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This Article is From Jun 30, 2023

US सुप्रीम कोर्ट ने यूनिवर्सिटी में एडमिशन के लिए नस्ल-जातीयता के इस्तेमाल पर लगाया बैन, बाइडेन ने जताई आपत्ति

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दशकों पुरानी प्रथा के लिए एक बड़ा झटका है. इस प्रथा ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए शैक्षिक अवसरों को बढ़ावा दिया है. अन्य अल्पसंख्यकों के लिए भी रास्ते खोले हैं. यह फैसला दशकों की मिसाल से दूर चला गया है."

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US सुप्रीम कोर्ट ने यूनिवर्सिटी में एडमिशन के लिए नस्ल-जातीयता के इस्तेमाल पर लगाया बैन, बाइडेन ने जताई आपत्ति
वॉशिंगटन:

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट (US Supreme Court) ने वहां के विश्वविद्यालयों में दाखिले के दौरान नस्ल और जतीयता का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है. कोर्ट के इस फैसले पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) ने कड़ी आपत्ति जताई है. राष्ट्रपति बाइडेन ने गुरुवार (29 जून) को कहा कि वह विश्वविद्यालय प्रवेश निर्णयों में नस्ल और जातीयता के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने वाले अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमत हैं. 

राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा, "सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला दशकों पुरानी प्रथा के लिए एक बड़ा झटका है. इस प्रथा ने अफ्रीकी-अमेरिकियों के लिए शैक्षिक अवसरों को बढ़ावा दिया है. अन्य अल्पसंख्यकों के लिए भी रास्ते खोले हैं. यह फैसला दशकों की मिसाल से दूर चला गया है." उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालयों को विविध छात्र निकाय बनाने की अपनी प्रतिबद्धता नहीं छोड़नी चाहिए.

अमेरिका में भेदभाव अभी भी मौजूद- बाइडेन
बाइडेन ने कहा, ''अमेरिका में भेदभाव अभी भी मौजूद है. अदालत का आज का फैसला इसमें कोई बदलाव नहीं करता है. यह एक साधारण तथ्य है कि अगर किसी छात्र को शिक्षा के रास्ते में विपरीत परिस्थितियों से उबरना पड़ा है, तो कॉलेजों को इसे पहचानना और महत्व देना चाहिए." उन्होंने कहा, "मेरा मानना ​​है कि हमारे कॉलेज तब मजबूत होते हैं, जब वे नस्लीय रूप से विविध होते हैं. हम इस निर्णय को अंतिम निर्णय नहीं मान सकते."

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने क्या कहा?
समाचार एजेंसी एएफपी के मुताबिक, चीफ जस्टिस जॉन रॉबर्ट्स ने बहुमत की राय में लिखा कि हालांकि एक्शन अच्छे इरादे से लिया गया और अच्छे विश्वास में लागू किया गया, लेकिन यह हमेशा के लिए नहीं रह सकता है. उन्होंने यह भी लिखा कि यह दूसरों के प्रति असंवैधानिक भेदभाव है. इसी के साथ चीफ जस्टिस ने लिखा, ''छात्र के साथ एक व्यक्ति के रूप में उसके अनुभवों के आधार पर व्यवहार किया जाना चाहिए, नस्ल के आधार पर नहीं.''

एफपी की रिपोर्ट में कहा गया कि महिला के गर्भपात के अधिकार की गारंटी को पलटने के एक साल बाद कोर्ट ने रूढ़िवादी बहुमत ने 1960 से चली आ रहीं उदार नीतियों को समाप्त करने के लिए फिर से अपनी तत्परता दिखाई है. 

कोर्ट ने और क्या कहा?
अदालत ने कहा कि विश्वविद्यालय किसी आवेदक के बैकग्राउंड विचार करने के लिए स्वतंत्र हैं, चाहे, उदाहरण के लिए वे नस्लवाद का अनुभव करते हुए बड़े हुए हों लेकिन मुख्य रूप से इस आधार पर फैसला लेना कि आवेदक श्वेत है, काला है या अन्य है, अपने आप में नस्लीय भेदभाव है. चीफ जस्टिस ने कहा कि संवैधानिक इतिहास उस विकल्प को बर्दाश्त नहीं करता है.

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