बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को अपना देश छोड़ना पड़ गया है. वहां के सेना प्रमुख ने सत्ता पर काबिज होने का ऐलान भी कर दिया है. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे के बाद प्रदर्शनकारियों (Bangladesh Violence) ने ढाका के पॉश इलाके धानमंडी में देश के गृह मंत्री असदुज्जमां खान कमाल के आवास में तोड़फोड़ की और उसे आग के हवाले कर दिया. बांग्लादेश में प्रदर्शनकारी इतने उग्र हो चुके हैं कि उन्होंने बांग्लादेश के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान की मूर्ति पर चढ़कर हथौड़े चलाए. हालांकि, दुनिया में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. शासकों के तख्तापलट का इतिहास तो लंबा है. भारत सहित दुनिया भर के राजाओं के तख्तापलट उन्हीं के सिपाहसलारों, मंत्रियों और जनता ने कई बार किया है.
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सद्दाम हुसैन ने ऐसे किया था कब्जा
सद्दाम हुसैन इराक के तानाशाह थे. उनका जन्म 28 अप्रैल 137 को तिकरित में हुआ था. सद्दाम हुसैन ने 1957 में सिर्फ 20 साल की उम्र में बाथ पार्टी की सदस्यता हासिल कर ली थी. यह पार्टी अरब में राष्ट्रवाद का अभियान चला रही थी. यही अभियान आगे चलकर 1962 में इराक में हुए सैन्य विद्रोह की वजह बना. सद्दाम हुसैन भी इस विद्रोह का हिस्सा थे. ब्रिगेडियर अब्दुल करीम कासिम ने ब्रिटेन के समर्थन से चल रही राजशाही को हटाकर सत्ता अपने कब्जे में कर ली. मगर ज्यादा दिन टिक न सके और 1968 में फिर सद्दाम हुसैन ने जनरल अहमद हसन अल बक्र के साथ मिलकर सत्ता पर कब्जा कर लिया. 1979 में सद्दाम हुसैन ने जनरल अहमद हसन अल बक्र को जबरन इस्तीफा दिलवा दिया और खुद राष्ट्रपति बन गए. इसके बाद 2003 तक सद्दाम हुसैन ने इराक पर राज किया लेकिन अमेरिका ने हमला कर उन्हें पकड़ लिया और फांसी दे दी.
परवेज मुशर्रफ ने नवाज का किया था
पाकिस्तान में तो कई बार तख्तापलट हुआ. अंतिम तख्तापलट परवेज मुशर्रफ ने किया था. मुशर्रफ का जन्म 11 अगस्त 1943 को दिल्ली में हुआ था. उन्होंने अपने शुरूआती साल तुर्की में बिताए, क्योंकि उनके पिता सैयद मुशर्रफुद्दीन अंकारा में तैनात थे. तुर्की से लौटने के बाद उन्होंने लाहौर से पढ़ाई की. वह 1961 में पाकिस्तानी सेना में शामिल हुए थे. मुशर्रफ ने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में एक युवा अधिकारी के रूप में लड़ाई लड़ी और कमांडर के रूप में 1971 के भारत-पाक युद्ध में भी भाग लिया था. करगिल में हार के बाद मुशर्रफ ने 1999 में रक्तहीन तख्तापलट में तत्कालीन प्रधानमंत्री शरीफ को अपदस्थ कर दिया और 1999 से 2008 तक विभिन्न पदों पर पाकिस्तान पर शासन किया. मुर्शरफ ने शुरुआत में पाकिस्तान के मुख्य कार्यकारी के रूप में और बाद में राष्ट्रपति के रूप में शासन किया. घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते 2008 में चुनावों की घोषणा करने वाले मुशर्रफ को चुनाव बाद राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा और वह दुबई में स्व-निर्वासन में चले गए. बाद में उनकी लंबी बीमारी के बाद मौत हो गई.
गद्दाफी की कहानी
मुअम्मर अल-गद्दाफी आज भी लोगों के जेहन में है. इसकी क्रूरता और तानाशाही की अनेक कहानियां हैं. जून 1942 को लीबिया के सिर्ते शहर में गद्दाफी का जन्म हुआ था. गद्दाफी हमेशा से अरब राष्ट्रवाद प्रभावित रहा. 1952 के साल में लेफ्टिनेंट कर्नल जमाल अब्देल नासेर ने इजिप्ट में एक रक्तहीन क्रांति कर वहां से हमेशा के लिए राजशाही को खत्म कर दिया था. गद्दाफी उसे ही अपना हीरो मानता था और उसी के नक्शे-कदम पर चलते हुए उसने आर्मी ज्वाइन की. आर्मी में उसने फ्री ऑफिसर नाम का एक ग्रुप बनाया. इस ग्रुप के सदस्य अपनी कमाई में से कुछ पैसा एक फंड में डालने लगे और सही समय का इंतजार करने लगे. 31 अगस्त 1969 को आधी रात में ऑपरेशन जेरूसलम शुरू हुआ और लीबिया के दूसरे सबसे बड़े शहर बेन गाजी के बरका छावनी में गद्दाफी की एंट्री हुई और अफसरों पर हथियार तान दिए गए. बिना खून बहाए गद्दाफी के कब्जे में बेन गाजी आ गया था. तब तक दूसरी तरफ उसके साथी राजधानी त्रिपोली की तरफ रेडियो स्टेशन, एयर क्राफ्ट और मिसाइल अड्डों पर कब्जा करने के लिए रवाना हो चुके थे और वो भी सफल रहे.
