महाराष्ट्र में राजनीतिक संकट समय बीतने के साथ-साथ और गहराता ही जा रहा है. शिवसेना के बागी विधायक एकनाथ शिंदे ने दावा किया है कि उनके पास शिवसेना के 46 विधायक का समर्थन है. अब ऐसे मे सवाल ये उठता है कि अगर शिंदे के दावे में दम है तो क्या राज्य में उद्धव सरकार की सत्ता बचेगी या नहीं. इन सब के बीच सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने महाराष्ट्र में चल रहे राजनीतिक संकट पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने एनडीटीवी से बातचीत में कहा है कि अभी सबसे अहम मुद्दा ये है कि सरकार के पास बहुमत है या नहीं. औऱ ये तय होगा विधानसभा में. उन्होंने कहा कि अगर नियम के अनुसार चलें तो अगर किसी पार्टी से दो तिहाई विधायक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी बना लें या दूसरी पार्टी को ज्वाइन कर लें और इस बात पर झगड़ा हो कि सरकार के पास बहुमत है या नहीं. तो इसमें तुरंत फ्लोर टेस्ट होना जारूरी होता है. फ्लोर टेस्ट के माध्यम से ही आप ये जान पाएंगे कि सरकार के पास बहुमत है या नहीं. लोकतंत्र में बुहमत होना बेहद जरूरी है और सरकार चलाने के लिए बुनियादी चीज है. इस प्रक्रिया के लिए स्पीकर की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. अगर सरकार के पास आंकड़ा हुआ तो वो फ्लोर टेस्ट में जीतकर अपनी सत्ता बचा लेगी और अगर नहीं हुआ तो जिस पार्टी के पास भी बुहमत होगा वो राज्य में नई सरकार बनाएगी.
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उन्होंने कहा कि दूसरा मुद्दा पार्टी के सिंबल का है. सिंबल का सवा स्पीकर तय नहीं करता है ये फैसला चुनाव आयोग करती है. चुनाव आयोग दोनों पार्टी को सुनकर फैसला करती है. इस फैसले के लिए इन्हें वहां जाना होगा. लेकिन सरकार के पास बहुमत है या नहीं ये जल्द से जल्द तय करना होगा, इसमें देरी नहीं की जा सकती है.
बता दें कि ये कोई पहला मौका नहीं है जब शिवसेना में इस तरह की बगावत देखने को मिल रही है. वर्ष 1991 में शिवसेना को पहला बड़ा झटका तब लगा था जब पार्टी के अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) चेहरा रहे छगन भुजबल ने पार्टी छोड़ने का फैसला किया था. भुजबल को महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में संगठन के आधार का विस्तार करने का श्रेय भी दिया जाता है. भुजबल ने पार्टी नेतृत्व की ओर से ‘‘प्रशंसा नहीं किये जाने'' को पार्टी छोड़ने का कारण बताया था. भुजबल ने शिवसेना को महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में बड़ी संख्या में सीटें जीतने में मदद की थी, लेकिन उसके बावजूद, बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी को विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में नियुक्त किया था.
नागपुर में शीतकालीन सत्र में, भुजबल ने शिवसेना के 18 विधायकों के साथ पार्टी छोड़ दी थी और कांग्रेस को अपना समर्थन देने की घोषणा की थी, जो उस समय राज्य में शासन कर रही थी. हालांकि, 12 बागी विधायक उसी दिन शिवसेना में लौट आए थे. भुजबल और अन्य बागी विधायकों को तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष ने एक अलग समूह के रूप में मान्यता दे दी थी और उन्हें किसी भी कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ा था.एक वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार ने कहा, ‘‘यह एक दुस्साहसिक कदम था क्योंकि शिवसेना कार्यकर्ता (असहमति के प्रति) अपने आक्रामक दृष्टिकोण के लिए जाने जाते थे. उन्होंने मुंबई में छगन भुजबल के आधिकारिक आवास पर हमला भी किया, जिसकी सुरक्षा आमतौर पर राज्य पुलिस बल द्वारा की जाती है.''भुजबल हालांकि, 1995 के विधानसभा चुनाव में मुंबई से तत्कालीन शिवसेना नेता बाला नंदगांवकर से हार गए थे. अनुभवी नेता बाद में राकांपा में शामिल हो गए थे जब शरद पवार ने 1999 में कांग्रेस छोड़ने के बाद अपनी पार्टी बनाई थी. भुजबल (74) वर्तमान में शिवसेना के नेतृत्व वाली एमवीए सरकार में मंत्री और शिंदे के कैबिनेट सहयोगी हैं.वर्ष 2005 में, शिवसेना को एक और चुनौती का सामना करना पड़ा था जब पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे ने पार्टी छोड़ दी थी और कांग्रेस में शामिल हो गए थे.
राणे ने बाद में कांग्रेस छोड़ दी और वर्तमान में भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं और केंद्रीय मंत्री भी हैं.शिवसेना को अगला झटका 2006 में लगा जब उद्धव ठाकरे के चचेरे भाई राज ठाकरे ने पार्टी छोड़ने और अपना खुद का राजनीतिक संगठन - महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बनाने का फैसला किया.राज ठाकरे ने तब कहा था कि उनकी लड़ाई शिवसेना नेतृत्व के साथ नहीं, बल्कि पार्टी नेतृत्व के आसपास के अन्य लोगों के साथ है. वर्ष 2009 में 288 सदस्यीय महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में मनसे ने 13 सीटें जीती थीं. मुंबई में इसकी संख्या शिवसेना से एक अधिक थी.
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शिवसेना वर्तमान में राज्य के वरिष्ठ मंत्री, ठाणे जिले से चार बार विधायक रहे और संगठन में लोकप्रिय एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में कुछ पार्टी विधायकों द्वारा बगावत का सामना कर रही है.राजनीतिक पत्रकार प्रकाश अकोलकर ने कहा, ‘‘शिवसेना नेतृत्व अपने कुछ नेताओं को हल्के में ले रहा है. इस तरह का रवैया हमेशा उल्टा पड़ा है, लेकिन पार्टी अपना रुख बदलने को तैयार नहीं है.''उन्होंने कहा, 'अब समय बदल गया है और ज्यादातर विधायक बहुत उम्मीदों के साथ पार्टी में आते हैं. अगर उन उम्मीदों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया, तो इस तरह का विद्रोह होना तय है.''
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