मेलन है, इसलिए इसे कॉप-28 कहा जा रहा है. इस सम्मेलन का उद्देश्य पिछली कॉप की उपलब्धियों को आगे ले जाना और भविष्य के महत्वाकांक्षी प्रयासों के लिए जमीन तैयार करना है.  इसके अलावा इसमें प्रथम ग्लोबल स्टॉकटेक (पेरिस जलवायु समझौते को लागू करने में देशों की प्रगति की वैश्विक समीक्षा) के परिणाम भी सामने रखे जाएंगे. पर्यायवरण के लिहाज से ये सात सवाल और उसके जवाब बहुत महत्वपूर्ण है.

प्रश्न 1.पिछले साल हुए कॉप-27 के क्या परिणाम रहे थे?

सीईईडब्ल्यू: पिछले साल शर्म-अल शेख (मिस्र) में हुए कॉप27 के सबसे महत्वपूर्ण नतीजों में से एक ‘हानि और क्षति' कोष की स्थापना था. इसने दीर्घकालिक जलवायु वित्त के लिए प्रयासों को बढ़ाने पर भी जोर दिया था. इसमें जलवायु वित्त, खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने पर एक नए सामूहिक मात्रात्मक लक्ष्य के लिए बुनियादी कार्यों को निर्धारित करने के अलावा ऊर्जा सुरक्षा और सामर्थ्य (affordability) पर भी ध्यान केंद्रित किया गया था. सदस्य देशों से कोयला आधारित बिजली उत्पादन में धीरे-धीरे लगातार घटाने और अकुशल जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करने जैसे प्रयासों में तेजी लाने का अनुरोध किया गया था. इसके अलावा एक्शन फॉर क्लाइमेट इम्पॉवरमेंट (ACE) के तहत कॉप27 कार्य योजना और लिंग व जलवायु परिवर्तन के लिए प्रयासों को स्वीकार किया गया था, जो जलवायु कार्रवाई के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण को सामने लाता है.

प्रश्न 2.कॉप28 की प्राथमिकताएं क्या हैं?

सीईईडब्ल्यू: एक ऐसे वर्ष में जब बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव के बीच मौसम की चरम घटनाएं बढ़ रही हैं, अरबों लोगों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के लिए ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की जरूरत है, यह कॉप28 बहुत महत्वपूर्ण है. इसकी वजह कि यह पेरिस समझौते और इसके तहत 2030 तक निर्धारित लक्ष्यों की कुल समयावधि का मध्य बिंदु है. इसकी प्रमुख प्राथमिकताओं में हानि व क्षति कोष का संचालन, प्रथम ग्लोबल स्टॉकटेक को पूरा करना, जलवायु जवाबदेही को मजबूत बनाना, सभी जीवाश्म ईंधनों को चरणबद्ध तरीके से घटाने पर चर्चा, एक न्यायसंगत ऊर्जा परिवर्तन को सक्षम बनाना, लचीली खाद्य प्रणालियों को विकसित करना, जलवायु वित्त और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को विस्तार देना शामिल है.

प्रश्न 3. कॉप28 के लिए भारत की प्राथमिकताएं क्या हैं?

सीईईडब्ल्यू:

 1. हानि व क्षति: जैसा कि पिछले साल कॉप27 में हानि और क्षति कोष (एलडीएफ) की घोषणा हुई थी, जिसका संचालन शुरू करना असली परीक्षा है. भारत इस बात को मुखरता से उठाता है कि सभी विकासशील देशों को इस निधि का प्राप्तकर्ता बनाया जाए और विकसित देश अपने ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन की जिम्मेदारी व साम्यता के नियम के आधार पर इस कोष को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी उठाएं. उल्लेखनीय है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के मामले में भारत एक अत्यधिक जोखिम वाला देश है, जिसकी 80 प्रतिशत आबादी चरम जलवायु घटनाओं के प्रति अत्यधिक जोखिम वाले जिलों में रहती है. भले ही ट्रांजिशनल कमेटी के सदस्यों के बनाए सिफारिशों के मसौदे को कॉप में स्वीकार किया जाना है. ऐसे में, कॉप28 को जलवायु परिवर्तन को सहने की क्षमता (लचीलापन) बढ़ाने और सबसे पहले प्रभावित होने वाले कमजोर समुदायों की सहायता की दिशा में प्रगति का आकलन करने की आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए.

