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This Article is From Jan 27, 2022

Explainer: Russia-Ukraine किस Ceasefire पर हुए राज़ी? NATO के अलग सुरों से क्या 'सहमा यूक्रेन'?

JNU में कूटनीति के प्रोफेसर डॉ स्वर्ण सिंह ने बताया,  "राष्ट्रपति पुतिन मंझे हुए राजनेता की तरह बिसात बिछा रहे हैं. और मुझे लगता है कि अगर यूक्रेन के मुद्दे पर उनका मुकाबला जो बाइडेन से करें तो पुतिन ज्यादा प्रभावी नज़र आते हैं."

Explainer: Russia-Ukraine किस Ceasefire पर हुए राज़ी? NATO के अलग सुरों से क्या 'सहमा यूक्रेन'?
US ने Ukraine से अपने नागरिकों और दूतावास कर्मचारियों को निकलने को कहा है
नई दिल्ली:

अमेरिका (US) कह रहा है कि रूस (Russia) कभी भी यूक्रेन पर (Ukraine) हमला कर सकता है. लेकिन यूक्रेन खुद यह मानने को तैयार नहीं है. अमेरिका और ब्रिटेन (UK) जहां एक तरफ़ यूक्रेन से अपने नागरिकों और दूतावास स्टाफ को निकलने के लिए कह रहे हैं तो दूसरी ओर यूक्रेन और रूस के बीच "सीज़फायर" (Ceasefire) पर सहमति बनने की  ख़बरें आईं.  पेरिस (Paris) में आठ घंटे तक चली रूस (Russia), जर्मनी (Germany), फ्रांस (France), यूक्रेन (Ukraine) के राजदूतों की बैठक के बाद यह सहमति बनी. 

लेकिन यूक्रेन के मुद्दे पर अमेरिका की प्रतिक्रिया रूस को लेकर लगातार आक्रामक है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन (Joe Biden) का कहना है कि यूक्रेन को लेकर उसकी प्रतिक्रिया यूक्रेन और उसके यूरोपीय सहयोगियों के साथ तालमेल में है. हमने जेएनयू (JNU) के कूटनीति (Diplomacy) और निशस्त्रीकरण (Disarmament) के प्रोफेसर स्वर्ण सिंह से पूछा कि क्या वाकई ऐसा है?  साथ ही जाना कि यूक्रेन को लेकर नाटो (NATO) और रूस में जंग के डर के दौरान पेरिस में यूक्रेन और रूस के बीच हुआ "सीज़फायर" किस बारे में है?     

यह भी पढ़ें:Explainer: Ukraine के लिए Russia से क्यों भिड़ रहा US? पुतिन का क्या है खेल? 5 बड़े सवालों के जवाब

प्रोफेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं, "राष्ट्रपति जो बाइडेन की बातों से संकेत मिलता है कि शायद नाटो में एकजुटता की कमी है. अफगानिस्तान से अचानक निकलने के कारण राष्ट्रपति जो बाइडेन की प्रसिद्धि खराब हुई है. इसलिए वो शायद चाहते हैं कि दूसरी तरफ ताकत दिखाएं और अपना प्रभाव जमाएं. ऐसा करके वो अपने घरेलू मोर्चे पर मौजूद आर्थिक परेशानियों से भी ध्यान हटा सकेंगे. इसी वजह से अमेरिका का रुझान ज़्यादा आक्रामक है.  कुछ हद तक ब्रिटेन का भी यूक्रेन को लेकर आक्रामक रुझान है क्योंकि ब्रिटेन की विश्व स्तर पर समृद्धि और प्रभाव अमेरिका से जुड़ा हुआ है. जबकि फ्रांस और जर्मनी जैसे बड़े यूरोपीय देशों का रुझान अलग है. वो नहीं चाहते कि इस समय रूस को लेकर ऐसा तनाव बनाया जाए."

