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रूल ऑल लॉ: क्‍या है डिजिटल रेप और कितना है सजा का प्रावधान, जानिए कानूनी पहलू से जुड़ी हर बात

हम सबने अब तक रेप के बारे में बहुत सुना है, लेकिन डिजिटल रेप क्‍या होता है? आइए इसके बारे में विस्‍तार से जानते हैं. 

नई दिल्‍ली:

हरियाणा के गुरुग्राम के एक प्रतिष्ठित अस्पताल में एक 46 साल की एयरहोस्‍टेस को एडमिट किया गया था. ट्रेनिंग के दौरन स्विमिंग पूल में डूबने की वजह से उनकी तबीयत बहुत खराब हो गई थी. उनको आईसीयू में रखा गया. करीब एक हफ्ते बाद जब वो डिस्चार्ज होने के बाद घर में आई तो उन्‍होंने अपने पति को बताया कि आईसीयू में उनके साथ डिजिटल रेप हुआ है. वकील से सलाह ली गई और फिर पति ने पुलिस को कॉल किया. यह एक ऐसा केस है, जो आपको हिलाकर रख देगा और आप सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि क्या इंसान इस स्‍तर तक गिर सकता है? NDTV के शो 'रूल ऑफ लॉ' में जानी मानी वकील सना रईस खान डिजिटल रेप के बारे में बता रही हैं. 

गुरुग्राम पुलिस की एफआईआर के मुताबिक, एडमिट होने के अगले ही दिन रात 9 बजे दो नर्सें उनकी चादर और कपड़े बदल रही थीं, तभी एक टेक्नीशियन रूम में आया. उसने नर्स से एयरहोस्टेस के कमरबंद का साइज पूछा. नर्स कुछ कहती है, उससे पहले ही टेक्नीशियन ने कहा - मैं खुद देख लेता हूं. उसने चादर के नीचे हाथ डाला और एयरहोस्टेस के साथ डिजिटल रेप किया. जी हां, आपने बिल्कुल सही सुना - डिजिटल रेप. आप सोच रहे होंगे रेप तो सुना है, लेकिन यह डिजिटल रेप क्या होता है? आइए इसके बारे में विस्‍तार से जानते हैं. 

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डिजिटल रेप को इस तरह से समझिए

  • "डिजिटल" का मतलब यहां टेक्नोलॉजी से नहीं, डिजिटल यानी उंगली या किसी चीज से है. 
  • अगर किसी के प्राइवेट पार्ट्स में ज़बरदस्ती उंगली या कोई ऑब्जेक्ट डाला जाए तो डिजिटल रेप कहते हैं. 
  • किसी पीड़िता को जबरदस्ती यौन गतिविधि में शामिल करना भी डिजिटल रेप के अंतर्गत आता है. 
  • बिना अनुमति किसी की निजी तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा करना भी डिजिटल यौन उत्पीड़न है. 

यह हमला किसी भी जगह पर हो सकता है, अस्पताल, घर, सार्वजनिक स्थान, फिर पुलिस हिरासत तक. फिजिकल ट्रॉमा के साथ-साथ भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक ट्रॉमा भी होता है और ये ट्रॉमा और ज्‍यादा गहरा हो जाता है जब पीड़ित बेहोशी में हो या आईसीयू में हो, जैसे इस मामले में हुआ. 

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2013 से पहले रेप की परिभाषा ये थी कि "रेप तब तक रेप नहीं है जब तक इंटरकोर्स ना हो."

2013 से पहले आईपीसी में डिजिटल रेप का कोई जिक्र नहीं था. उसे सिर्फ “छेड़छाड़” माना जाता था, लेकिन 2012 के निर्भया केस के बाद, 2013 में डिजिटल रेप को कानूनी मान्यता मिली. नाबालिग की परिभाषा भी धारा 376 सी और धारा 376 डी के लिए 16 साल से कम उम्र में कर दी गई. 

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डिजिटल रेप में कितनी है सजा?

अब बात करते हैं डिजिटल रेप की सजा की. ये शब्द जेंडर न्‍यूट्रल है. मतलब पीड़िता या आरोपी किसी भी लिंग का हो सकता है. पीड़ितों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है - माइनर यानी नाबालिग, और मेजर यानी बालिग. 