2. ग्लोबल स्टॉकटेक: पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पाने की दिशा में प्रगति की वैश्विक समीक्षा (ग्लोबल स्टॉकटेक) के अंतिम निष्कर्ष को निम्नलिखित बिंदुओं पर प्रकाश डालना चाहिए, ताकि ये भारत और ग्लोबल साउथ (विकासशील देश) के लिए प्रासंगिक बने रहें.

निष्क्रियता के लिए विकसित देशों की सामूहिक जिम्मेदारी तय करते हुए प्री-2020 वादों को पूरा करने में मौजूद अंतरों का लेखा-जोखा पेश करना चाहिए. ग्लोबल स्टॉकटेक के दौरान विभिन्न देशों की प्रस्तुतियों में से 20 प्रतिशत में इस बात उल्लेख था. ये देश सामूहिक रूप से दुनिया की 80% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं.

वैज्ञानिक परिदृश्य विकास में साम्यता को सुनिश्चित करते हुए, क्षेत्र-विशिष्ट दिशानिर्देश देते हुए, और हानि व क्षति लागत के आकलन के लिए अनुकूलन और प्रविधियों के लिए सामान्य परिभाषाओं को स्थापित करते हुए सर्वोत्तम उपलब्ध विज्ञान पर ध्यान दिया जाए.

उत्सर्जन को घटाने और सर्वोत्तम पद्धतियों को, जो भारत और दुनिया को लाभ पहुंचा सकें, उपलब्ध कराने के लिए  कार्बन मार्केट्स और सतत जीवन शैली की भूमिका को मान्यता दी जाए.

जलवायु गतिविधियों के लिए आवश्यक धन के लिए स्रोतों, प्रकारों और मात्रा को चिन्हित करके और वित्त वितरण के लिए बाजार के प्रारूपऔर संस्थागत ढांचे को रेखांकित करके वित्त प्रवाह में तेजी लाई जाए.

बढ़ी हुई वित्तीय सहायता के साथ एक उचित और न्यायसंगत परिवर्तन को संभव बनाया जाए, जो भारत और अन्य विकासशील देशों को अपने ऊर्जागत परिवर्तन को हासिल करने में मदद कर सके.

हरित हाइड्रोजन और कार्बन कैप्चर उपयोग एवं भंडारण (सीसीयूएस) जैसी उच्च शमन और अनुकूलन क्षमता वाली आशाजनक प्रौद्योगिकियों के सह-विकास और सह-स्वामित्व के लिए विभिन्न देशों के बीच प्रौद्योगिकी साझेदारी और सहयोग बढ़ाया जाए.

3.जवाबदेही: विकसित देशों को 2025 तक अनुमानित 3.7 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड समतुल्य (GtCO2eq) कार्यान्वयन  अंतर को दूर करना होगा, ताकि वे इस महत्वपूर्ण दशक में अपने एनडीसी को बढ़ाने के अवसर पता लगा सकें. इसके अलावा, उन्हें 1.5°C लक्ष्य को बरकरार रखने के लिए आवश्यक उत्सर्जन कटौती को भी वैश्विक औसत से ज्यादा करना होगा. इसके लिए विकसित देशों को अपनी 2030 एनडीसी को 2019 के स्तर से 43 प्रतिशत से ज्यादा कटौती से आगे ले जाने की जरूरत है. भविष्य के उपायों पर निर्भर करने के बजाए इस महत्वपूर्ण दशक में विकसित देशों की ओर से अपने उत्सर्जन में भारी कटौती करने की जरूरत है. इसके लिए विकसित देशों को अपने नेट-जीरो लक्ष्यों के लिए प्रतिवर्ष उत्सर्जन कटौती का खाका तैयार करने और अपने लक्ष्यों को पाने के लिए महत्वाकांक्षी कार्बन बजट बनाने की आवश्यकता है. विश्वास कायम करने के लिए, विकसित देशों को विश्वसनीय बनना होगा और पेरिस समझौते के प्रति प्रतिबद्ध रहना होगा. उन्हें 2020 से पहले की गैर-भागीदारी, ग्रे अकाउंटिंग प्रक्रियाएं और आधे-अधूरे वादे जैसी जलवायु व्यवस्था की विफलताओं को दोबारा नहीं दोहराना चाहिए.

