पीएन हक्सर ने इंदिरा गांधी को बेटे संजय गांधी से अलग होने की सलाह दी थी.
नई दिल्ली:
यह साल था 1971. चुनाव बीत चुके थे और संजय गांधी पहली बार सार्वजनिक जीवन में दिलचस्पी लेते दिखाई दे रहे थे. पार्टी कार्यालय से लेकर सियासी मंचों पर उनका उठना-बैठना बढ़ रहा था, लेकिन इन सबसे इतर एक चीज थी जिसमें संजय की दिलचस्पी कहीं ज्यादा थी. और वो चीज थी कार. संजय गांधी कार के दीवाने थे और भारत लौटने से पहले इंग्लैंड में नामी कार निर्माता कंपनी 'रॉल्य रॉयस' में कुछ दिन ट्रेनिंग भी ले चुके थे. यहां लौटने के बाद वह अपनी ख़ुद की फैक्ट्री खोलना चाहते थे. संजय गांधी अपनी फैक्ट्री के लिए ज़मीन तलाश रहे थे और इधर उनकी मां इंदिरा गांधी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. इंदिरा चाह रही थीं कि संजय सियासत की पिच पर कदम रखें और उन्होंने दिल्ली नगर निगम के चुनाव की जिम्मेदारी संजय गांधी के कंधों पर डाल दी.
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लेकिन संजय कहां सुनने वाले थे. उनका पूरा ध्यान अपनी फैक्ट्री पर था और उनकी ज़िद के आगे किसी की एक न चली. सरकार के पास छोटी कार बनाने के लाइसेंस के लिए कुल 18 आवेदन आये, लेकिन जिस इकलौती कंपनी को लाइसेंस मिला जाहिर है वह प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी की थी. हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री बंसी लाल ने संजय की कार परियोजना के लिए दिल्ली के नजदीक मानेसर में कौड़ियों के भाव 300 एकड़ जमीन भी आवंटित कर दी. संजय गांधी के अड़ियल और जिद्दी स्वभाव का असल विरोध इसके बाद शुरू हुआ. विपक्षी दलों के अलावा पार्टी के अंदर मुख़ालफत के सुर उठने लगे. विपक्ष लाइसेंस आवंटन और औने-पौने दाम पर संजय को जमीन देने को लेकर हमलावर था, लेकिन इंदिरा गांधी को सबसे ज्यादा आश्चर्य तब हुआ जब उनके सबसे नज़दीकी सलाहकार पीएन हक्सर ने इस पर सवाल खड़े कर दिये.
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विख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखते हैं, 'एक रिपोर्ट के मुताबिक पीएन हक्सर ने इंदिरा गांधी को सलाह दी कि वे संजय की मारुति परियोजना को ख़ारिज कर दें और खुद को अपने बेटे के कारनामे से अलग कर दें'. हालांकि इंदिरा गांधी ने हक्सर की बातों पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन कहा जाता है कि हक्सर की इसी सलाह की वजह से उनकी इंदिरा गांधी से दूरी बढ़ी. दूसरी तरफ कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति से निपटने के लिए इंदिरा गांधी को एक मजबूत हाथ की जरूरत थी और संजय ने इस भूमिका को बखूबी निभाना शुरू कर दिया. इस घटना के बाद संजय गांधी अपनी मां के साथ ज्यादा दिखाई देने लगे और पीएन हक्सर का प्रभुत्व सचिवालय में कम होता गया. बकौल गुहा, 1972 आते-आते कांग्रेस में भाई-भतीजावाद का बोलबाला शुरू हो गया. पीएन हक्सर ने एक साल पहले यानि 1971 में ही इंदिरा गांधी को इस ओर सचेत किया था.
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लेकिन संजय कहां सुनने वाले थे. उनका पूरा ध्यान अपनी फैक्ट्री पर था और उनकी ज़िद के आगे किसी की एक न चली. सरकार के पास छोटी कार बनाने के लाइसेंस के लिए कुल 18 आवेदन आये, लेकिन जिस इकलौती कंपनी को लाइसेंस मिला जाहिर है वह प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी की थी. हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री बंसी लाल ने संजय की कार परियोजना के लिए दिल्ली के नजदीक मानेसर में कौड़ियों के भाव 300 एकड़ जमीन भी आवंटित कर दी. संजय गांधी के अड़ियल और जिद्दी स्वभाव का असल विरोध इसके बाद शुरू हुआ. विपक्षी दलों के अलावा पार्टी के अंदर मुख़ालफत के सुर उठने लगे. विपक्ष लाइसेंस आवंटन और औने-पौने दाम पर संजय को जमीन देने को लेकर हमलावर था, लेकिन इंदिरा गांधी को सबसे ज्यादा आश्चर्य तब हुआ जब उनके सबसे नज़दीकी सलाहकार पीएन हक्सर ने इस पर सवाल खड़े कर दिये.
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