- PM मोदी ने 'वंदे मातरम' से राष्ट्रवाद और बंगाल की सांस्कृतिक पहचान को जोड़ते हुए बड़ा राजनीतिक संदेश दिया.
- बंकिम, गांधी और आज की राजनीति— BJP इस गीत को बंगाल चुनाव से पहले एक सांस्कृतिक हथियार की तरह उपयोग कर रही है.
- विरोधियों का आरोप— BJP इतिहास को चुनकर पेश कर रही है और बंगाल के अन्य महान विचारकों की उपेक्षा कर रही है.
8 दिसंबर को संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 'वंदे मातरम्' का हवाला दिया, तो वह सिर्फ एक नारा नहीं था बल्कि संस्कृति, राजनीति, राष्ट्रवाद, देशभक्ति और मां व मातृभूमि—इन सबको जोड़ने वाला एक गहरा संदेश था, जो भारत की पहचान से सीधे जुड़ा है.
भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक कहानी में बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जैसा बड़ा नाम बहुत कम मिलता है. अपनी मशहूर किताब आनंदमठ में इस महान लेखक-कवि ने सिर्फ 'वंदे मातरम्' जैसा अमर गीत ही नहीं लिखा, बल्कि मातृभूमि, राष्ट्रवाद, देशभक्ति, अध्यात्म और पहचान—इन सबको जोड़कर एक गहरी कहानी बनाई.
वंदे मातरम् संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ है— 'मां, मैं आपको प्रणाम करता हूं.'
यहां 'मां' का मतलब मातृभूमि भारत से है, और यह रूपक आधुनिक साहित्य में सबसे ताकतवर माना जाता है. शब्दों के जादूगर बंकिम ने इस कविता और गीत को ऐसी लय दी कि यह बहुत मीठा और दिल में बस जाने वाला बन गया. ब्रिटिश शासन के खिलाफ आजादी की लड़ाई में ‘वंदे मातरम्' की कहानी और उसके जोश से भरे असर पर जाने से पहले, आइए थोड़ा यह भी समझ लें कि भारतीय संसद में ‘वंदे मातरम्' को लेकर कैसी बहस हुई है.
वंदे मातरम्: चुनाव के समय गूंजता राष्ट्रीय संदेश
8 दिसंबर 2025 को भारतीय संसद में एक अलग ही जोश दिखा. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदन में खड़े होकर 'वंदे मातरम्' का जिक्र किया, माहौल मानो ऊर्जा से भरा हुआ था. मोदी के भाषण में इस गीत के प्रति महात्मा गांधी के सम्मान का हवाला था. उन्होंने गांधी जी के 1905 में दक्षिण अफ्रीका से निकलने वाले अखबार इंडियन ओपिनियन के उस लेख का जिक्र किया जिसमें गांधी ने कहा था कि 'वंदे मातरम् भारत का राष्ट्रगान होना चाहिए,' और इसे एक नैतिक संदेश के रूप में पेश किया.
इस तरह मोदी ने अपनी एनडीए सरकार को गांधी और आजादी की लड़ाई की मूल सोच से जोड़ने की कोशिश की, ताकि सरकार को राष्ट्रीय विरासत को आगे बढ़ाने वाला दिखाया जा सके. कांग्रेस पर सीधा हमला करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि कांग्रेस ने गीत को तोड़कर इसकी भावना कमजोर की है.
कांग्रेस हमेशा इस आरोप को गलत बताती रही है. कांग्रेस का कहना है कि 1937 में सिर्फ पहली दो कड़ियों का इस्तेमाल करने का फैसला कांग्रेस की उस वर्किंग कमिटी की सहमति से लिया गया था, जिसमें गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, राजेंद्र प्रसाद, सरोजिनी नायडू और मौलाना आजाद शामिल थे. इसके बाद से वंदे मातरम् कांग्रेस की राजनीतिक परंपरा का हिस्सा बन गया. 1896 में रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया. 1905 में बनारस अधिवेशन में कांग्रेस ने इसे अपने राष्ट्रीय कार्यक्रमों के लिए औपचारिक रूप से अपनाया. 1907 में भीकाजी कामा ने जर्मनी के स्टुटगार्ट में पहला तिरंगा फहराया, जिस पर 'वंदे मातरम्' लिखा था.
मोदी ने 'वंदे मातरम्' से क्या संदेश दिया?
जब मोदी अपने खास अंदाज में संसद में खड़े हुए, तो 'वंदे मातरम्' का महत्व सिर्फ इतिहास तक सीमित नहीं रहा. यह पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनावों की राजनीति में नई प्रासंगिकता के साथ उभरकर सामने आया— जो मार्च-अप्रैल 2026 में होने वाले हैं (हालांकि चुनाव आयोग ने तारीखें अभी आधिकारिक रूप से घोषित नहीं की हैं). ऐसे मशहूर और भावनात्मक नारे को चुनावी तैयारी के साथ जोड़ने से देशभर में टीवी पर इस बहस को देख रहे लोगों ने भी समझ लिया कि इस गीत का चुनावी रणनीति से क्या संबंध है. मोदी ने जब इस गीत का जिक्र किया, तो वह सिर्फ एक पंक्ति नहीं थी. उसमें संस्कृति और राजनीति, राष्ट्रवाद और देशभक्ति, मां और मातृभूमि— सबको जोड़ने का संदेश था, जो भारत की पहचान से गहराई से जुड़ा है.
