विज्ञापन

लिव-इन रिलेशनशिप गैर-कानूनी नहीं, राज्य सरकार जोड़ों की रक्षा करने के लिए बाध्य: इलाहाबाद हाईकोर्ट

कोर्ट ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अपने 27 पन्नों के फैसले में कहा कि भारत में शादी एक पवित्र रिश्ता है. शादी के कानूनी परिणाम होते है. यह दोनों व्यक्तियों को साथ रहने का हक देता है. कानूनी शादी से पैदा हुए बच्चों को कानूनी वारिस के तौर पर वैधता मिलती है.

लिव-इन रिलेशनशिप गैर-कानूनी नहीं, राज्य सरकार जोड़ों की रक्षा करने के लिए बाध्य: इलाहाबाद हाईकोर्ट
"संविधान का अनुच्छेद 21 शादी करने या न करने और लिव-इन रिलेशनशिप में रहने की व्यक्तिगत पसंद का अधिकार देता है"
इलाहाबाद:

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले बालिग जोड़ों की सुरक्षा को लेकर दाखिल एक दर्जन याचिकाओं पर सुनवाई की. सुनवाई के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि बालिग जोड़ों को अपनी इच्छा से साथ रहने का अधिकार है. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि लिव इन रिलेशनशिप गैरकानूनी नहीं है. कोर्ट ने कह की लिव-इन रिलेशनशिप का कॉन्सेप्ट शायद सभी को मंज़ूर न हो लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा रिश्ता गैर-कानूनी है या शादी की पवित्रता के बिना साथ रहना जुर्म है. घरेलू हिंसा एक्ट 2005 के तहत घरेलू रिश्ते में रहने वाली महिला को भी सुरक्षा, गुजारा भत्ता और कई सुविधाएं दी गई है. इस एक्ट में "पत्नी" शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है.

कोर्ट ने कहा कि एक बार जब कोई व्यक्ति जो बालिग है, अपना पार्टनर चुन लेता है तो किसी भी दूसरे व्यक्ति चाहे वो परिवार का सदस्य ही क्यों न हो उसको आपत्ति करने और उनके शांतिपूर्ण जीवन में रुकावट डालने का कोई अधिकार नहीं है. राज्य का यह कर्तव्य है जैसा कि संविधान में उस पर ज़िम्मेदारी डाली गई है कि वो हर नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करें. मानव जीवन के अधिकार को बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाना चाहिए भले ही वो नागरिक नाबालिग हो या बालिग, शादीशुदा हो या अविवाहित.

कोर्ट ने सभी याचिका स्वीकार की

कोर्ट ने माना कि सिर्फ इस बात से कि याचिकाकर्ताओं ने शादी नहीं की है उन्हें भारत के नागरिक होने के नाते भारत के संविधान में दिए गए उनके मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. इस कोर्ट को यह कहने में कोई झिझक नहीं है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक मौलिक अधिकार बहुत ऊंचे दर्जे पर है. पवित्र होने के नाते संवैधानिक व्यवस्था के तहत इसकी रक्षा की जानी चाहिए भले ही शादी हुई हो या पार्टियों के बीच कोई शादी न हुई हो. कोर्ट ने सभी याचिकार्ताओं की याचिका को स्वीकार कर लिया. यह आदेश जस्टिस विवेक कुमार सिंह की सिंगल बेंच ने आकांक्षा समेत 12 रिट याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए दिया है.

मामले के अनुसार इस रिट याचिका के जरिए याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद हाईकोर्ट से प्रतिवादियों को उनके शांतिपूर्ण जीवन में दखल न देने का निर्देश देने और सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश देने की मांग की थी. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि इस कोर्ट में बड़ी संख्या में याचिकाएं दायर की जा रही है जिनमें याचिकाकर्ताओं ने लिव-इन रिलेशनशिप में एक साथ रहने का फैसला किया है और उन्होंने दावा किया है कि उन्हें निजी प्रतिवादियों से जान का खतरा है और उन्होंने संबंधित जिलों की पुलिस से संपर्क किया है. लेकिन इसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया. इसलिए उन्होंने इन रिट याचिकाओं को दायर करके इस कोर्ट का रुख किया है. सभी रिट याचिकाओं में याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट से गुहार लगाई कि उनके जिले की पुलिस को निजी प्रतिवादियों के साथ-साथ निजी प्रतिवादियों के अन्य परिवार के सदस्यों/रिश्तेदारों/सहयोगियों से याचिकाकर्ताओं को कोई नुकसान पहुंचाने से बचाने के लिए सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया जाए.