उन्होंने आगे बताया,  "ख़ास तौर से जर्मनी रूस की गैस और उसके तेल पर बहुत निर्भर है. राष्ट्रपति पुतिन पिछले 20 साल से सत्ता में हैं. यूरोप के कई पूर्व बड़े नेता रूसी कंपनियों में बड़े पदों पर जाते हैं. इसी लिए यूरोप के नेता नहीं चाहेंगे कि रूस के साथ संबंध बहुत बिगड़ें. रूस अपने पड़ोसी देशों के साथ भी अच्छे हैं."

यूक्रेन मसले पर किसका पलड़ा भारी?

यूक्रेन के मुद्दे पर एक तरफ अमेरिका यूरोप को अपनी ओर खींच रहा है तो दूसरी ओर रूस है. ऐसे में दुनिया के सामने सवाल है कि किसका पलड़ा भारी रह सकता है? 

जेएनयू में कूटनीति के प्रोफेसर ने बताया,  "राष्ट्रपति पुतिन मंझे हुए राजनेता की तरह बिसात बिछा रहे हैं. और मुझे लगता है कि अगर यूक्रेन के मुद्दे पर उनका मुकाबला जो बाइडेन से करें तो वो ज्यादा प्रभावी नज़र आते हैं. हाल ही में उनका सीटीओ देशों के साथ शिखर सम्मेलन हुआ, वो अभी भारत यात्रा पर थे.  चीन के नेताओं से उनकी बात हुई . पुतिन ने अभी ईरान के नेता से भी मुलाकात की."    

यूरोप को अपनी ऊर्जा ज़रूरतें पूरी करने के लिए जहां रूस की गैस और तेल की ज़रूरत है, तो अमेरिका भी वहां अपने व्यापारिक हित देख रहा है. अब तक जर्मनी , फ्रांस का रूस को लेकर नर्म रूख रहा है. ऐसे में यूक्रेन संकट के मद्देनज़र अमेरिका का साथ देना यूरोपीय देशों के लिए कितना ज़रूरी है?  

यूक्रेन पर NATO के अलग सुरों से 'सहमा' यूक्रेन 

इस सवाल का जवाब देते हुए प्रोफेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं,  "सभी यूरोपीय देश नॉर्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइज़ेश नाटो के सदस्य हैं. इसमें 30 देश हैं. 7 नए सदस्य हैं, 3 पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे, 4 देश ईस्टर्न कम्युनिस्ट ब्लॉक का हिस्सा हैं. इन सभी देशों का रुझान इस तनाव को लेकर आज अलग है. लकिन जब हम बात करते हैं यूरोपीय देशों की तो हम ज्यादा ध्यान देते हैं तीन बड़े देशों E3 देशों पर. ये हैं ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस." 

ब्रिटेन यूक्रेन के हल के लिए अमेरिकी खेमे में नज़र आता है. जब "कभी भी युद्ध हो सकता है" कह कर अमेरिका ने यूक्रेन से अपने नागरिकों और दूतावास कर्मचारियों को वापस बुला लिया तो ब्रिटेन ने भी वही किया.  लेकिन यूरोप के दूसरे दो बड़े देशों जर्मनी और फ्रांस का ऩज़रिया अलग दिख रहा है. वहीं रूस ने यूक्रेन को तीन तरफ से घेर रखा है.

एक तरफ से बेलारूस है जहां लुकाशेंको की सरकार को रूस का समर्थन रहा है और वो रूस का करीबी देश है, एक तरफ से दक्षिण में क्रीमिया का क्षेत्र है तो तीसरी तरफ पूर्व में भी एक बड़े क्षेत्र में एथनिक रूसी रहते हैं और वहां भी तनाव है. इसका यूक्रेन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है. यूक्रेन को लगता है कि अगर यह हिंसा युद्ध में बदलती है तो बहुत बड़े पैमाने पर नुकसान हो सकता है. 

'अमेरिका की ज़रूरत से ज़्यादा प्रतिक्रया'

प्रोफेसर स्वर्ण सिंह बताते हैं,  "इस बात को यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की अच्छी तरह से समझ रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि नाटो (NATO) एक जुबान में नज़र नहीं आ रहा है. ऐसे में रूस से विवाद का उन पर नकारात्मक असर ज्यादा हो सकता है. यूक्रेन के राष्ट्रपति खुद कह रहे हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन शायद ओवर रिएक्शन कर रहे हैं या इसे ओवर एस्टीमेट कर रहे हैं. हालत इतने खराब नहीं हैं और अभी भी बात हो सकती है."

