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This Article is From Sep 20, 2023

वोट के बदले नोट का मामला, MLA,MP के खिलाफ कानूनी कार्रवाई से छूट पर फिर से विचार करेगा SC

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह राजनीति की नैतिकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. कोर्ट यह तय करेगा कि अगर सांसद या विधायक सदन में मतदान के लिए रिश्वत लेते हैं तो क्या तब भी उस पर मुकदमा नहीं चलेगा?

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वोट के बदले नोट का मामला, MLA,MP के खिलाफ कानूनी कार्रवाई से छूट पर फिर से विचार करेगा SC
नई दिल्ली:

सदन में वोट के बदले नोट के मामले में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बड़ा फैसला लिया है. अदालत ने कहा है कि सदन में वोट के लिए रिश्वत में शामिल सांसदों/विधायकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई से छूट पर फिर से विचार करेगा. पांच जजों के संविधान पीठ ने 1998 के पी वी नरसिम्हा राव (PV Narasimha Rao) मामले में अपने फैसले पर फिर से विचार करने का फैसला लिया है. मामले को सात जजों के संविधान पीठ को भेजा जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह राजनीति की नैतिकता पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. कोर्ट यह तय करेगा कि अगर सांसद या विधायक सदन में मतदान के लिए रिश्वत लेते हैं तो क्या तब भी उस पर मुकदमा नहीं चलेगा? 1998 का नरसिम्हा राव फैसला सांसदों को मुकदमे से छूट देता है. इस फैसले पर दोबारा विचार किया जाएगा. 

CJI  चंद्रचूड़ ने क्या कहा? 

CJI  चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 5-जजों के बेंच ने कहा कि पीठ झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसदों के रिश्वत मामले में फैसले की नए सिरे से जांच करेगी. इसमें 1993 में राव सरकार के खिलाफ विश्वास प्रस्ताव के दौरान सांसदों ने कथित तौर पर किसी को हराने के लिए रिश्वत ली थी. CJI ने कहा कि विधायिका के सदस्यों को परिणामों के डर के बिना सदन के पटल पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए.जबकि अनुच्छेद 19(1)(ए) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के व्यक्तिगत अधिकार को मान्यता देता है.

105(2) और 194(2) का उद्देश्य प्रथम दृष्टया आपराधिक कानून के उल्लंघन के लिए दंडात्मक कार्यवाही शुरू करने से प्रतिरक्षा प्रदान करना नहीं लगता है.  जो संसद के सदस्य के रूप में अधिकारों और कर्तव्यों के प्रयोग से स्वतंत्र रूप से उत्पन्न हो सकता है.  ऐसे मामले में, छूट केवल तभी उपलब्ध होगी जब दिया गया भाषण या दिया गया वोट देनदारी को जन्म देने वाली कार्यवाही के लिए कार्रवाई के कारण का एक आवश्यक और अभिन्न अंग है.

क्या है पूरा मामला?

ये मामला सीता सोरेन बनाम भारत संघ है.  ये मामला जनप्रतिनिधि की रिश्वतखोरी से संबंधित है. इस मामले के तार  नरसिंहराव केस से जुड़े हैं जहां सांसदों ने वोट के बदले नोट लिए थे.  ये मसला अनुच्छेद 194 के प्रावधान 2 से जुड़ा है जहां जन प्रतिनिधि को उनके सदन में डाले वोट के लिए रिश्वत लेने पर मुकदमे में घसीटा नहीं जा सकता.  उन्हें छूट दी गई है.  इस मामले में याचिकाकर्ता सीता सोरेन झारखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी हैं और राज्यसभा चुनाव में  हुए वोट के लिए नोट लेने की आरोपी रही हैं. उन्हें इसी आधार पर छूट मिली थी. सीता के खिलाफ सीबीआई जांच कराने की गुहार लगाते हुए 2012 में निर्वाचन आयोग में शिकायत दर्ज कराई गई थी.

सीता सोरेन को मिली थी राहत

सीता सोरेन को जन सेवक के तौर पर गलत काम करने के साथ आपराधिक साजिश रच कर जन सेवक की गरिमा घटाने वाला काम करने का आरोपी बनाया गया था. झारखंड हाईकोर्ट ने 2014 में केस को रद्द कर दिया था. तब हाईकोर्ट ने कहा कि सीता ने उस पाले में वोट नहीं किया था जिसके बारे में रिश्वत की बात कही जा रही है.

संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत जनप्रतिनिधियों को मिली थी छूट

1998 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों के संविधान पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत सांसदों को इस तरह की छूट दी गई है.ये फैसला 1993 के ‘झामुमो रिश्वत घोटाले' से जुड़ा था.इसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के कई सांसदों और जनता दल के अजीत सिंह के गुट पर आरोप लगे थे कि उन्हें लोक सभा में तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार को संकट से उबारने में मदद करने के लिए रिश्वत दी गई थी.  3:2 से बहुमत से फैसले में संविधान पीठ ने कहा था कि अनुच्छेद 105 संसद के एक सदस्य को अदालत में कार्यवाही से बचाता है जो संसद में उसके द्वारा कही गई किसी भी बात या दिए गए वोट या संबंधों या सांठगांठ से संबंधित है. 

जेएमएम के नेताओं पर पैसे लेकर वोट देने का लगा था आरोप

दरअसल 1991 के आम चुनाव में कांग्रेस (आई) सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई थी और कई क्षेत्रीय दलों के समर्थन से कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में सरकार बनाई थी.   जुलाई 1993 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी)  ने  मानसून सत्र में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रख् लेकिन यह अविश्वास प्रस्ताव आखिर में 14 मतों के अंतर से गिर गया था.  

1996 में, केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को एक शिकायत मिली और आरोप लगाया गया था कि झामुमो के कुछ सांसदों और जनता दल के अजीत सिंह के गुट को राव की सरकार को वोट देने के लिए रिश्वत दी गई थी.  तब कथित रूप से मामले में शामिल सांसदों ने आपराधिक मुकदमे से छूट की मांग की क्योंकि यह मतदान संसद के अंदर हुआ था. 

संविधान का अनुच्छेद 105 संसद के सदनों, उनके सदस्यों और समितियों की शक्तियों और विशेषाधिकारों के बारे में प्रावधान करता है.   प्रावधान में कहा गया है कि संसद का कोई भी सदस्य संसद,  उसकी किसी समिति में उसके द्वारा कही गई किसी भी बात या दिए गए किसी भी वोट के संबंध में किसी भी अदालत में किसी भी कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा. अनुच्छेद 194 विधायकों को भी इसी तरह की छूट प्रदान करता है. 

1998 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने सांसदों के पक्ष में फैसला सुनाया था.  अपने 3:2 के फैसले में अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जिन सांसदों ने रिश्वत स्वीकार की और अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान किया, वे आपराधिक मुकदमे से मुक्त होंगे क्योंकि कथित रिश्वत ‘संसदीय वोट के संबंध में' थी. अदालत ने फैसला सुनाया कि अजीत सिंह, जो कथित तौर पर साजिश में शामिल थे, लेकिन उन्होंने वोट नहीं डाला है, इसलिए वह समान संरक्षण के हकदार नहीं हैं.

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