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कांवड़ रूट से रियलिटी चेक : एक ढाबा-दो पार्टनर...शमीम और निखिल, जानिए कांवड़ियों के मन की बात

एक अनुमान के मुताबिक कांवड़ यात्रा में हर साल करीब 4 से 5 करोड़ कांवड़िये शामिल होते हैं. यात्रा के दौरान कांवड़ियों को आम तौर पर जरूरत की चीजें दुकानों से खरीदनी पड़ती हैं.

कांवड़ रूट से रियलिटी चेक : एक ढाबा-दो पार्टनर...शमीम और निखिल, जानिए कांवड़ियों के मन की बात
नई दिल्ली:

पिछले कुछ दिनों से कांवड़ यात्रा और नेम प्लेट से जुड़ा विवाद सुर्खियों में है. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से इस खबर की शुरुआत हुई थी. 17 जुलाई को यहां प्रशासन ने आदेश दिया था कि सभी ढाबों और होटल मालिकों को दुकान के बाहर अपना नाम लिखना होगा और उसके दो दिनों के बाद ही सरकार ने पूरे प्रदेश में इस आदेश को लागू कर दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश जारी कर सरकार के फैसले पर रोक लगा दी. इसी को लेकर एनडीटीवी की टीम ने दिल्ली से करीब 150 किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर में कांवड़ियों और दुकानदारों से बात की और इस पूरे घटनाक्रम को लेकर उनकी राय जानी.

आज से सावन का महीना शुरू हो गया है. इसी महीने में कांवड़ यात्रा शुरू होती है, जिसमें देश के अलग-अलग राज्यों से कांवड़िये शामिल होते हैं. ये हरिद्वार पहुंचते हैं और हरिद्वार से गंगा जल लेकर अपने शहर या गांव के शिवालयों में जलाभिषेक करते हैं. ग्राउंड जीरो पर जाकर हमने जानने की कोशिश की कि इसको लेकर कांवड़ियों के मन में क्या है?

121 लीटर गंगाजल अपने कंधों पर लेकर कांवड़ यात्रा पर निकले दो नौजवानों में से एक ने कहा कि सरकार का फैसला सही है, तो वहीं दूसरे के मुताबिक धर्म आड़े नहीं आना चाहिए. एक युवा ने कहा कि आरिफ और विकास में अंतर दिखना चाहिए, इरफान और नीरज का पता होना चाहिए, लेकिन दिलचस्प ये है कि इन्हीं के साथी कह रहे हैं कि भगवान हमें धर्म का भेदभाव नहीं कराते. धर्म तो धरती पर आने के बाद बना है. हमारी अपनी आस्था है, जो हमें भेदभाव नहीं सिखाती.

वहीं रेस्टोरेंट के मालिकों का कहना है कि पुलिस का आदेश था, तो नाम लिखना पड़ा. वैसे हम बिना लहसुन और प्याज़ के ही खाना परोस रहे हैं. इधर एक कांवड़ यात्री जो उसी रेस्टोरेंट में खाना खा रहे थे, उन्होंने कहा कि उन्हें इस बारे में बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. वो पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं. 

एनडीटीवी को ग्राउंड पर एक ऐसी भी दुकान मिली, जिसका मालिकाना हक दो लोगों के पास है. पहले का नाम शमीम है तो दूसरे का नाम निखिल है. शमीम सैफी ने इस पूरे विवाद के बाद निखिल को अपना नया साथी बना लिया. दिन में सलीम और रात में निखिल चाय की दुकान चलाते हैं. ऐसा इसलिए किया ताकि कारोबार पर असर ना पड़े. शमीम कहते हैं कि उनके व्यापार पर कोई असर नहीं है, बाहर बोर्ड लगा दिया है, शमीम के सहयोगी निखिल का नाम भी लिख दिया गया है.

वहीं दिल्ली से देहरादून जाने वाले हाइवे पर कई दुकानें ऐसी हैं, जो सालों भर व्यस्त रहती हैं और उनकी एक के बाद दूसरी पीढ़ी भी इसी धंधे से जुड़ गई है. प्रशासन ने अपने आदेश में साफ कहा है कि मकसद किसी किस्म का भेदभाव पैदा करना नहीं, बल्कि कांवड़ियों के लिए सुविधा मुहैया कराना है. ऐसे ही एक ढाई दशक पुराने एक संगम भोजनालय का नाम सलीम हो गया था, लेकिन फिर से इसे संगम बनाने की तैयारी है.

संगम से सलीम बने भोजनालय के मालिक सलीम ने कहा कि उन्होंने अब शुद्ध भोजनालय का नाम संगम से सलीम कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अब वो फिर से नाम संगम करना चाहते हैं, लेकिन उनका कहना है कि मेरे ढाबे पर शाकाहारी भोजन ही मिलता है. कांवड़ यात्रा के दौरान में हम लहसुन और प्याज़ का इस्तेमाल नहीं करते हैं.

मुजफ़्फरनगर के ढाबे वाले इलाक़ों में अब एक साथ कई ढाबों के नाम बदल गए हैं. उनके मालिक के नाम के पोस्टर लगा दिए गए हैं. हर दुकान पर उनके मालिक और कर्मचारी के नाम लिखे गए हैं.

एक अनुमान के मुताबिक कांवड़ यात्रा में हर साल करीब 4 से 5 करोड़ कांवड़िये शामिल होते हैं. यात्रा के दौरान कांवड़ियों को आम तौर पर जरूरत की चीजें दुकानों से खरीदनी पड़ती हैं. खाने-पीने का सामान वो रास्ते में पड़ने वाली दुकानों से ही खरीदते हैं. कोई भी दुकानदार साल में एक बार आने वाला मौका छोड़ना नहीं चाहता. जाहिर है, हाल के फैसले से दुकानदारों पर फर्क तो पड़ा है.

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