आनंदमठ की कहानी और इसका इतिहास
आनंदमठ 1770 में आए बंगाल के अकाल के समय ब्रिटिश और मुस्लिम ताकतों के खिलाफ लड़ते सन्यासियों की कहानी है. बंकिमचंद्र की यह महान रचना जितनी नाटकीय दृश्यों से भरी है, उतनी ही त्याग और न्याय की नाज़ुक भावना को भी दिखाती है. लेकिन इसमें मातृभूमि की खोई हुई शान वापस पाने और बाहरी आक्रमणों के खिलाफ खड़े होकर लड़ने की जो कहानी है, वह साफ तौर पर राष्ट्रवाद और विदेशी शासन के खिलाफ एक राजनीतिक संदेश देती है. 19वीं सदी के अंत में यह कहानी लोगों के दिलों को तुरंत छू गई. दिलचस्प यह है कि 1875 में 'वंदे मातरम्' को एक मैगजीन में ‘पेज भरने' के लिए लिखा गया था, जो बाद में करोड़ों लोगों का गीत बन गया. यह बात आनंदमठ के उस पत्रिका में छपने से छह साल पहले (1881) और किताब के रूप में छपने से सात साल पहले (1882) की है. सबसे ज्यादा जोश भरने वाला हिस्सा था ‘वंदे मातरम्'— जो कवि के दिल से निकला हुआ एक युद्धनाद था. बाद के वर्षों में यह गीत, आनंदमठ से अलग खुद की एक पहचान बनाता गया. इसने राष्ट्रवाद को एक ताकतवर रूपक के रूप में मां जैसी पहचान देकर नया अर्थ दिया.
‘वंदे मातरम्' वास्तव में तब लोकप्रिय हुआ जब 1905 में बंगाल के विभाजन के खिलाफ आंदोलनों की शुरुआत हुई. तभी इसे पहली बार राजनीतिक नारे की तरह इस्तेमाल किया गया. जूलियस लिपनर लिखते हैं कि उस समय 'वंदे मातरम्' केवल हिंदू नहीं बल्कि सभी समुदायों के लोग गा रहे थे. 14 अप्रैल 1906 को बरीसाल (अब बांग्लादेश) में 'वंदे मातरम्' बोल रहे लोगों पर पुलिस के हमले ने हिंदू-मुस्लिम एकता वाले ब्रिटिश विरोध आंदोलन को और मजबूत बना दिया.
अरबिंदो घोष ने वंदे मातरम् को कैसे बदला?
विभाजन-विरोधी आंदोलन में हिंदू पहचान का रंग तब बढ़ा, जब 6 अगस्त 1906 को वंदे मातरम् प्रकाशित हुआ. दर्शनशास्त्री अरबिंदो घोष ने बंकिम के इस राष्ट्रवादी गीत को खास तौर पर हिंदू विचारधारा में शामिल कर लिया. 1921 तक कुछ जगहों पर इसे हिंदू-मुस्लिम दंगों में हिंदू इस्तेमाल करने लगे.
'वंदे मातरम्' का पश्चिम बंगाल चुनावों पर क्या असर होगा?
बंगाल जब अपनी पहचान पर बहस कर रहा है, तब यह प्रतीक और ताकतवर हो जाता है. चुनाव करीब होने पर मोदी का 'वंदे मातरम्' का जिक्र बीजेपी के लिए लोगों को एकजुट करने वाला नारा बन सकता है. मोदी ने आध्यात्म और राष्ट्रवाद को जोड़कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की है. इस बहस में 'वंदे मातरम्' एक कविता से बढ़कर देश के प्रति समर्पण का प्रतीक बन गया. बीजेपी ने वंदे मातरम् को सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक बना लिया है. वंदे मातरम्” अपनी भावनात्मक ताकत के साथ भारत के राष्ट्रवाद को समझने में मदद करता है. संसद में इसे दोहराकर मोदी ने राष्ट्रीय एकता का भाव फिर जगाने की कोशिश की.
बीजेपी को इससे बचना होगा...
जब मोदी एक संदेश देने की कोशिश कर रहे थे, तब बीजेपी के ही कुछ बड़बोले नेता इस कहानी को नुकसान पहुंचा रहे थे. नवंबर 2025 में इंदर सिंह परमार ने राजा राम मोहन रॉय को 'अंग्रेज़ों का दलाल' कहा. इस बयान से खासकर बंगाल में भारी विरोध हुआ. बाद में परमार ने माफी मांगी, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था. वंदे मातरम् का राजनीतिक इस्तेमाल अकेले नहीं हो रहा था. राय और टैगोर ने इसकी सार्वभौमिकता और मानवीय मूल्यों पर जोर दिया. इसके उलट, बंकिम का राष्ट्रवाद आजकल बीजेपी की हिंदुत्व सोच से जोड़ा जाता है. इतिहास की यह चुनी हुई व्याख्या कई बड़े सवाल खड़े करती है. विडंबना यह है कि बंकिम खुद एक एकजुट भारत की बात करते थे. बीजेपी को ऐसी अपमानजनक बातें करने से बचना चाहिए.
अतीत और वर्तमान का संगम
संसद की बहस ने 'वंदे मातरम्' के ऐतिहासिक महत्व को आज की राजनीति से जोड़ दिया. 8 दिसंबर 2025 ने याद दिलाया कि सांस्कृतिक प्रतीक आज भी बड़ा असर रखते हैं. हालांकि सारी राजनीति के बीच संसद में गूंजता वंदे मातरम्' यह संदेश देता है कि हमारा दिल आज भी इस कविता की ताल पर धड़कता है.
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