  • अगर विक्टिम माइनर है तो पॉक्‍सो एक्ट के तहत मामला चलता है और कम से कम 5 साल की सजा हो सकती है, जो उम्र कैद की अवधि और मौत तक भी बढ़ सकती है. 
  • अगर विक्टिम बालिग है तो आईपीसी की धारा 376 के तहत केस होता है और अब बीएनएस की धारा 63 के तहत रेप केस होता है और 10 साल से लेकर उम्रकैद तक हो सकती है. 

70% मामलों में दोषी, पीड़ित को जानने वाला

डिजिटल रेप के ज्‍यादा मामले माइनर के होते हैं - छोटी बच्चियों के साथ.  चौंकाने वाली बात यह है कि 70% मामलों में दोषी पीड़ित का ही कोई जानने वाला होता है.

अक्सर ये मामले रिपोर्ट नहीं होते हैं, क्योंकि परिवार को बदनामी का डर होता है. माता-पिता यह सोच कर चुप रह जाते हैं कि "क्या फायदा?" लेकिन सच ये है कि डिजिटल रेप भी रेप ही होता है. 

पश्चिम बंगाल के अकबर अली को 3 साल की बच्ची के साथ डिजिटल रेप के लिए आजीवन कारावास और 50,000 रुपये का जुर्माना लगाया गया. 

नोएडा में एक स्कूल बस कंडक्टर को 4 साल की बच्ची के साथ डिजिटल रेप के लिए 20 साल की सजा मिली. यह तब सामने आया जब बच्ची ने जांघों में दर्द की शिकायत की और डॉक्टर ने यौन शोषण का शक जताया. 

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मां-बाप की बढ़ जाती है जिम्‍मेदारी, क्‍या करें?

  • छोटे बच्चे अक्सर समझ भी नहीं पाते कि उनके साथ गलत क्या हुआ. इसलिए माता-पिता की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है. 
  • हर वक्त अपने बच्चों के मूवमेंट पर नजर रखें. 
  • अगर कुछ भी गलत लगे तो तुरंत पुलिस को रिपोर्ट करें. समाज के डर से पीछे ना हटें, समाज क्या कहेगा, इस मामूली दर से अपनी या अपने बच्चों की जिंदगी बर्बाद ना करें. 
  • अगर स्थानीय पुलिस मदद न करे तो वरिष्ठ अधिकारियों को रिपोर्ट करें. 
  • याद रखें, गुनहगारों को सजा दिलाना आपका हक है. अक्सर लोग सोच लेते हैं - "बलात्कार नहीं हुआ तो छोड़ो." लेकिन यही "छोड़ो" वाला रवैया अपराधों को बढ़ावा देता है. 

गुरुग्राम की एयरहोस्टेस आईसीयू में थी, बेहोश थी, उस वक्त भी उसने समझा कि टेक्नीशियन की नीयत गलत थी. अगर चाहती तो वह अस्पताल में रिपोर्ट कर सकती थी, लेकिन उसने डिस्चार्ज होने का इंतजार किया. फिर वकील से बात की और आखिरकार मामले को रिपोर्ट किया. ये होती है हिम्मत. इससे सभी को मैसेज मिलता है कि हमारे देश में बेहतर भविष्य के लिए सभी को मेंटली स्‍ट्रांग और कानूनी रूप से जागरूक और सतर्क रहना जरूरी है. 

इसके साथ ही हम आपको बताएंगे अपने एक और महत्‍वपूर्ण कानूनी अधिकार के बारे में.  आपको बताएंगे कि डोमेस्टिक वायलेंस या घरेलू हिंसा क्या होती है, इसे लेकर क्या कानून है और आप कैसे शिकायत दर्ज करा सकते हैं. 

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घरेलू हिंसा के बारे में जानिए

सबसे पहली बात करते हैं - घरेलू हिंसा है क्या? आसान भाषा में बोलें तो - घर के अंदर, महिला के साथ कोई भी शारीरिक, भावनात्मक या आर्थिक शोषण - हम घरेलू हिंसा कहते हैं. घरेलू हिंसा को घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 3 में कानूनी रूप से परिभाषित किया गया है. 

