तलवारबाजी में भवानी देवी वैश्विक स्तर पर देश का परचम लहरा रही हैं. दिनों दिन इस खेल की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है, लेकिन संसाधन नहीं है. हालांकि, कई बार प्रतिभा संसाधनों की मोहताज नहीं. मंडला के गांव से भोपाल आए बच्चों ने स्कूली प्रतियोगिता में सफलता के झंडे गाड़ दिए. अब आप कहेंगे उसमें खास क्या है? तो खास ये है कि जिन बच्चों ने फेंसिंग यानी तलवारबाजी में मेडल जीते हैं, उन्होंने प्रैक्टिस तलवार से नहीं बल्कि लकड़ी की डंडी और बांस से की थी. इन्हीं का इस्तेमाल कर उन्होंने तलवारबाजी सीखी. वहीं, प्रतियोगिता में आने के लिए कई छात्राएं पहली बार ट्रेन में बैठी थीं.
तस्वीर में दिख रहे बच्चे आदिवासी बहुल मंडला जिले के शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, उदयपुर के बच्चे हैं. साल भर लाठी-डंडे से फेंसिंग की प्रैक्टिस करते हैं. कभी 2 घंटे तो शनिवार-रविवार और ज्यादा. इंटर स्कूल टूर्नामेंट में भोपाल आने के लिए कई बच्चे पहली दफे ट्रेन में बैठे हैं. 70 बच्चों की टीम 30 से ज्यादा मेडल जीत चुकी है.
मंडला से ब्रजेश परते का कहना है कि हमारे पास सुविधा नहीं है. हम बांस की छड़ी से प्रैक्टिस करते हैं. 2-2 घंटे प्रैक्टिस करते हैं. यहां तलवार से खेलने में मज़ा आया. हमारी सरकार से मांग है हमको तलवार, कपड़े दिए जाएं. 9वीं में पढ़ने वाली इशा मरावी ने कहा, " हमलोग बांस के डंडे से रोज छत पर जाकर प्रैक्टिस करते हैं." जब हमने पूछा कि डंडे से डर नहीं लगा तो इशा ने कहा कि डरते नहीं थे, अच्छे से खेलते थे. पहली बार ट्रेन में बैठने के सवाल पर इशा का कहना था ट्रेन में बैठकर बहुत मज़ा आया.
बच्चों की सफलता के लिए तारीफ उनके कोच की भी होनी चाहिए. वो वैसे फुटबॉल के कोच हैं, लेकिन बच्चों की लगन देखकर उन्होंने खुद मेहनत की, दूसरे जिलों से, यू ट्यूब से, अपने छात्रों से तलवारबाजी की ट्रेनिंग ली. फिर बगैर किट के बच्चों को मेडल जीतने के काबिल बना डाला.
कोच संदीप वर्मा ने कहा, " मैं फुटबॉल का कोच हूं. स्कूल में ग्राउंड नहीं है इसलिए फेंसिंग शुरू किया. इस खेल का सामान महंगा है, इसलिए हमने बांस के डंडों से प्रैक्टिस किया. बाद में 4-5 तलवार खरीद कर उससे प्रैक्टिस करवाया. स्कूल की छत पर ही बच्चों को खेलाते हैं.
हालांकि, सुविधाओं की कमी केवल मंडला तक ही सीमित नहीं है. कई जिलों के स्कूलों में ऑल-इन-वन कोचों को ये भी नहीं पता है कि राष्ट्रीय तलवारबाजी चैंपियनशिप कब आयोजित की गई थी और फेंसिंग में भारत में कौन से बड़े नाम हैं.
बहरहाल ये बच्चे 2016 से ही फेंसिंग में हिस्सा ले रहे हैं. लाठी-डंडों से प्रैक्टिस करके मिशाल कायम कर रहे हैं. मां-बाप किसान, मजदूर हैं लेकिन इनकी मेहनत के आगे जेब हार जाती है. साल दर साल इंटर स्कूल, नेशनल तक ये अपने तलवार की चमक बिखेरते हैं, लेकिन सुविधाएं अब तक इनके स्कूल का पता शायद ढूंढ नहीं पाई हैं. एक सवाल तो बनता ही है कि कई आदिवासी बहुल जिलों में फेंसिंग के ढांचे को मजबूत करने के नाम पर खर्च की गई रकम आखिर गई कहां.
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