4. जीवाश्म ईंधन: कॉप27 में भारत ने सभी जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से बंद करने की अपील की थी, जिसे काफी समर्थन मिला था. यह चर्चा के दोबारा उभरने की संभावना है, जहां भारत और अन्य विकासशील देश  विकसित देशों को जीवाश्म ईंधन को छोड़ने के लिए और अधिक प्रयास करने के लिए जोर दे सकते हैं. इसके अलावा, साम्यता और ऐतिहासिक उत्सर्जन की जवाबदेही को देखते हुए, भारत विकसित देशों से 2050 तक नेट-नेगेटिव होने की अपील करता है, जिससे कि विकासशील देशों को अपने विकास के लिए उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग की छूट मिल सके. उम्मीद है कि कॉप28 में जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटाने की समयसीमा, लक्ष्य और विस्तार पर चर्चा हो सकेगी.

5. जलवायु वित्त: भारत से जलवायु वित्त की एक सामान्य परिभाषा निर्धारित करने की अपील किए जाने की आशा है, यानी जलवायु वित्त पर एक New Collective Quantified Goal (एनसीक्यूजी), जो पर्याप्त हो और जरूरतों पर आधारित हो, जो पिछले वित्तीय लक्ष्यों और प्रतिबद्धताएं पूरी करने को प्राथमिकता देते हुए बहस को ‘खरबों डॉलर' की तरफ ले जा सके. नई वित्तीय व्यवस्था के लिए मजबूत अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (आईएफआई) और मल्टी-लैटरल डेवलपमेंट बैंक (एमडीबी) की जरूरत होगी, ताकि पद्धतियों, प्राथमिकताओं में सुधार और फंडिंग को विस्तार देने के साथ विकासशील देशों में जलवायु फंडिंग को बढ़ाया जा सके.

6. प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली: भारत 2027 के अंत तक पूरी दुनिया को एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के दायरे में लाने के लिए कॉप27 के दौरान द अर्ली वार्निंग फॉर ऑल इनिशिएटिव (Early Warnings for All) को शुरू करने के वादे को पूरा करने पर जोर देगा. काउंसिल ऑन एनर्जी, इनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत के 72 प्रतिशत जिलों में भीषण बाढ़ जैसी मौसमी घटनाओं का जोखिम मौजूद है, जिनमें से एक-चौथाई जिलों में बाढ़ पूर्वानुमान स्टेशन मौजूद हैं.

7.ऊर्जा परिवर्तन: भारत द्वारा एक न्यायसंगत और स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन पर जोर दिए जाने की संभावना है. ऐसा परिवर्तन जो विज्ञान पर आधारित हो, सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं (सीबीडीआर-आरसी) के सिद्धांत को मानने और विकासशील देशों को अत्यंत आवश्यक वित्त, तकनीक और क्षमता निर्माण प्रदान कर सके. इसके नेट-जीरो संक्रमण के लिए मौजूदा आकलन 10 ट्रिलियन अमेरीकी डॉलर है, जो विविध प्रौद्योगिकियों, अनुप्रयोगों और ग्रिड एकीकरण के माध्यम से आना चाहिए.

प्रश्न 4. कॉप28 से ग्लोबल साउथ की क्या उम्मीदें हैं?