  • जब किसी पीड़ित के स्वास्थ्य, सुरक्षा, जीवन, अंग या कल्याण को - चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक - नुकसान पहुंचाया जाए, धमकी दी जाए या जानबूझकर नुकसान करने का इरादा हो तो घरेलू हिंसा का उपयोग करना माना जाता है. 
  • इसमें आता है: शारीरिक शोषण, यौन शोषण, मौखिक दुर्व्यवहार, भावनात्मक शोषण और वित्तीय शोषण. 
  • अगर किसी महिला को या उसके किसी रिश्तेदार को दहेज या संपत्ति के लिए मानसिक या शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाए तो वह भी घरेलू हिंसा के तहत आती है. 

इस तरह से समझिए जमीनी हकीकत

अब आंकड़ों के जरिए समझते हैं कि जमीनी हकीकत क्या है. 

  • पीडब्ल्यूडीवी एक्ट के तहत 2020 में सिर्फ 446, 2021 में 505, और 2022 में 468 शिकायतें दर्ज हुईं. 
  • हालांकि आप आसपास देखेंगे तो घरेलू हिंसा के हजारों मामले मिल जाएंगे. 
  • मतलब ज्यादातर मामलों की रिपोर्ट ही नहीं होती है. 
  • 18 से 49 साल की 32% शादी शुदा औरतें कभी ना कभी घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं.
  • 29% महिलाओं को यौन या शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है.
  • 29% महिलाओं को चोटें आती हैं, लेकिन रिपोर्ट करने से कतराती हैं.

घरेलू हिंसा के लिए कितनी मिलती है सजा 

अब बात करते हैं घरेलू हिंसा में मिलने वाली सजा की. 

  • घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत क्रूरता के लिए 3 साल तक जेल हो सकती है. 
  • अगर आरोपी मजिस्ट्रेट के आदेश का उल्लंघन करता है तो 1 साल तक जेल या 20,000 रुपये का जुर्माना दोनों हो सकते हैं.
  • कोर्ट केस की गंभीरता, सबूत और आरोपी का इतिहास देख कर फैसला देती है. 

घरेलू हिंसा का एक पहलू और भी है, जिसकी आमतौर पर बात नहीं होती है,  जब घरेलू हिंसा का शिकार पुरुष होता है. 

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अतुल सुभाष के केस ने खड़े किए कई सवाल 

कुछ दिनों पहले, बेंगलुरु के एक एआई इंजीनियर अतुल सुभाष ने आत्महत्या कर ली. अपनी मौत से पहले उसने एक वीडियो बनाया, जिसमें उसने अपनी पत्नी और ससुराल वालों पर गंभीर आरोप लगाए. अतुल ने बताया कि शादी के बाद उनसे लगते पैसे मांगे जाते थे, जब उन्हें मना किया तो उनकी पत्नी उनका बेटा लेकर चली गई और मिलने भी नहीं दिया. 

फिर अतुल और उनके परिवार के खिलाफ कई मामले दायर किए गए, जिनमें हत्या और अप्राकृतिक यौन संबंध शामिल हैं.  पत्नी ने 10 लाख रुपये दहेज का इल्जाम लगाया और कहा कि उसके बाप की मौत अतुल सुभाष की वजह से हुई और फिर सेटलमेंट के लिए 3 करोड़ रुपये की डिमांड रख दी गई. जब अतुल ने ये डिमांड कोर्ट को बताई तो जज ने भी कथित तौर पर पत्नी का पक्ष लिया. 

इसी तरह अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार से परेशान होकर आगरा के एक और इंजीनियर ने भी खुद को नुकसान पहुंचाया. मध्य प्रदेश से एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक पत्नी अपने पति को मार रही थी. 

तो सवाल ये उठता है कि क्या घरेलू हिंसा सिर्फ महिलाओं के साथ होती है? क्या मर्द सहता नहीं?

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अधिनियम में पुरुषों के लिए कोई जगह नहीं

सच्चाई ये है कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 सिर्फ महिलाओं को "पीड़ित व्यक्ति" मानता है. 