यूक्रेन को लेकर बने माहौल के बीच फ्रांस और जर्मनी ने ही पेरिस में यूक्रेन और रूस के राजदूतों को मिलवाया.  इस मुलाकात के बाद मोटे तौर पर यह सहमति बनी है कि उत्तरी क्षेत्र में जहां एथनिक रूसियों का क्षेत्र है (दोनेत्सक और लोहांस्क), जहां यूक्रेन के साथ बढ़ता तनाव है, उस क्षेत्र में सीज़फायर को बनाए रखा जाना चाहिए. ऐसे में लगता है कि रूस और यूक्रेन दोनों सीधी बात करने को तैयार हैं."

रूस युद्ध नहीं चाहता तो क्या चाहता है?

अंतर्राष्ट्रीय संबधों के विशेषज्ञ डॉ स्वर्ण सिंह कहते हैं, "ना यूक्रेन युद्ध चाहता है ना रूस युद्ध चाहता है. लेकिन जब रूस कहता है कि वो युद्ध नहीं चाहता है तो पश्चिमी देशों को लगता है कि वो कुछ वैसा कर सकता है जैसा उसने 2014 में क्रीमिया में किया था. और कुछ संकेत ऐसे भी मिलते हैं कि जैसे क्रीमिया की तरह दोनेत्सक और लोहांस्क में भी शायद एथनिक रूसियों को रूस से कुछ सहायता मिल रही हो. रूस सीधे युद्ध छेड़ने वाला नहीं है. वो कुछ क्रीमिया की तरह ही कर सकता है. और अगर ऐसा होता है तो क्या नाटो को सीधे युद्ध छेड़ने का मौका मिलेगा? मुझे ऐसा नहीं लगता है कि नाटो को यह मौका मिलेगा. "

वह बताते हैं, "रूस और यूक्रेन के बीच 2014 में भी कोई सीधा युद्ध नहीं हुआ था, वहां रूस ने क्राइमिया के विद्रोहग्रसित इलाके में अपने सैनिक घुसाए और बाद में वहां अपना आधिपत्य जमा लिया. यूक्रेन और कई देश इस इलाके में रूसी आधिपत्य को मान्यता नहीं देते हैं. संयुक्त राष्ट्र में भी कई बार प्रस्ताव पास हो चुका है कि क्राइमिया से रूस को पीछे हटना चाहिए. लेकिन रूस की अपनी सुरक्षा के लिए क्राइमिया बहुत ज़रूरी है."

पेरिस में किस 'सीज़फायर' पर चर्चा?

जब बात युद्ध के मुहाने पर हो और "सीज़फायर" की ख़बर हो तो सवाल उठना लाज़मी है. 

प्रोफेसर स्वर्ण सिंह ने बताया, "फिलहाल पेरिस में जिस सीज़फायर की बात हो रही है वो यूक्रेन के उत्तरी क्षेत्र दोनेत्सक और लोहांस्क में हो रहे एथनिक रूसी विद्रोहियों और यूक्रेन के बीच सीज़फायर की बात है.  जर्मनी, फ्रांस, यूक्रेन और रूस, इन चार देशों के राजदूतों की जो बात हुई है उसमें  रूस और यूक्रेन के बीच सीज़फायर की बात नहीं है. लेकिन कई महीनों से यूक्रेन की सीमा पर रूस के साथ जितना तनाव बना हुआ है उसमें कोई भी सकारात्मक शुरुआत अच्छा संकेत देती है."

