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This Article is From Oct 08, 2016

प्रेमचंद की इस नायिका ने मारा था दहेज लोभी पति के चेहरे पर तमाचा...!

प्रेमचंद की इस नायिका ने मारा था दहेज लोभी पति के चेहरे पर तमाचा...!
उपन्‍यासकार प्रेमचन्द ने कई महान कृतिया दी हैं. जिनमें से एक है 'निर्मला'. निर्मला का निर्माण काल 1923 ई. और प्रकाशन का समय 1927 ई. है. प्रेमचन्द्र के उन उपन्यासों में निर्मला बहुत आगे माना जाता है जिन्‍होंने साहित्य के मानक स्थापित किए. इस उपन्‍यास में प्रेमचंद ने समाज में औरत और उसकी दशा का चित्रण पेश किया है.

आज प्रेमचंद की पुण्‍यतिथि पर हम पेश कर रहे हैं उनके उपन्‍यास निर्मला का एक अंश. यह अंश उपन्‍यास के उस मोड़ का है जब निर्मला अपनी सखी सुधा को बताती है कि कैसे पैसे और दहेज न दे पाने के चलते उसका एक रिश्‍ता टूट गया था. सुधा समझ जाती है कि वह लड़का कोई और नहीं उसका पति ही है, जिसने धन के लोभ में निर्मला से विवाह करने से इनकार कर दिया था. यह वाकई आंखें खोल देने वाला चित्रण प्रेमचंद ने किया है. निर्मला के जाने के बाद सुधा अपने पति से तीखे शब्‍दों में इस विषय पर बात करती है. दोनों के संवाद से दहेज और दहेज लोभियों की छोटी सोच को पेश करने के साथ ही दहेज न दे पाने के कारण जीवन भर परेशानियों का सामना करने की मनोदशा का भी चित्रण बहुत ही वास्‍तविक है.

पेश है निर्मला उपन्‍यास का वह अंश जिसमें निर्मला सुधा को बता रही है कि कैसे एक लड़के के परिवार वालों ने रिश्‍ता इसलिए तोड़ दिया था, क्‍योंकि उनके पास देने को धन नहीं था. और उसके बाद सुधा की डॉक्‍टर सिन्‍हा की बातचीत...

                                                                          निर्मला से :


निर्मला : आठवां महीना बीत रहा है. यह चिन्ता तो मुझे और भी मारे डालती है. मैंने तो इसके लिए ईश्चर से कभी प्रार्थना न की थी. यह बला मेरे सिर न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभागिन हूं, बहिन, विवाह के एक महीने पहले पिताजी का देहान्त हो गया. उनके मरते ही मेरे सिर शनीचर सवार हुए. जहां पहले विवाह की बातचीत पक्की हुई थी, उन लोगों ने आंखें फेर लीं. बेचारी अम्मां को हारकर मेरा विवाह यहां करना पड़ा. अब छोटी बहिन का विवाह होने वाला है. देखें, उसकी नाव किस घाट जाती है!

सुधा : जहां पहले विवाह की बातचीत हुई थी, उन लोगों ने इन्कार क्यों कर दिया?

निर्मला : यह तो वे ही जानें. पिताजी न रहे, तो सोने की गठरी कौन देता?

सुधा : यह तो नीचता है. कहां के रहने वाले थे?

निर्मला : लखनऊ के. नाम तो याद नहीं, आबकारी के कोई बड़े अफसर थे.

सुधा ने गम्भीर भाव से पूछा : और उनका लड़का क्या करता था?

निर्मला : कुछ नहीं, कहीं पढ़ता था, पर बड़ा होनहार था.

सुधा ने सिर नीचा करके कहा: उसने अपने पिता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपने बाप को दबा न सकता था?

निर्मला : अब यह मैं क्या जानूं बहिन? सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती? जो पण्डित मेरे यहां से सन्देश लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इन्कार कर रहा है. लड़के की मां अलबत्ता देवी थी. उसने पुत्र और पति दोनों ही को समझाया, पर उसकी कुछ न चली.

सुधा : मैं तो उस लड़के को पाती, तो खूब आड़े हाथों लेती.

निर्मला : मरे भाग्य में जो लिखा था, वह हो चुका. बेचारी कृष्णा पर न जाने क्या बीतेगी?

संध्या समय निर्मला ने जाने के बाद जब डॉक्टर साहब बाहर से आये, तो सुधा ने कहा, क्यों जी, तुम उस आदमी को क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह बात पक्की कर लेता है?

डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की ओर कौतूहल से देखकर कहा : ऐसा नहीं करना चाहिए और क्या?

सुधा : यह क्यों नहीं कहते कि ये घोर नीचता है, पहले सिरे का कमीनापन है!

सिन्हा : हां, यह कहने में भी मुझे इन्कार नहीं.

सुधा : किसका अपराध बड़ा है? वर का या वर के पिता का?

सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है? विस्मय से बोले, जैसी स्थिति हो अगर वह पिता के अधीन हो, तो पिता का ही अपराध समझो.

सुधा : अधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्त्तव्य नहीं है? अगर उसे अपने लिए नये कोट की जरुरत हो, तो वह पिता के विरोध करने पर भी उसे रो-धोकर बनवा लेता है. क्या ऐसे महत्तव के विषय में वह अपनी आवाज पिता के कानों तक नहीं पहुंचा सकता? यह कहो कि वह और उसका पिता दोनों अपराधी हैं, परन्तु वर अधिक. बूढ़ा आदमी सोचता है मुझे तो सारा खर्च संभालना पड़ेगा, कन्या पक्ष से जितना ऐंठ सकूं, उतना ही अच्छा. मगर वर का धर्म है कि यदि वह स्वार्थ के हाथों बिलकुल बिक नहीं गया है, तो अपने आत्मबल का परिचय दे. अगर वह ऐसा नहीं करता, तो मैं कहूंगी कि वह लोभी है और कायर भी. दुर्भाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरा पति है और मेरी समझ में नहीं आता कि किन शब्दों में उसका तिरस्कार करुं!

सिन्हा ने हिचकिचाते हुए कहा : वह...वह...वह...दूसरी बात थी. लेन-देन का कारण नहीं था, बिलकुल दूसरी बात थी. कन्या के पिता का देहान्त हो गया था. ऐसी दशा में हम लोग शादी क्यों करते? यह भी सुनने में आया था कि कन्या में कोई ऐब है. वह बिलकुल दूसरी बात थी, मगर तुमसे यह कथा किसने कही.

सुधा: कह दो कि वह कन्या कानी थी, या कुबड़ी थी या नाइन के पेट की थी या भ्रष्टा थी. इतनी कसर क्यों छोड़ दी? भला सुनूं तो, उस कन्या में क्या ऐब था?

सिन्हा : मैंने देखा तो था नहीं, सुनने में आया था कि उसमें कोई ऐब है.

सुधा : सबसे बड़ा ऐब यही था कि उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था और वह कोई लंबी-चौड़ी रकम न दे सकती थी. इतना स्वीकार करने से क्यों झेंपते हो? मैं कुछ तुम्हारे कान तो काट न लूंगी! अगर दो-चार फिकरे कहूं, तो इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा देना. ज्यादा चीं-चपड़ करुं, तो छड़ी से काम ले सकते हो. औरत जात डंडे ही से ठीक रहती है. अगर उस कन्या में कोई ऐब था, तो मैं कहूंगी, लक्ष्मी भी बे ऐब नहीं. तुम्हारी किस्मत खोटी थी, बस! और क्या? तुम्हें तो मेरे पाले पड़ना था.

सिन्हा : तुमसे किसने कहा कि वह ऐसी थी वैसी थी? जैसे तुमने किसी से सुनकर मान लिया.

सुधा : मैंने सुनकर नहीं मान लिया. अपनी आंखों देखा. ज्यादा बखान क्या करुं, मैंने ऐसी सुन्दर स्त्री कभी नहीं देखी थी.

सिन्हा ने व्यग्र होकर पूछा : क्या वह यहीं कहीं है? सच बताओ, उसे कहां देखा! क्या तुम्हारे घर आई थी?

सुधा : हां, मेरे घर में आई थी और एक बार नहीं, कई बार आ चुकी है. मैं भी उसके यहां कई बार जा चुकी हूं, वकील साहब की बीवी वही कन्या है, जिसे आपने ऐबों के कारण त्याग दिया.

सिन्हा : सच!