ये अधिनियम जेंडर स्‍पेसिफिक है, इसमें पुरुषों के संरक्षण की बात ही नहीं की गई है. 

अधिनियम की धारा 2(ए) में "पीड़ित व्यक्ति" का मतलब दिया गया है - कोई भी महिला जो घरेलू संबंधों में हिंसा का सामना कर रही हो. यानी अगर एक मर्द, अपने घर में दुर्व्यवहार का सामना करे  तो क्या एक्ट के तहत कानूनी सुरक्षा का दावा ही नहीं किया जा सकता और यह सबसे बड़ा लूपहोल है. 

कानून का काम होता है हर पीड़ित को बचाना, चाहे वो किसी भी जेंडर का हो. हालांकि घरेलू हिंसा अधिनियम में पुरुषों के लिए कोई जगह नहीं है. 

जैसा जैसा समाज विकसित हो रहा है, वैसे वैसे दुर्व्यवहार के पैटर्न भी बदल रहे हैं. 

आज जरूरी है कि एक जेंडर न्‍यूट्रल घरेलू हिंसा कानून की, जिसमें हर पीड़िता के लिए इंसाफ हो, सिर्फ एक जेंडर के लिए नहीं. 

क्या ये वक्त नहीं आ गया है कि हम घरेलू हिंसा की परिभाषा को फिर से परिभाषित करें?

इस शो में हम दर्शकों के सवाल भी लेते हैं. आइए जानते हैं दर्शकों के ऐसे ही सवालों के बारे में. 

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पति की शिकायत कहां पर करें?

सवाल 1: एक महिला का सवाल है कि अगर उन्हें अपने पति की शिकायत और गाली-गलौच की शिकायत करनी हो तो वह कहां और कैसे करें?

जवाब 1: आप सीधे अपने स्थानीय पुलिस स्टेशन में जा कर एफआईआर दर्ज करा सकती हैं या महिला हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करके मदद ले सकती हैं. आप प्रोटेक्‍शन ऑफिसर या मजिस्ट्रेट के पास जाकर घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत शिकायत दर्ज करा सकती हैं. आपको प्रोटेक्‍शन ऑर्डर, रेजिडेंस ऑर्डर, मोनेटरी कंपंसेशन और ज़रुरत पड़े तो शेल्‍टर भी मिल सकता है. 

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बीवी के घरवालों को गाली देना भी घरेलू हिंसा?

सवाल 2: एक और व्‍यक्ति का सवाल है कि क्या अगर कोई आदमी अपनी बीवी के घरवालों को गाली देता है तो क्या वह भी घरेलू हिंसा के तहत आता है?

जवाब 2: हां, आता है. घरेलू हिंसा अधिनियम के अनुसार, अगर पति या उसके घरवाले पत्नी के माता-पिता या रिश्तेदारों को मानसिक रूप से परेशान करते हैं, जैसे कि गाली देना, धमकी देना, या भावनात्मक शोषण करना तो वह भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है. पीड़ित इसके लिए भी कानूनी शिकायत दर्ज करा सकती है. 

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यदि पत्‍नी धमकी देती है तो पति क्‍या करे? 

सवाल 3: एक पुरुष का सवाल है कि अगर उनकी पत्नी बार-बार धमकी दे कि 'मैं तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के खिलाफ दहेज का केस फाइल कर दूंगी', तो वह क्या कर सकते हैं?

जवाब 3: अगर किसी भी आदमी को दहेज का झूठा केस मिल रहा है तो वो पहले सबूत इकट्ठा करे, जैसे वॉयस रिकॉर्डिंग, चैट, मैसेज. फिर वो अपनी तरफ से पुलिस स्टेशन में जनरल डायरी (जीडी) या शिकायत आवेदन फाइल कर सकते हैं.