वह कहते हैं, "जब हम रूस और यूक्रेन की सीमा की बात करते हैं तो यह कोई सीधी सीमा नहीं है जिसमें एक तरफ रूस के सैनिक खड़े हैं और दूसरी तरफ यूक्रेन के सैनिक खडे़ हैं. यह करीब 30 वर्ग किलोमीटर चौड़ी एक पट्टी है जिसे वो एक बफर ज़ोन मानते हैं. "


कोरोना महामारी के कारण टली यूक्रेन की विद्रोहियों से वार्ता 

 यूक्रेन के उत्तरी डोनबास क्षेत्र में रूस मूल के कई लोग रहते हैं. वो पहले ही अपने दो रिपब्लिक घोषित कर चुके हैं. एक दोनेत्सक पीपल रिपलब्लिक और लोहांस्क पीपल रिपब्लिक.  पिछले 6-7 साल से यूक्रेन के साथ उनकी तनातनी चल रही है. उसमें एक मिंस्क में संधि भी हुई थी जिसमें कहा गया था कि यूक्रेन उनके साथ बात करेगा और कुछ हद तक उन्हें ऑटोनमी देने पर समझ बन सकती है. 2019 दिसंबर के बाद लगभग ये बातचीत बंद हो गई थी. कोशिश थी कि 2020 में बात होगी लेकिन वह भी कोरोना महामारी के चलते नहीं हो पाई.

इसके बाद तनाव बहुत बढ़ गया था. जुलाई 2020 में इसके बाद जर्मनी, फ्रांस, यूक्रेन और रूस के बीच एक सीज़फायर की सहमति बनी थी कि दोनेत्सक (Donetsk)और लोहांस्क( Luhansk)में हिंसा और तनाव रोका जाना चाहिए लेकिन वह भी कारगर नहीं हुई.  लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि आखिर यूक्रेन और उसके डोनबास क्षेत्र के विद्रोह के मामले में जर्मनी, फ्रांस और रूस कैसे शामिल हुए? 

नोरमैंडी फ्रेमवर्क में यूक्रेन और रूस  

प्रोफेसर स्वर्ण सिंह याद करते हैं, "द्वितीय विश्व युद्ध में एक बहुत बड़ी घटना हुई थी जिसे नोरमैंडी लैंडिंग (Normandy Landing) हुई थी. 2014 में इसके 50 साल मनाए जा रहे थे. जर्मनी, फ्रांस, रूस और यूक्रेन के नेता फ्रांस में नोरमैंडी नाम की जगह पर इकठ्ठे हुए थे. इसी साल रूस ने क्राइमिया को यूक्रेन से हथिया लिया था और करीब 13,000 लोग मारे गए थे. इसे लेकर बहुत तनाव था. यहीं इन देशों में रूस और यूक्रेन के विवाद और यूक्रेन के विद्रोह को लेकर बात हुई. इस मुद्दे पर नोरमैंडी की बातचीत को आगे बढ़ाया जाता रहा, इसलिए इसे नोरमैंडी फ्रेमवर्क भी कहते हैं.

क्या होता है नोरमैंडी फ्रेमवर्क (Normandy Framework)?

इसमें पहले इन देशों के राजदूत बात करते हैं. फिर राजदूत अपने विदेश मंत्रियों से बात करते हैं और फिर इन देशों के विदेश मंत्री अपने राष्ट्राध्यक्षों से बात करते हैं. यह फॉर्मेट भी 2019 दिसंबर के बाद नहीं चल पाया था. और अब जाकर इस फॉर्मेट में बैठक हुई और अब इसी फॉर्मेट में बैठक दो हफ्ते बाद जर्मनी में होने जा रही है. इससे एक संदेश यह जाता है कि रूस और यूक्रेन की तरफ से सकारात्मक रुझान बनता नज़र आता है उसका असर रूस और यूक्रेन के आपसी तनाव को कम करने पर पड़ सकता है. 

यूरोप (Europe) इस समय शीत युद्ध (Cold War)  के बाद अपने सबसे बड़े सुरक्षा संकट से गुजर रहा है. यूरोप के सबसे बड़े देश यूक्रेन (Ukraine) को रूस (Russia) ने तीन तरफ से घेर रखा है. बॉर्डर के पास रूसी सेनाओं का जमावाड़ा है.

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