स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स बनाने के ऐलान के सात साल बाद भी मध्यप्रदेश में इसका गठन नहीं हुआ. नतीजा पिछले सात साल में मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा बाघों को मार दिया गया. इस बात की जानकारी नेशनल टाइगर कंजरवेशन अथॉरिटी ने हाल ही में जारी अपनी टाइगर मोर्टिलिटी रिपोर्ट के जरिए दी है.
सन 2006 तक मध्यप्रदेश की पहचान 300 बाघों के साथ टाइगर स्टेट के तौर पर भी थी. लेकिन 2010 में यह राज्य कर्नाटक और 2014 में उत्तराखंड से भी पिछड़ गया. एनटीसीए की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में भोपाल, होशंगाबाद, पन्ना, मंडला, सिवनी, शहडोल, बालाघाट, बैतूल और छिंदवाड़ा के जंगल शिकारियों की पनाहगाह बन गए हैं.
मध्यप्रदेश में सन 2012 से अब तक 141 बाघों की मौत हुई है. इनमें से सिर्फ 78 मौतें सामान्य हैं. छह बाघों की मौत अपने क्षेत्र पर अधिकार को लेकर बाघों के बीच हुई लड़ाई में हुई है. वन मंत्री उमंग सिंघार का कहना है कि पोचिंग की संख्या कम है, कानफ्लिक्ट ज्यादा है. एक टाइगर के लिए 60-80 किलोमीटर का एरिया. उसके कारण ज्यादा मौतें हुई हैं. यह हम मानते हैं.
सन 2012 से 2018 के बीच देशभर में 657 बाघों की मौत हुई जिनमें से 222 की मौत की वजह सिर्फ शिकार है. जानकारों के मुताबिक इसकी दो और प्रमुख वजहें हैं. आबादी वाले इलाके में जाना और आबादी बढ़ने से बाघों के वर्चस्व को लेकर उनकी आपसी लड़ाई.
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वन मंत्री उमंग सिंघार कहते हैं कि 'मध्यप्रदेश के अंदर नेशनल पार्क अलग-अलग टुकड़ों में बंटे हैं. उनको हम एक कॉरिडोर से जोड़ रहे हैं ताकि कानफ्लिक्ट न हो, जगह मिले रहने की. ये तो जंगल के राजा हैं, अपने हिसाब से रहते हैं, आने वाले वक्त में आप देखेंगे.'
एक और कारण यह है कि दूसरे राज्यों में टाइगर कॉरिडोर और जंगल बड़े क्षेत्रों में फैले हैं, लेकिन मध्यप्रदेश में जंगल बड़े क्षेत्रों में नहीं फैले हैं. इसलिए शिकारी आसानी से घात लगा लेते हैं.
स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स बनाने के समझौते के तहत दो साल में हथियार बंद फोर्स बनाकर उनको तैनात करना था, लेकिन सात साल बीत गए हुआ कुछ नहीं. अब सरकारी फाइलों ने थोड़ी रफ्तार पकड़ी है, देखते हैं बाघ बचाने के लिए यह फोर्स फाइलों से निकलकर जंगलों तक कब पहुंचेगी.
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