अगर धमकी गंभीर हो तो आपराधिक धमकी या लोक सेवक को झूठी सूचना देने पर भी केस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है. आप कानूनी सलाह ले कर अग्रिम जमानत भी ले सकते हैं, ताकि किसी को भी झूठी गिरफ्तारी से बचाया जा सके. अगर एफआईआर अभी तक दायर नहीं हुई है तो आप कोर्ट से 72 घंटे का नोटिस ऑर्डर भी ले लें, क्योंकि आपको एफआईआर के दर्ज होते ही 72 घंटे का नोटिस मिल जाता है और आपको 72 घंटे का पर्याप्त समय मिल जाता है कोर्ट में अग्रिम जमानत दाखिल करके राहत पाने के लिए. 

कानूनी मदद से सामने आ जाता है सच

अब बात एक और मामले की.  एक औरत के खिलाफ उसकी सौतेली बेटी ने पॉक्‍सो यानी प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेंस का केस दर्ज किया. जब उसने संपर्क किया तो सुप्रीम कोर्ट से उनके लिए अग्रिम जमानत की राहत ली और हाई कोर्ट में रिट याचिका रद्द करने (एफआईआर रद्द करने की याचिका) के माध्यम से उनके ऊपर की गई एफआईआर और आगे की कार्यवाही पर रोक लग गई है. 

आरोप बहुत चौंकाने वाले और गंभीर लगाए गए, लेकिन कानूनी मदद ली जाए तो कोर्ट के सामने सच लाकर रखा जा सकता है. ऐसे मामले में उनके वकील ने तर्क दिया कि यह एफआईआर पति की एक सोची-समझी चाल थी, जिससे उन्‍हें उनके वैवाहिक घर से निकाला जा सके, जिसमें वो रजिस्टर्ड गिफ्ट डीड के जरिए सह मालिक थीं. वैवाहिक संपत्ति में उनका कानूनी अधिकार था, लेकिन उनके पति ने उनका पैसा और बचत सब छीन लिया. साथ ही उन पर शारीरिक और भावनात्मक अत्याचार किया, मारपीट की, जिसके मेडिकल रिकॉर्ड भी हमने कोर्ट में दिए. 

मुवक्किल ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सुरक्षा मांगी, जिसकी अदालत ने उनको सुरक्षा दी. उनके पति ने गिफ्ट डीड कैंसिल करने का सिविल सूट डाल दिया, लेकिन कोर्ट ने यथास्थिति का आदेश दिया - मतलब पत्नी को घर में रहने से रोका नहीं जा सकता था. 

इसी के बाद दुर्भावनापूर्ण रूप से क्लाइंट के खिलाफ एफआईआर फाइल की गई, जिसमें झूठे, मनगढ़ंत आरोप लगाए गए, सिर्फ इसलिए कि पत्नी को जबरन घर से निकाला जा सके. 

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हमने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि:

  • ये एफआईआर उनके पति ने बदले की भावना से फाइल करवाई है. 
  • एफआईआर में 2018 में एक कथित यौन उत्पीड़न की घटना का जिक्र था, जिसकी कोई तारीख-समय की जानकारी नहीं थी और घर में उस वक्त 8-10 लोग मौजूद थे. ऐसी स्थिति में बिना किसी गवाह के 3 साल बाद एफआईआर फाइल संदिग्ध थी. 
  • शिकायतकर्ता ने कभी किसी परिवार के सदस्य - ना पापा, ना दादा-दादी - किसी को कुछ बताया नहीं. 
  • एफआईआर स्पष्ट रूप से विलंबित, प्रेरित और मनगढ़ंत शिकायत थी, जिसका कारण सिर्फ पीड़ित को घर से बाहर निकालना था. 
  • सुप्रीम कोर्ट ने सभी बिंदुओं पर विचार करते हुए याचिकाकर्ता को अग्रिम जमानत दी और हाई कोर्ट ने एफआईआर पर रोक लगा दी. 

केस ने एक महत्वपूर्ण संदेश दिया है:

कानून एक ढाल है, लेकिन जब उसका दुरुपयोग होता है, तो वह तलवार बन जाता है. 

कानून का मकसद इंसाफ है, इंतकाम नहीं. जब कानून का गलत मतलब होता है, तो असली पीड़ितों का सच दब जाता है. इसलिए जरूरी है कि कानून का हर हिसा ना सिर्फ संतुलित हो, बल्कि दुरुपयोग के खिलाफ भी सुरक्षित हो. 

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