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सूरत: मजिस्ट्रेट और इंस्पेक्टर पाए गए कोर्ट की अवमानना के दोषी, 2 सितंबर को SC सुनाएगा सजा

याचिकाकर्ता के खिलाफ धोखाधड़ी के आरोप को लेकर एक एफआईआर दर्ज की गई थी. याचिकाकर्ता ने गुजरात हाईकोर्ट द्वारा जमानत से इनकार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.

सूरत: मजिस्ट्रेट और इंस्पेक्टर पाए गए कोर्ट की अवमानना के दोषी, 2 सितंबर को SC सुनाएगा सजा
नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने गुजरात के एक पुलिस इंस्पेक्टर और अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, सूरत, गुजरात, को अंतरिम अग्रिम जमानत की अनदेखी कर एक आरोपी को गिरफ्तार करने और रिमांड पर लेने के लिए अदालत की अवमानना ​​का दोषी ठहराया है. सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को अंतरिम अग्रिम जमानत का आदेश पारित कर रखा था. अदालत ने जांच अधिकारी आर के रावल और अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, सूरत दीपाबेन संजयकुमार ठाकर) को सजा तय करने की तारीख 2 सितंबर को पेश होने के लिए कहा है.

दरअसल, याचिकाकर्ता के खिलाफ धोखाधड़ी के आरोप को लेकर एक एफआईआर दर्ज की गई थी. याचिकाकर्ता ने गुजरात हाईकोर्ट द्वारा जमानत से इनकार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. पिछले साल दिसंबर में कोर्ट ने उनकी याचिका पर नोटिस जारी करते हुए उसे इस शर्त के साथ अंतरिम अग्रिम जमानत दे दी कि वह जांच में सहयोग करते रहेगा.  लेकिन याचिकाकर्ता की शिकायत थी कि सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम अग्रिम जमानत आदेश के बावजूद, उसे 12 दिसंबर, 2023 को एक नोटिस दिया गया था.

जिसमें उसे पुलिस हिरासत आवेदन के जवाब में मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित रहने का निर्देश दिया गया था. मजिस्ट्रेट ने उसे 16 दिसंबर तक चार दिनों के लिए पुलिस हिरासत में भेज दिया. आरोप लगाया कि पुलिस हिरासत में रहते हुए उसे धमकी दी गई और पीटा गया. 10 जनवरी को जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने गुजरात सरकार के गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव, सूरत के पुलिस आयुक्त और पुलिस उपायुक्त, वेसु पुलिस स्टेशन के पुलिस निरीक्षक को अवमानना ​​​​नोटिस जारी किया था.

अदालत ने सूरत के छठे अतिरिक्त मुख्य मजिस्ट्रेट को भी अवमानना ​​नोटिस जारी किया था. जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश के बावजूद याचिकाकर्ता को पुलिस हिरासत में भेज दिया था. फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपराधिक न्यायशास्त्र के अनुसार पुलिस हिरासत रिमांड देने के अधिकार का प्रयोग करने से पहले अदालतों को मामले के तथ्यों पर न्यायिक विचार करना चाहिए.

ताकि वे इस निष्कर्ष पर पहुंच सकें कि अभियुक्त की पुलिस हिरासत रिमांड वास्तव में आवश्यक है या नहीं. अदालत से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वे जांच एजेंसियों के दूत के रूप में कार्य करें. और रिमांड आवेदनों को रुटीन तरीके से अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.

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