पुस्तक समीक्षा: रजा की आध्यात्मिक आभा है 'रजा जैसा मैंने देखा'

'रज़ा: जैसा मैंने देखा' पुस्तक में चित्रकार अखिलेश सिर्फ़ सैयद हैदर रज़ा को देखना नहीं हैं बल्कि उनके आलोक में अपने को भी देखना है.

पुस्तक समीक्षा: रजा की आध्यात्मिक आभा है 'रजा जैसा मैंने देखा'

समीक्षा: 'रजा जैसा मैंने देखा'

नई दिल्ली :

'रज़ा: जैसा मैंने देखा' पुस्तक में चित्रकार अखिलेश सिर्फ़ सैयद हैदर रज़ा को देखना नहीं हैं बल्कि उनके आलोक में अपने को भी देखना है. कलावार्ता के रज़ा विशेषांक के संपादकीय में अखिलेश का देखना यह था कि रज़ा का आत्म एक बिंधा आत्म है. ताप और तप से. रज़ा एक विचलित दिल और स्थिर दिमाग़ लिए इस घर और उस बाहर में घूमते रहते हैं. यह स्थिर दिमाग यानी रज़ा की एकाग्रता जो उनके चित्रों में साफ़ दिखती है, उसके पीछे नंदलाल झारिया रहे हैं. उनका ज़िक्र अखिलेश 'दृश्य देखना-रचना' शीर्षक से इस किताब में करते हैं कि इस बिखरे बदमाश लड़के को एकाग्र होना सिखलाया था.

उन्होंने स्कूल की दीवार पर कोयले से बिंदु बनाकर उसे देखते रहने की सज़ा रज़ा को सुनाई थी और इस तरह की सजा रोज़ पाने से रज़ा का मन स्थिर होना सीख गया था. यह घटना उनके जीवन के आठवें वर्ष में उनके पुश्तैनी गाँव ककैया की है. सोचा तो यही गया था कि बिंदु पर एकाग्रता के जरिए बालक के चंचल तथा आवारा मन को शांति मिल सकेगी लेकिन इस अभ्यास से रज़ा साहब को छोटी सी उम्र में भी बहुत कुछ मिल गया.

बाद में रज़ा ने भी माना कि बिंदु एक तरह से जीवन की संपूर्ण संभावनाओं से संपन्न बीज का प्रतीक है. उन्हें इसी दृश्य रूप में रंगत, रेखा, रंग, टैक्स्चर और चित्र—  आकाश के सभी अनिवार्य तत्त्व मौजूद मिले. अखिलेश का रज़ा नाम के साथ पहला परिचय 1978 में हुआ था जब वे इंदौर से बिना टिकट ट्रेन पकड़ भोपाल आए, वहीं रज़ा की चित्र-प्रदर्शनी लगी थी. तीन दोस्त आए थे और तीनों के मन में चित्रकार के रूप में हुसेन की छवि थी, रज़ा साहब को देखकर उन लोगों को यह कल्पना करना भी मुश्किल हो रहा था कि बिना दाढ़ी के भी कोई चित्रकार हो सकता है. फिर जो  सिलसिला शुरू हुआ तो दोनों पर रंग-भूत सवार हो रहा.

यहीं पर अखिलेश एक पंक्ति में कहते भी हैं कि पूरी प्रदर्शनी में रंग वाचालता (रज़ा साहब की) साफ झलक रही थी और इन रंगों ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया. एकांत और गोर्बियो की सुंदरता शीर्षक लेख में अखिलेश पेरिस प्रवास पर हैं. स्वाभाविक रूप से उनके आतिथेय का वहन रज़ा साहेब का ही है. वहीं प्रवास में अखिलेश देख पाते हैं कि रज़ा की खूबसूरती यह है कि वे रंगों के प्रति अतिरिक्त चौकन्ने हैं. वे सफ़ेद रंग को रंग की तरह बरतते हैं. यह समझ बहुत कम चित्रकारों में दिखाई देती है. 

रज़ा एक साक्षात्कार में इस सफ़ेद रंग पर अपना मत इस तरह व्यक्त करते हैं– मैं चाहता हूँ कि मैं सफ़ेद रंग में कुछ चित्रित करूँ, जिसमें हीरे जैसी चमक, चंद्रमा की पवित्रता हो, जो कि प्रकृति में एक रसिक के जीवन के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करे, और इस सीमा तक चले जाएँ कि उसकी आख़िरी सबसे बड़ी अभिलाषा अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक हो, जो मेरी दृष्टि मे सबसे बड़ी मानवीय महत्वाकांक्षा हो सकती है. 

अखिलेश का अपना देखना है कि रज़ा तल्लीन थे चित्र बनाने में. उनका ध्यान गहरा है, उनकी क्रियाएं लयबद्ध हैं. वे मानों कंडक्टर हों, जिनके इशारे पर बाक़ी सब रच रहे हैं. रज़ा को काम करते देखना भी अनुभव है. यहीं पर अखिलेश रज़ा के मित्र चित्रकार हुसेन और उनके चित्रकारी के स्वभावगत अंतर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि हुसेन का लापरवाह रहते हुए एकाग्र होना किसी को भी प्रभावित कर सकता है. रज़ा अपने ब्रश चुनने को लेकर भी सजग हैं, हुसेन के लिए कोई भी ब्रश काम आ सकता है. रज़ा को वही ब्रश चाहिए. रज़ा की एकाग्रता में गंभीरता है और हुसेन कभी कहीं भी एकाग्र हो सकते हैं. सच है कि रज़ा के लिए चित्रकार होना उनकी आत्म-छवि है. 

रज़ा को पूरे मनोयोग से देखने की प्रक्रिया में एक आंतरिक लय खुद अखिलेश भी हासिल कर ले जाते हैं. इस कारण अनेक आप्त वाक्य निःसृत होते चले जाते है–  रज़ा का आधिपत्य सभी रंगों पर समान है. रज़ा के रंग उदास नहीं होते, न करते हैं. वे प्रफुल्लित हैं, उनसे निकली आभा दर्शक को चकित करती है, अपने आगोश में लेती है. रज़ा के रंग उत्सव के रंग हैं. सच ही है कि उनके चित्रों में सफ़ेद की सात्विकता का आभास है.

मैंने खुद भी रज़ा साहब को तल्लीनता से कैनवास पर रंग लगाते देखा है. रज़ा पेरिस में रहे हों, रज़ा भारत में रहे हों उनके एकांत की एकमात्र जगह थी स्टूडियो जहाँ वे सुरक्षित महसूस करते थे–रंगों के बीच, कैनवास की सतह पर.

इस पुस्तक के अंतिम तीन अध्याय रज़ा की आंतरिकता को समझने की कोशिश करते हैं. पहली पत्नी फ़ातिमा के साथ के कुछ वर्ष और जानीन मोंजिला के साथ के चालीस लंबे सुखद और प्रेमिल वर्षों का साथ, जानीन की मृत्यु से छूट जाने के बाद रज़ा सब भूल  रंगों के बीच उतर रहते हैं. रज़ा का पेरिस जानीन तक था. उनकी रुचि स्टुडियो से बाहर की दुनिया में कभी न थी.

किताब: रज़ा : जैसा मैंने देखा
लेखक: अखिलेश
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
कीमत: 495 रुपये

Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com

(समीक्षक: मनोज मोहन)