मध्य प्रदेश में कांग्रेस के प्रचार प्रमुख, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने राज्य में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन की जिम्मेदारी ली है. पार्टी के वरिष्ठ नेता रणदीप सुरजेवाला उनके पक्ष में थे, कमलनाथ ने कहा कि वे इस बात पर चिंतन करेंगे कि हम मतदाताओं से क्यों नहीं जुड़ सके.
आंकड़ों से संकेत मिलता है कि चुनाव होने से बहुत पहले ही कांग्रेस संवाद की लड़ाई में भाजपा से हार गई थी. पार्टी ने कुछ विरोध प्रदर्शन किए और रैलियों तथा सार्वजनिक बैठकों की संख्या में भाजपा से बहुत पीछे रह गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित शीर्ष नेताओं के नेतृत्व में भाजपा ने 634 रैलियां कीं, वहीं कांग्रेस ने लगभग आधी, सिर्फ 350 रैलियां कीं.
अकेले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूरे राज्य में 165 रैलियां कीं. वहीं कमलनाथ, जो पार्टी का चेहरा थे, उन्होंने 114 रैलियों में भाग लिया.
जो चीज कांग्रेस के लिए काम नहीं आई, वह थी ओबीसी (अन्य पिछड़ी जातियां) कार्ड - जाति जनगणना की मांग, जिसका पार्टी पहली बार समर्थन कर रही है और न ही नरम हिंदुत्व का एजेंडा, जिसे कांग्रेस 2018 से पहले से आगे बढ़ा रही थी.
भाजपा के हिंदू विरोधी आरोप का जवाब देने के लिए कमलनाथ ने साधुओं से मुलाकात की और देवताओं की मूर्तियां बनवाईं. चुनावों से पहले, "धार्मिक और उत्सव प्रकोष्ठ" के गठन के साथ पार्टी के धार्मिक कार्यक्रमों की मात्रा बढ़ गई. लेकिन इसकी न केवल मुसलमानों में, बल्कि अन्य पिछड़े वर्गों में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई, जिन्होंने इसे जातिगत भेदभाव के रूप में देखा.
तेलंगाना में कांग्रेस के लिए जो बड़ा काम आया, वो था रेवंत रेड्डी को राज्य इकाई प्रमुख के रूप में शामिल करना और नियुक्त करना, वो मध्य प्रदेश में लागू नहीं किया गया. राज्य के दो प्रमुख नेता - कमलनाथ और दिग्विजय सिंह 70 के दशक से एमपी में हैं. पार्टी में नई ऊर्जा का भी अभाव है.
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