
- इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक कलह के कारण हुई आत्महत्या को उकसावा नहीं माना जाएगा
- कोर्ट ने परिवारिक झगड़ों में "मुझे मर जाना चाहिए" जैसे क्षणिक आवेश वाले शब्दों को उकसावे के रूप में नहीं माना
- कोर्ट ने पाया कि उपलब्ध साक्ष्यों से यह साबित नहीं होता कि मृतक के पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प बचा था
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वैवाहिक कलह को लेकर की जाने वाली आत्महत्याओं पर एक बड़ी टिप्पणी की है. कोर्ट ने कहा है कि वैवाहिक कलह और आपसी मतभेद के बाद अगर पति या पत्नी में किसी ने आत्महत्या की तो कोर्ट उसे उकसावा नहीं मानेगा. दरअसल, हाई कोर्ट की ये टिप्पणी औरैया जिले से जुड़े आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले की आई है. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि वैवाहिक कलह और घरेलू जीवन में मतभेद काफी आम है. यदि इस कारण से पति या पत्नी में से कोई भी आत्महत्या कर लेता है तो यह नहीं माना जा सकता कि मृतक ने उनके उकसाने के कारण आत्महत्या की.
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वैवाहिक झगड़े के दौरान उसे मर जाना चाहिए कहना और उसके बाद मृतक द्वारा आत्महत्या करना आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराध नहीं है. जस्टिस समीर जैन की सिंगल बेंच ने रचना देवी, फिरोज और कमला देवी की क्रिमिनल रिवीजन याचिका को स्वीकार करते हुए ये टिप्पणी की और कोर्ट ने सेशंस जज के आदेश को रद्द कर दिया.
मामले के अनुसार याचिकाकर्ताओं ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में क्रिमिनल रिवीजन याचिका दाखिल करते हुए औरैया के सत्र न्यायाधीश द्वारा 19 अक्टूबर 2023 को पारित आदेश को रद्द करने की मांग की थी. सत्र न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 227 के तहत याचिकाकर्ताओं के उन्मोचन आवेदन (Discharge Application) को खारिज कर दिया गया था. सभी के खिलाफ औरैया के थाना दिबियापुर में 14 नवंबर 2022 को आईपीसी की धारा 306 यानी आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज हुआ था. याचिकाकर्ताओं ने हाईकोर्ट में नवंबर 2023 में औरैया कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए कोर्ट से ये प्रार्थना कि कि हाईकोर्ट इस मामले में सत्र न्यायालय में पुनरीक्षणकर्ताओं के विरुद्ध शुरू की गई संपूर्ण आपराधिक कार्यवाही पर रोक लगाने की कृपा करे.
इस मामले में सत्र न्यायालय ने महिला और उसके माता-पिता द्वारा अपने पति को आत्महत्या के लिए कथित रूप से उकसाने के आरोप में धारा 306 के तहत मुकदमे का सामना कर रही महिला द्वारा दायर बरी करने की अर्जी को खारिज किया था. हाई कोर्ट ने मामले में दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि वैवाहिक झगड़े के दौरान "उसे मर जाना चाहिए" (he should die) कहना और उसके बाद मृतक द्वारा आत्महत्या करना आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराध नहीं है क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि उकसावे के कारण मृतक ने आत्महत्या की थी. आरोप लगाया गया था कि मृतक (पति), जिसका विवाह लगभग सात साल पहले याचिकाकर्ता संख्या 1 (पत्नी) से हुआ था उसने अपनी पत्नी और उसके माता-पिता के हाथों लगातार उत्पीड़न और अपमान के कारण आत्महत्या कर ली थी.
ये भी आरोप था कि याची पत्नी ने मृतक के खिलाफ पहले आईपीसी की धारा 498-ए, 323, 504, 506 और दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3/4 के तहत आपराधिक मामला दर्ज कराया था और समझौते के बावजूद उसने इसे वापस नहीं लिया था. FIR में कहा गया कि 8 नवंबर 2022 को पुनरीक्षणकर्ता संख्या 2 और 3 (मृतक के ससुराल वाले) उसके ससुराल आए और झगड़े के दौरान कथित तौर पर मृतक से कहा कि "उसे मर जाना चाहिए". 13 नवंबर, 2022 को पति ने आत्महत्या कर ली थी. जांच के बाद पत्नी और उसके माता-पिता के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया और सत्र न्यायालय ने उस पर संज्ञान लिया. ट्रायल कोर्ट ने 19 अक्टूबर 2023 को उनकी बरी करने की याचिका खारिज कर दी जिसके बाद उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट की शरण ली थी.
पुनरीक्षणकर्ताओं के वकील ने हाईकोर्ट में तर्क दिया कि उकसाने के आरोप झूठे हैं और पति-पत्नी के बीच झगड़े और विवाद आम बात है. ये भी कहा गया कि कि जानबूझकर उकसाने का कोई सबूत नहीं है और यहाँ तक कि 8 नवंबर 2022 को दिया गया कथित बयान भी उकसाने का मामला नहीं बन सकता. वहीं राज्य और शिकायतकर्ता के वकील ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि ससुराल वालों द्वारा की गई टिप्पणी यातना, अपमान और उकसावे को दर्शाने के लिए पर्याप्त बयान और सबूत के तौर पर मौजूद है जो प्रथम दृष्टया आईपीसी की धारा 306 के तहत अपराध बनता है.
कोर्ट ने आईपीसी की धारा 306 के तहत दंडनीय अपराध के लिए आत्महत्या के लिए उकसाने की मंशा जरूरी है. कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि भले ही गवाहों ने यह कहा हो कि ससुराल वालों ने झगड़े के दौरान मृतक से कहा था कि उसे मर जाना चाहिए लेकिन क्षणिक आवेश में कहे गए ऐसे शब्द उकसावे की आवश्यकता को पूरा नहीं करते. साक्ष्यों से यह नहीं पता चलता कि मृतक के पास आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि तमाम दलीलों से यह पता चलता है कि पुनरीक्षणकर्ताओं के विरुद्ध प्रथम दृष्टया आईपीसी की धारा 306 के तहत कोई अपराध नहीं बनता है. और ट्रायल कोर्ट ने ने रिकॉर्ड पर उपलब्ध साक्ष्यों का समुचित विश्लेषण किए बिना पुनरीक्षणकर्ताओं द्वारा दायर उन्मोचन आवेदन को खारिज कर दिया. कोर्ट ने आदेश दिया कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते हुए औरैया कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और सभी की क्रिमिनल रिवीजन याचिका को स्वीकार कर लिया।
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