सीईईडब्ल्यू: ग्लोबल साउथ यानी विकासशील देशों को कॉप28 से मजबूत वैश्विक सहयोग को प्राथमिकता देने, उत्सर्जन कटौती में मौजूद अंतर को दूर करने और वित्तीय प्रणालियों से जुड़े बदलावों में तेजी लाने के लिए मजबूत कदम उठाने की अपील करने की उम्मीद है. विशिष्ट लक्ष्यों में, 2030 तक महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा क्षमता और ऊर्जा दक्षता लक्ष्य, जलवायु आपदाओं के लिए नया व समर्पित वित्तपोषण और समग्र जलवायु कार्रवाइयों के लिए वित्त जुटाना शामिल है. वे वैश्विक तापमान को 1.5°C तक सीमित रखने के लक्ष्य को सुनिश्चित करने, जिसे हम तोड़ने की कगार पर पहुंच चुके हैं, और पेरिस समझौते के लक्ष्यों को पाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और सबकी समान सहमति की आवश्यकता पर जोर देते हैं.

प्रश्न 5. कॉप28 को क्यों जीएसटी-कॉप कहा जा रहा है?

सीईईडब्ल्यू: कॉप28 को जीएसटी-कॉप इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि यह पहले 'ग्लोबल स्टॉकटेक' (जीएसटी) के पूरा होने का गवाह बन रहा है. जीएसटी, 2015 के पेरिस समझौते के तहत स्थापित एक पंचवर्षीय चेकपॉइंट है. ग्लोबल स्टॉकटेक विभिन्न देशों के लिए शमन, अनुकूलन और वित्त पर ध्यान केंद्रित करते हुए जलवायु कार्रवाई में उनकी प्रगति का आकलन करने और उसे बढ़ाने वाली एक महत्वपूर्ण व्यवस्था है. जीएसटी में अलग-अलग देशों का आकलन करने के बजाए वैश्विक कार्यों के सामूहिक प्रभावों का मूल्यांकन किया जाता है, विभिन्न देशों को अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों (NDCs) यानी राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, और भविष्य की गतिविधियों की रूपरेखा निर्धारित की जाती है.

प्रश्न 6. इस कॉप में हानि व क्षति कोष पर सहमति बन पाने के कितने आसार हैं?

सीईईडब्ल्यू: कॉप28 में हानि व क्षति कोष पर किसी समझौते पर पहुंचने की संभावना अनिश्चित है. लॉस एंड डैमेज ट्रांजिशनल कमेटी की पांचवी बैठक में सिफारिशों के मसौदा को तैयार किया गया था, जिसमें विश्व बैंक वित्तीय मध्यस्थ कोष (World Bank Financial Intermediary Fund) को चार साल के लिए अंतरिम मेजबान के रूप में प्रस्तावित किया गया है. हालांकि, उच्च ओवरहेड शुल्क और निर्णय एकाधिकार से जुड़ी चिंताओं के साथ इस पर विश्व बैंक की मंजूरी अभी लंबित है. अमेरिका के नेतृत्व में विकसित राष्ट्र प्राथमिक दाता बनने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं. उन्होंने मसौदे में मौजूद सीबीडीआर-आरसी, साम्यता और उत्तरदायित्व के संदर्भों को अस्वीकार कर दिया है, जिससे उनका समर्थन स्वैच्छिक हो जाता है. उनका यह रुझान हानि व क्षति कोष की मूल भावना और इरादे को कमजोर करता है. इसके अलावा यू.के. और ऑस्ट्रेलिया की आपत्तियों के कारण फंड का आकार भी अनिश्चित बना हुआ है. वर्तमान मसौदे में केवल विकसित देशों से योगदान करने का आग्रह किया गया है, जिसमें कोई राशि नहीं निर्धारित की गई है.

प्रश्न 7. अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में विकसित और विकासशील देशों के बीच टकराव के मुख्य कारण क्या हैं?

सीईईडब्ल्यू: अंतरराष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में विकसित और विकासशील देशों के बीच का टकराव के कई पहलू हैं. इसकी एक वजह ऐतिहासिक जिम्मेदारी में निहित है. विकासशील देश इस बात पर जोर देते हैं कि चूंकि ऐतिहासिक रूप से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में विकसित देशों का योगदान बहुत ज्यादा है, इसलिए उन्हें जलवायु परिवर्तन के समाधान का ज्यादा बोझ उठाना चाहिए. सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियां और संबंधित क्षमताएं (सीबीडीआर-आरसी) सिद्धांत रेखांकित करता है कि ऐतिहासिक योगदान व वर्तमान क्षमताओं के आधार पर अलग-अलग देशों के लिए भिन्न-भिन्न प्रतिबद्धताएं तय करने की जरूरत है.