ऐसे बना तानाशाह
उस समय राजा इदरीस अपना इलाज तुर्की में करवा रहे थे और बाद में निर्वासन में ही उनकी मृत्यु हो गई. लीबिया के लोगों ने भी उसका समर्थन किया. लोगों को लगा कि उनके लिए गद्दाफी नई उम्मीद है. 1 सितंबर 1969 को विद्रोहियों के साथ मिलकर गद्दाफी ने राजा इदरीस की सत्ता पर कब्जा किया और सेना प्रमुख की शपथ ले ली. उस समय गद्दाफी की उम्र मात्र 27 साल थी. सत्ता हाथ में आते ही गद्दाफी ने लीबिया से मदद पा रहे अमेरिकी और ब्रिटिश सैन्य ठिकानों को बंद करने का हुक्म दिया. उस क्रांति के 42 साल बाद तक लीबिया के लोगों का आजादी का सपना एक सपने की तरह ही रहा. 2011 आते-आते हालात इतने बदल गए कि गद्दाफी अपने ही लोगों को घर में घुस कर मारने की धमकी देने लग गया. हालांकि, इस धमकी के बाद वो खुद फरार हो गया था, क्योंकि उसके सिर पर नाटो की सेना का खतरा था और खुद उसके देश की जनता उसके खून की प्यासी थी. इसके कुछ समय बाद ही जिस जनता ने उसे सिर पर बिठाया था, उसने उसे बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया.
बांग्लादेश बनते ही हुआ तख्तापलट
बांग्लादेश बनने के बाद से वहां की सेना ने कई बार तख्तापलट किया है. 15 अग्सत 1975 में पहली बार तख्तापलट के जरिए मुजीबुर सरकार को हटाया था. शेख हसीना उन्हीं की बेटी हैं. यह तख्तापलट मध्य स्तर के अधिकारियों ने किया था. शेख हसीना अपने पति वाजिद मियां और छोटी बहन के साथ यूरोप में थीं. यही वजह है कि इस भयानक हमले में उनकी जान बच गई. इसके बाद शेख हसीना कुछ समय तक जर्मनी में रहीं और फिर वह भारत में आ गईं. भारत की इंदिरा गांधी सरकार ने उन्हें शरण दिया और कई वर्षों तक वह भारत में ही रहीं. इसके बाद 2004 में शेख हसीना पर ग्रेनेड से भी हमला हुआ था. इस हमले में शेख हसीना बुरी तरह घायल हो गई थीं, लेकिन उनकी जान बच गई थी. अधिकारियों ने शेख मुजीबुर रहमान की धर्मनिरपेक्ष सरकार को खांडेकर मुश्ताक अहमद के नेतृत्व वाली इस्लामी सरकार से बदलने की योजना बनाई थी. तख्तापलट में शेख मुजीब और उनके परिवार के अधिकांश सदस्य मारे गए. फिर 3 नवंबर 1975 को खांडेकर मुश्ताक अहमद को भी तख्तापलट के जरिए हटा दिया गया. खालिद मुशर्रफ ने फिर कब्जा किया लेकिन उसकी भी हत्या कर दी गई. इसी तरह सेना का शासन यहां अक्सर रहा है.
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शेख हसीना की कहानी
भारत में काफी समय रहने के बाद जब बांग्लादेश में स्थिति ठीक हुई तो साल 1981 में शेख हसीना अपने देश बांग्लादेश वापिस लौटीं. जब शेख हसीना वापिस अपने देश लौटीं तो उनके समर्थन में लाखों लोग एयरपोर्ट पर पहुंच गए. उन्होंने पूरे देश में अपने समर्थन में लोगों को खड़ा किया और फिर 1986 के आम चुनाव में हिस्सा लिया. हालांकि, इस चुनाव में वह हार गईं. कहा जाता है कि इस चुनाव में सेना का दखल बहुत ज्यादा था. इसके बाद 1991 के चुनाव में भी शेख हसीना को हार का सामना करना पड़ा. 1996 में जब बांग्लादेश में स्वतंत्र रूप से चुनाव हुए तो शेख हसीना की पार्टी जीत गई और फिर शेख हसीना ने पीएम का पद संभाला. हालांकि, इसके बाद 2001 का चुनाव फिर से शेख हसीना हार गईं. मगर, 2009 में जब वो बांग्लादेश की पीएम बनीं तो तब से अब तक लगातार उनकी ही सरकार देश में रही. अब फिर बांग्लादेश में तख्तापलट हो गया.
श्रीलंका में जनता ने ही किया तख्तापलट
13 जुलाई 2022 को आर्थिक संकट और महंगाई के खिलाफ कई महीनों से चल रहे व्यापक विरोध प्रदर्शन के बाद श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे को अपना देश छोड़ना पड़ा था. हजारों लोगों ने प्रधानमंत्री कार्यालय पर धावा बोल दिया था. राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने प्रदर्शन को देखते हुए वादा किया था कि वह इस्तीफा दे देंगे और सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण का रास्ता साफ करेंगे. मगर, उससे पहले ही हजारों प्रदर्शनकारियों ने कोलंबो में उनके आधिकारिक आवास पर कब्जा कर लिया और उन्हें वहां से भागना पड़ा.
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