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This Article is From Mar 19, 2015

सांसदों ने उठाए माइनिंग बिल पर कई सवाल

सांसदों ने उठाए माइनिंग बिल पर कई सवाल
नई दिल्ली:

“कई मुद्दों और विधेयक के तमाम प्रावधानों पर सदस्यों के विचारों और सुझावों की अनदेखी की गई है.... इससे सलेक्ट कमेटी की पूरी कवायद ही बेकार हो गई है और यह कमेटी को बनाने के उद्देश्य के ही विपरीत है।”

ये बात खान और खनिज (संशोधन) विधेयक की सलेक्ट कमेटी की रिपोर्ट के साथ दिए गए विसम्मत पत्र यानी डिसेंट नोट में कही गई है, जिसमें विपक्षी पार्टियों के सांसदों के हस्ताक्षर हैं। हालांकि माना जा रहा है कि केंद्र सरकार ने खान और खनिज (संशोधन) विधेयक को पास कराने के लिए कई पार्टियों से तालमेल कर लिया है और वह इस बिल को पास कराने के लिए संख्या जुटा लेगी। लेकिन अब भी कई सांसद कह रहे हैं कि मौजूदा शक्ल में पास होने पर इस विधेयक को अदालत में चुनौती दी जा सकती है।

सरकार इस बिल में सभी मौजूदा खदानों के ठेके 30 साल से बढ़ाकर 50 साल करने का प्रस्ताव कर रही है। इससे जहां एक ओर खनिजों की नीलामी की लीज बढ़ाने या न बढ़ाने के राज्यों के अधिकार का हनन होता है बल्कि सवाल ये भी उठता है कि क्या गोवा, बेल्लारी या शाह कमीशन की जांच में फंसी कंपनियों की मौजूदा खदानों की लीज का स्वत: नवीनीकरण नहीं होगा।

सरकार कह रही है कि कानून में संशोधन कर वह नीलामी का रास्ता खोल रही है, ताकि कोयले की तर्ज पर लौह अयस्क और बॉक्साइट जैसे खनिजों से अधिक कमाई की जा सके। लेकिन इसी विधेयक में प्रावधान है कि जिन कंपनियों को सर्वे के लिए परमिट और प्रोस्पेक्टिव लाइसेंस दिये जा चुके हैं वह उन्हीं कंपनियों के पास रहेंगी। आज देश में ज्यादातर ज्ञात खनिज भंडारों के सर्वें परमिट और प्रोस्पेक्टिव लाइसेंस दिए जा चुके हैं। ऐसे में सवाल है कि सरकार का नीलामी का दावा क्या वाकई कारगर साबित होगा, क्योंकि सरकार के पास नीलामी करने के लिए फिलहाल बहुत कम खदानें बचेंगी।

सलेक्ट कमेटी की बैठक में उठे सवालों में एक महत्वपूर्ण सवाल है कि नीलामी के वक्त पंचायती राज कानून और वन अधिकार कानून के साथ पीसा जैसे कानूनों के पालन के पर्याप्त प्रावधान इस कानून में रखे नहीं हैं। सवाल ये है कि क्या सरकार इस बारे में विधेयक में संशोधन लाएगी। देश के ज्यादातर खनिज आदिवासी इलाकों में हैं जहां इन कानूनों की अहमियत काफी बढ़ जाती है।

सलेक्ट कमेटी में इस कानून पर एक सवाल ये भी उठाया गया है कि जिन कंपनियों को खनन के ठेके दिए जाएं उन पर मुनाफे का पर्याप्त हिस्सा आदिवासियों के कल्याण और उन इलाकों के विकास पर खर्च करने का होना चाहिए। विधेयक में कहा गया है कि इस बारे में बनने वाली मिनरल फाउंडेशन में कौन लोग होंगे ये तय करने का अधिकार राज्यों के पास है। जानकार कहते हैं कि कानून में ये बाध्यता होनी चाहिए कि प्रभावित इलाकों के लोगों को इस फाउंडेशन में रखा जाए।

कहा जा रहा है कि सरकार विपक्ष से तालमेल बिठाने के लिए इस बिल में एक–दो संशोधन करे। इस बारे में सलेक्ट कमेटी में बहस के दौरान ये मांग भी उठी जनजातीय कल्याण के लिए पैसा सीधे आदिवासियों के खाते में जाना चाहिए। लेकिन अभी एक बड़ा सवाल ये भी है कि क्या विधेयक वास्तव में कंपनियों पर पर्याप्त पैसा खर्च करने की शर्त लगाता है। 2011 में प्रस्तावित बिल में कहा गया था कंपनियों सरकार को दी जाने वाली रॉयल्टी के बराबर पैसा आदिवासी और स्थानीय लोगों के कल्याण के लिए जमा करेंगी। इससे पहले 2010 के कानून में तो मुनाफे का 26 फीसदी खर्च करने की बात कही गई थी, लेकिन लोकसभा से पारित बिल में इस खर्च को रॉयल्टी के एक तिहाई तक सीमित किया गया है। सवाल है कि क्या सरकार इस बारे में भी संशोधन लाएगी या विपक्ष के संशोधन को स्वीकार करेगी।

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