अपनी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों को अपमानित कर हाशिये पर लाने में नीतीश कुमार को क्या मज़ा आता है?

बिहार विधानसभा चुनाव में आरसीपी के समर्थित अधिकांश उम्मीदवार पराजित हुए और बची-खुची कसर मंत्री बनने के बाद उन्होंने पहले राम मंदिर निर्माण में सार्वजनिक रूप से चंदा देकर और बाद में अपने समांतर कार्यप्रणाली से आरसीपी ने नीतीश को अपने खिलाफ कारवाई करने के लिए मजबूत आधार दे दिया. 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बुधवार को सार्वजनिक कार्यक्रमों में काफी खुश दिखे. उनकी इस प्रसन्नता का कारण राज्य को विकास के पैमाने पर बेहतरी के लिए अवार्ड मिलना नहीं, बल्कि उनके द्वारा राजनीति जगत में आगे बढ़ाए गए और अब फिलहाल पैदल कर दिए गए रामचंद्र प्रसाद सिंह का केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने की खबर है. आरसीपी सिंह का इस्तीफा कोई अप्रत्याशित नहीं था, बल्कि उन्हें नीतीश कुमार की नाराजगी के कारण राज्यसभा का तीसरा टर्म नहीं मिला था, उसके बाद ही 6 जुलाई का समय, जो उनका जन्मदिन भी है, इस्तीफे के लिए मुक़र्रर हो गया था. 

आरसीपी सिंह की एक नहीं कई कारणों के कारण राजनीतिक दुर्गति हुई, जिसमें कोरोना के समय पटना से नदारद रहना और खासकर अपने गांव में जाकर प्रवास करना, नीतीश को पसंद नहीं आया. इसके बाद 2019 के चुनाव के बाद जब उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल में अनुपात के हिसाब से जगह की मांग की तो ये भी खारिज हो गई, तब उन्होंने फैसला लिया था कि वो मंत्रिमंडल में सांकेतिक भागीदारी भी नहीं करेंगे हालांकि विधानसभा चुनाव में अपनी दुर्गति के बाद इससे समझौता करते हुए मंत्रिमंडल में आरसीपी सिंह को पद देने की सहमति केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने दी थी, लेकिन नीतीश भाजपा के साथ वो चाहे बिहार हो या यूपी सीटों के समझौते पर आरसीपी के भाजपा के प्रति झुकाव से काफी निराश और गुस्से में थे. 

बिहार विधानसभा चुनाव में आरसीपी के समर्थित अधिकांश उम्मीदवार पराजित हुए और बची-खुची कसर मंत्री बनने के बाद उन्होंने पहले राम मंदिर निर्माण में सार्वजनिक रूप से चंदा देकर और बाद में समानांतर कार्यप्रणाली से आरसीपी ने नीतीश को अपने खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मजबूत आधार दे दिया. 

आरसीपी सिंह की विदाई कर नीतीश एक बार फिर इस बात को लेकर खुश हैं कि उनसे राजनीतिक बैर लेने का क्या परिणाम होता है, देख लीजिए. उनकी खुशी इस बात को लेकर और अधिक है कि भाजपा के वो नेता ख़ासकर केंद्रीय मंत्री भूपेन्द्र यादव  जिनकी आरसीपी सिंह से घनिष्ठता जगज़ाहिर है, उनके लिए कुछ नहीं कर पाए और हुआ वो सब जिसकी स्क्रिप्ट नीतीश ने खुद तैयार की थी.

नीतीश ने भूपेन्द्र से नजदीकी होने की सजा ना केवल राज्यसभा के एक और टर्म से वंचित कर दिया बल्कि उसके कारण केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफे की पटकथा भी लिख डाली. साथ ही लगे हाथ जिस बंगले में पिछले 12 वर्षों से पटना में रामचंद्र प्रसाद सिंह रहते थे उसको भी मुख्य सचिव को आवंटित कर उन्होंने घर खाली करने के लिए मजबूर किया. अब नीतीश को इस बात का इंतज़ार होगा कि राज्यसभा सदस्य के रूप में दिल्ली में जो घर उन्हें मिला है, वो आरसीपी कितनी जल्दी खाली करते हैं. 

पिछले ढाई दशक ख़ासकर पंद्रह वर्षों के दौरान जब से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने हैं, उनका राजनीतिक स्वभाव रहा है कि वो जिससे नाराज़ होते हैं, भले ही उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसे पद पर वह व्यक्ति हो, उससे बदला लेने में  वह किसी भी हद तक चले जाते हैं. उनके कोपभाजन का पहला शिकार कुछ समय के लिए राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी जया जेटली रहीं, जिन्हें नीतीश ने कभी राज्यसभा भेजने के पूर्व केंद्रीय मंत्री और पार्टी के संस्थापक जॉर्ज फ़र्नांडिस के सारे अनुरोधों को ताक पर रख दिया था. फिर 2004 लोकसभा चुनाव से जॉर्ज साहब से संबंध सामान्य नहीं रहे और नीतीश ने नालंदा के बजाय उन्हें फिर मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़ने पर मजबूर किया.

बात यहीं तक नहीं रही और 2005 के विधानसभा चुनाव के दौरान जॉर्ज और नीतीश के तनाव साफ दिख रहे थे और मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद 2006 में जॉर्ज फर्नांडिस की जगह शरद यादव को पार्टी की कमान सौंपी और इस बीच खराब स्वास्थ्य के आधार पर 2009 के लोकसभा चुनाव के टिकट से भी जॉर्ज फर्नांडिस को वंचित किया और उन्हें निर्दलीय चुनाव मैदान में पराजय का मुंह देखना पड़ा, हालांकि नीतीश ने कुछ महीनो के अंदर फिर उन्हें राज्यसभा में भेजा.

इसके बाद नीतीश का अपने दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष को अपमानित करने का सिलसिला फिर शरद यादव पर लागू हुआ, जिनकी सदस्यता वे रद्द करवा कर ही माने. हालांकि आरसीपी सिंह की तरह वो उनके घर खाली करवाने की अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाए, लेकिन वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह जब कुछ वर्षों के लिए बागी हुए तब उनकी सदस्यता रद्द करवाने के लिए भी उन्होंने याचिका तो सब जगह लगाई, लेकिन उसमें वो ललन सिंह के उस समय कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ मधुर संबंध के कारण सफल नहीं हो पाए.

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