पुरानी दिल्ली के गांधी

कभी सफाईकर्मी की हड़ताल की मजबूरी में उठाई गई झाडू अब अहमद सैफी के लिए मिशन बन चुका है. 62 साल की उम्र में न चेहरे पर शिकन और न शरीर में थकान. हालांकि साथ में निगम का एक सफाईकर्मी भी होता है. पर पहले कभी सुबह सुबह एक बार साफ सफाई का जो दौर चलता था वो अहमद सैफी के इस अभियान से जुड़ने के बाद दिन में तीन बार हो चला है.

पुरानी दिल्ली के गांधी मोहम्मद अहमद सैफी. सिस्टम के सुस्त पड़ते ही इलाके की साफ सफाई में ऐसे जुटे कि निगम का हड़ताल तो खत्म हो गया पर पिछले 6 साल से हाथों में झाड़ू थामे हैं. पुरानी दिल्ली के छत्ता लाल मियां गली बहार वाली में सैफी साहब की साफ सफाई की शुरुआत सीटी के साथ सुबह सुबह हो जाती है. मोहम्मद सैफी ने बताया कि पहले 12 से 14 कूड़े के ढेर मिलते थे यहां. कूड़े का ढेर खत्म नहीं होता था. 2016 की हड़ताल 27 जनवरी को हुई. गली कूड़े के अटी पड़ी थी. उस दिन से झाडू उठाया और अब कोई ढेर नहीं.

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सीटी के शोर के साथ घरों की गंदगी कूड़ा ठेली पर आनी शुरू हो जाती है. ढलते उम्र में घर की नहीं इलाके की साफ सफाई को लेकर सैफी साहब का जोश, जुनून और जज्बा देखते बनता है. बातों ही बातों में सैफी कहते हैं "मेहनत इतनी खामोशी से करो कि कामयाबी शोर मचा दे. आओ आज हम सब मिलकर ऐसी करें सफाई जो दूर से दूर तक भी सबको दे दिखाई. मेरे दिल्ली मैं ही सवारूं. मेरी गली मैं ही सवारूं".

कभी सफाईकर्मी की हड़ताल की मजबूरी में उठाई गई झाडू अब अहमद सैफी के लिए मिशन बन चुका है. 62 साल की उम्र में न चेहरे पर शिकन और न शरीर में थकान. हालांकि साथ में निगम का एक सफाईकर्मी भी होता है. पर पहले कभी सुबह सुबह एक बार साफ सफाई का जो दौर चलता था वो अहमद सैफी के इस अभियान से जुड़ने के बाद दिन में तीन बार हो चला है.

अहमद सैफी का परिवार पहले इस काम के लिए राज़ी नहीं था. क्योंकि संकट गुजर बसर को लेकर थी.

फिर, परिवार को इनके ज़िद और जज्बे के आगे झुकना पड़ा. बेटी ट्यूशन पढ़ाती है और पत्नी महिलाओं के कपड़े की तुरपाई जिससे गुजर बसर मुमकिन हो पाता है. इलाके में काम का कद्र है तो अब उनकी पत्नी भी खुश है.

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पुरानी दिल्ली की इन तंग गलियों में हजार से ज्यादा घर हैं. आबादी भी करीब 5000. जहां कभी जगह जगह कूड़े के ढेर थे..गंदगी का डेरा था आज स्वच्छ स्वस्थ भारत को लेकर एक नया सवेरा है. बीमार व्यवस्था से खुद के दम पर इलाके की सूरत और सीरत बदलने की ये कोशिश कामयाबी की तरफ बढ़ता कदम है. जहां इस बात की परवाह नहीं कि उम्र ढल रहा है कुछ बेहतर कर गुजरने की हसरत से ने थकान है बल्कि हाथों में भी मानो नई जान है.

साफ सफाई का पूरा काम सैफी खुद के पैसे से करते हैं. न कोई चंदा और न किसी की कोई मदद. और तो और कूड़ा उठाने को लेकर भी किसी घर से कोई पैसा नहीं. सब कुछ खुद के दम पर.

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डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.