कोर्ट ने मामले में शामिल अहम मुद्दे को देखते हुए सीनियर एडवोकेट श्वेताश्व अग्रवाल को एमिकस क्यूरी के तौर पर इस कोर्ट की मदद करने का अनुरोध किया. सीनियर वकील ने अपनी बहस के दौरान कहा कि भारत में लिव-इन रिलेशनशिप गैर-कानूनी नहीं है. हालांकि समाज के कई हिस्सों में इसे स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि लोगों को लगता है कि इससे व्यभिचार (Adultery) बढ़ सकता है. कहा गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार हर नागरिक का शादी करने का अधिकार एक अविभाज्य मौलिक अधिकार है. वो शादी कर सकते है या लिव-इन रिलेशनशिप में रह सकते है. यह उनकी पसंद है और कोई भी उनके शांतिपूर्ण जीवन में दखल नहीं दे सकता. आगे तर्क दिया कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 शादी करने या न करने और लिव-इन रिलेशनशिप में रहने की व्यक्तिगत पसंद का अधिकार देता है. एक बालिग व्यक्ति को अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने या अपने पार्टनर के साथ रहने का अधिकार है/उन्हें शादी के बाहर रहने का अधिकार है. न्याय मित्र ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अलग-अलग लिंग के सहमति वाले वयस्कों के बीच लिव-इन रिलेशनशिप कोई अपराध नहीं है. यह भी कहा गया कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 भारत के क्षेत्र में कानून की समान सुरक्षा की गारंटी देता है और अनुच्छेद 21 नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है.

"भारत में शादी एक पवित्र रिश्ता"

कोर्ट ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अपने 27 पन्नों के फैसले में कहा कि भारत में शादी एक पवित्र रिश्ता है. शादी के कानूनी परिणाम होते है. यह दोनों व्यक्तियों को साथ रहने का हक देता है. कानूनी शादी से पैदा हुए बच्चों को कानूनी वारिस के तौर पर वैधता मिलती है. पत्नी शादी के दौरान और शादी खत्म होने के बाद भरण-पोषण की हकदार होती है. इन जिम्मेदारियों से बचने और साथ रहने का फायदा उठाने के लिए लिव-इन रिलेशनशिप का कॉन्सेप्ट सामने आया है. लिव-इन रिलेशनशिप शादी के विपरीत जिम्मेदारियों और प्रतिबद्धता से मुक्त जीवन प्रदान करता है. इस रिश्ते में एक अविवाहित जोड़ा एक ही छत के नीचे इस तरह से साथ रहता है कि यह शादी जैसा लगता है लेकिन कानूनी तौर पर शादी किए बिना.

"पश्चिमी विचारों के लिए भारत में हमेशा स्वागत"

कोर्ट ने आगे कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप हमारे देश में सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं है. दूसरी ओर इसे भारत में एक वर्जित माना जाता है. पश्चिमी विचारों के लिए भारत में हमेशा स्वागत है और लिव-इन रिलेशनशिप का कॉन्सेप्ट ऐसे ही विचारों में से एक है। लिव-इन रिलेशनशिप अभी भी सामाजिक कलंक और नैतिक बहस का सामना कर रहा है खासकर पारंपरिक मूल्यों, बच्चों और  अलग-अलग धार्मिक/सांस्कृतिक दृष्टिकोणों के संबंध में. कुछ लोगों के लिए यह अनैतिक है जबकि अन्य इसे अनुकूलता के लिए एक वैध विकल्प के रूप में देखते है. आधुनिक युग में लिव-इन रिलेशनशिप के कॉन्सेप्ट का मतलब है एक पुरुष और एक महिला का बिना शादी के एक छत के नीचे साथ रहना. लिव-इन जोड़ों ने निजी प्रतिवादियों से सुरक्षा के लिए इस कोर्ट से संपर्क किया है इसलिए याचिकाकर्ताओं के कृत्य की नैतिकता में जाए बिना कोर्ट को यह देखना
है कि क्या याचिकाकर्ताओं द्वारा कोई अवैध कार्य किया गया है और इस संदर्भ में यह देखना है कि क्या वे किसी राहत के हकदार है.