आर्थिक असमानता भी टकराव की वजह बन रहा है. विकासशील देश जलवायु परिवर्तन को प्रभावी ढंग से घटाने और अनुकूलन गतिविधियों के लिए पर्याप्त वित्तीय सहायता और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की मांग कर रहे हैं. विकसित देशों ने भी उत्सर्जन घटाने और जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन स्थापित करने में विकासशील देशों की सहायता के लिए सालाना 100 अरब डॉलर के जलवायु वित्त को जुटाने का वादा किया है. विकसित देश की ओर से इस प्रतिबद्धता का सम्मान और यह सुनिश्चित करना विकासशील देशों के लिए महत्वपूर्ण है कि उन्हें जलवायु चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक वित्तीय सहायता मिले, जलवायु कार्रवाई पर वैश्विक सहयोग बढ़े और जलवायु गतिविधियों न्यायसंगत प्रगति को बढ़ावा मिले.
अनुकूलन और सुलभ प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए कोष पर भी विवाद होते हैं. महत्वाकांक्षा के स्तरों में अंतर और आधे-अधूरे लक्ष्य भी विवाद बढ़ाते हैं. अतीत की गलतियों को सुधारने की विकसित देशों की सीमित इच्छाशक्ति और इरादा हानि व क्षति कोष विवाद में एक और परत जोड़ देता है. न्यायसंगत समाधान सर्वोपरि है, जो आवश्यक कार्रवाइयों को जमीन पर उतारने के दौरान विभिन्न हितों, क्षमताओं और प्राथमिकताओं के बीच तालमेल बैठाने की चुनौतियों पर जोर देते हैं.

प्रश्न 8: जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर विकसित देशों का अब तक प्रदर्शन कैसा रहा है, वे अपने लक्ष्यों को पूरा करने में कहां तक आगे बढ़े हैं?

सीईईडब्ल्यू: काउंसिल ऑन एनर्जी, इनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के एक हालिया अध्ययन से सामने आया है कि विकसित देशों ने संचयी रूप से 555 गीगाटन कार्बनडाई ऑक्साइड समतुल्य (GtCO2-eq) उत्सर्जन किया है और अपने 2030 उत्सर्जन कटौती लक्ष्य को पाने के रास्ते पर भी नहीं हैं. वास्तव में, वे 2030 में 3.7 गीगाटन कार्बनडाई ऑक्साइड समतुल्य (GtCO2-eq) अतिरिक्त उत्सर्जन करेंगे. इसका सीधा असर 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के साथ उपलब्ध कार्बन बजट पर पड़ता है. इसलिए, साल-दर-साल उत्सर्जन कटौती की योजना के साथ लक्ष्यों को महत्वाकांक्षी बनाने और पेरिस समझौते लक्ष्यों के अनुरूप बने रहने की जरूरत है. विकसित देशों का 2020 से पहले का सामूहिक उत्सर्जन लगभग 25 GtCO2eq था, जो 2019 में कुल वैश्विक उत्सर्जन के आधे के बराबर है. यह स्पष्ट रूप से लक्ष्यों को बढ़ाकर भरोसा पैदा करने, तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने से आगे बढ़कर कदम उठाने और अपर्याप्त जलवायु प्रतिज्ञाओं व जलवायु समझौतों से आसानी से अलग होने जैसी 2020 से पहले की विफलताओं को दोबारा न दोहराने की जरूरत को रेखांकित करता है. इस लिहाज से देखें तो जीएसटी जवाबदेही के आकलन के एक महत्वपूर्ण बिंदु के रूप में काम करता है. यह पेरिस समझौते के लक्ष्यों पर विभिन्न देशों की प्रगति पर प्रकाश डालता है. इसके साथ यह भी याद दिलाता है कि वैश्विक तापमान बढ़ रहा है और कॉप28 में इस पर बात हरहाल में ध्यान में रखा जाना चाहिए

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