सुधा : बिलकुल सच. आज अगर उसे मालूम हो जाए कि आप वही महापुरुष हैं, तो शायद फिर इस घर में कदम न रखे. ऐसी सुशीला, घर के कामों में ऐसी निपुण और ऐसी परम सुंदरी स्त्री इस शहर में दो ही चार होंगी. तुम मेरा बखान करते हो. मैं उसके जैसी लौंडी बनने के योग्य भी नहीं हूं. घर में ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ है, मगर जब प्राणी ही मेल का नहीं, तो और सब रहकर क्या करेगा? धन्य है उसके धैर्य को कि उस बुड्ढे खूसट वकील के साथ जीवन के दिन काट रही है. मैंने तो कब का जहर खा लिया होता. मगर मन की व्यथा कहने से ही थोड़े प्रकट होती है. हंसती है, बोलती है, गहने, कपड़े पहनती है, पर रोयां राया करता है.

सिन्हा : वकील साहब की खूब शिकायत करती होगी?

सुधा : शिकायत क्यों करेगी? क्या वह उसके पति नहीं हैं? संसार मे अब उसके लिए जो कुछ हैं, वकील साहब हैं. वह बुड्ढे हों या रोगी, पर हैं तो उसके स्वामी ही. कुलवंती स्त्रियां पति की निन्दा नहीं करतीं, यह कुलटाओं का काम है. वह उनकी दशा देखकर कुढ़ती हैं, पर मुंह से कुछ नहीं कहती.

सिन्हा : इन वकील साहब को क्या सूझी थी, जो इस उम्र में ब्याह करने चले?

सुधा : ऐसे आदमी न हों, तो गरीब कंवारियों की नाव कौन पार लगाये? तुम और तुम्हारे साथी बिना भारी गठरी लिए बात नहीं करते, तो फिर ये बेचारी किसके घर जाएं? तुमने यह बड़ा भारी अन्याय किया है और तुम्हें इसका प्रायश्चित करना पड़ेगा. ईश्वर उसका सुहाग अमर करे, लेकिन वकील साहब को कहीं कुछ हो गया, तो बेचारी का जीवन ही नष्ट हो जाएगा. आज तो वह बहुत रोई थी. तुम लोग सचमुच बड़े निर्दयी हो. मैं तो अपने सोहन का विवाह किसी गरीब लड़की से करूंगी.

डॉक्टर साहब ने यह पिछला वाक्या नहीं सुना. वह घोर चिन्ता मं पड़ गये. उनके मन में यह प्रश्न उठ-उठकर उन्हें विकल करने लगा-कहीं वकील साहब को कुछ हो गया तो? आज उन्हें अपने स्वार्थ का भंयकर स्वरुप दिखायी दिया. वास्तव में यह उन्हीं का अपराध था. अगर उन्होंने पिता से जोर देकर कहा होता कि मैं और कहीं विवाह न करुंगा, तो क्या वह उनकी इच्छा के विरुद्व उनका विवाह कर देते?

सहसा सुधा ने कहा: कहो तो कल निर्मला से तुम्हारी मुलाकात करा दूं? वह भी जरा तुम्हारी सूरत देख ले. वह कुछ बोलेगी तो नहीं, पर कदाचित् एक दृष्टि से वह तुम्हारा इतना तिरस्कार कर देगी, जिसे तुम कभी न भूल सकोगे. बोलों, कल मिला दूं? तुम्हारा बहुत संक्षिप्त परिचय भी करा दूंगी

सिन्हा ने कहा : नहीं सुधा, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं, कहीं ऐसा गजब न करना! नहीं तो सच कहता हूं, घर छोड़कर भाग जाऊंगा.

सुधा: जो कांटा बोया है, उसका फल खाते क्यों इतना डरते हो? जिसकी गर्दन पर कटार चलाई है, जरा उसे तड़पते भी तो देखो. मेरे दादा जी ने पांच हजार दिये न! अभी छोटे भाई के विवाह मं पांच-छ: हजार और मिल जाएंगे. फिर तो तुम्हारे बराबर धनी संसार में काई दूसरा न होगा. ग्यारह हजार बहुत होते हैं. बाप रे बाप! ग्यारह हजार! उठा-उठाकर रखने लगे, तो महीनों लग जाएं अगर लड़के उड़ाने लगें, तो पीढ़ियों तक चले. कहीं से बात हो रही है या नहीं?

इस परिहास से डॉक्टर साहब इतना झेंपे कि सिर तक न उठा सके. उनका सारा वाक चातुर्य गायब हो गया. नन्हा सा मुंह निकल आया, मानो मार पड़ गई हो. इसी वक्त किसी ने डॉक्टर साहब को बाहर से पुकारां बेचारे जान लेकर भागे. स्त्री कितनी परिहास कुशल होती है, इसका आज परिचय मिल गया.

 

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