क्या कहा राज्य सरकार ने?

वहीं राज्य ने तर्क दिया कि उन्हें सुरक्षा देना राज्य पर एक ऐसा गैर-कानूनी दायित्व डाल देगा कि वह ऐसे निजी फैसलों की रक्षा करे जो देश के सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करते है. राज्य ने आगे कहा कि पुलिस को अस्पष्ट आशंकाओं के आधार पर बिना शादी के साथ रहने वाले लोगों के लिए व्यक्तिगत सुरक्षा के तौर पर काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता. कोर्ट में 2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की डबल बेंच द्वारा किरण रावत के फैसले का हवाला दिया गया जिसमें तर्क दिया गया कि हाईकोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में साथ रहने वाले जोड़ों को सुरक्षा देने से इंकार कर दिया था. दूसरी तरफ न्याय मित्र ने तर्क दिया कि लिव-इन रिलेशनशिप को गैर-कानूनी नहीं कहा जा सकता और सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने कई फैसलों में लिव-इन रिलेशनशिप को स्वीकार किया है.

कोर्ट ने कहा कि लता सिंह और एस. खुशबू जैसे ऐतिहासिक फैसलों में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप की आलोचना नहीं की या उन्हें गलत नहीं ठहराया या सुरक्षा देने से इंकार नहीं किया. कोर्ट ने कहा कि किरण रावत मामले में प्रभावी रूप से इन बाध्यकारी मिसालों को नजरअंदाज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि एक व्यक्ति जिसने मेजॉरिटी एक्ट की धारा 3 के अनुसार बालिग होने की उम्र हासिल कर ली है वह अपने भले-बुरे को समझने में सक्षम है और इसलिए उसे कहीं भी जाने से रोका नहीं जा सकता. वह किसी के भी साथ रहने के लिए आज़ाद है और उसे ऐसा करने से रोका नहीं जा सकता.

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 114/भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 119(1) में कहा गया है कि यदि कोई जोड़ा पति-पत्नी के रूप में काफी समय तक साथ रहता है तो उन्हें शादीशुदा माना जाएगा. याचिकाकर्ता शांति से एक साथ रहने के लिए स्वतंत्र हैं और किसी भी व्यक्ति को उनके शांतिपूर्ण जीवन में दखल देने की अनुमति नहीं दी जाएगी. क्योंकि जीवन का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सुनिश्चित एक मौलिक अधिकार है जिसमें यह प्रावधान है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा.

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि अगर याचिकाकर्ताओं के शांतिपूर्ण जीवन में कोई बाधा आती है तो याचिकाकर्ता इस आदेश की सर्टिफाइड कॉपी के साथ संबंधित पुलिस कमिश्नर/SSP/SP से संपर्क करेंगे और पुलिस अधिकारी यह संतुष्ट होने के बाद कि याचिकाकर्ता बालिग है और अपनी मर्ज़ी से साथ रह रहे है उन्हें तुरंत सुरक्षा प्रदान करेंगे. यदि याचिकाकर्ता पढ़े-लिखे हैं और वे अपने एजुकेशनल सर्टिफिकेट और कानून के तहत मान्य अन्य सर्टिफिकेट पेश करते है जिससे यह साफ हो जाता है कि वे बालिग हो गए है और अपनी मर्ज़ी से रह रहे है तो कोई भी पुलिस अधिकारी उनके खिलाफ कोई भी ज़बरदस्ती वाली कार्रवाई नहीं करेगा जब तक कि उनके खिलाफ किसी भी अपराध के संबंध में कोई FIR दर्ज न हो जाए.

कोर्ट ने निर्देश दिया कि अगर उनके पास उम्र का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं है और वे ग्रामीण पृष्ठभूमि से है या अनपढ़/कम पढ़े-लिखे है तो पुलिस अधिकारी ऐसे लड़के या लड़की का सही उम्र पता लगाने के लिए ऑसिफिकेशन टेस्ट करवा सकता है और वह कानून के तहत अनुमत अन्य प्रक्रिया का भी पालन कर सकता है। कोर्ट ने सभी याचिकार्ताओं को राहत देते हुए सभी की याचिका स्वीकार कर ली.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com