
दशहरे का त्योहार देशभर में बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है. लेकिन हिमाचल के कुल्लू का दशहरा कुछ खास है. यहां न तो रामलीला होती है और न ही रावण का दहन. खास बात यह भी है कि जब पूरे देश में दशहरे का उत्सव खत्म हो जाता है तब यहां पर उत्सव की शुरुआत होती है. आप सोच रहे होंगे कि कुल्लू के दशहरे में आखिर होता क्या है. यहां दशहरे से जुड़ी मान्यता क्या है और यहां क्या-क्या होता है यहां डिटेल में जानें.
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कुल्लू के दशहरे की खास मान्यता
कुल्लू में दशहरे का पर्व मनाने को लेकर एक अलग ही मान्यता है, जो कि 17वीं सदी की एक खास कहानी से जुड़ी है. मान्यता है कि एक राजा जो गंभीर बीमारी और शाप से जूझ रहा था. भगवान की विशेष कृपा से वह ठीक हुआ और यही दशहरे के पर्व की वजह बन गई.
"कहा जाता है कि कुल्लू के राजा जगत सिंह को एक असाध्य रोग हो गया था. अयोध्या के एक पुजारी की सलाह पर वह भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति अयोध्या से कुल्लू लेकर आए. इस प्रतिमा की आराधना से उनकी बीमारी ठीक हो गई. इस चमत्कार के बाद राजा ने भगवान रघुनाथ को ही कुल्लू का इष्ट देवता बना लिया. इसके बाद से ही कुल्लू दशहरा की परंपरा शुरू हुई, जो देवताओं के मिलन और पूजा का एक भव्य उत्सव है.
17वीं शताब्दी के मध्य में कुल्लू के राजा जगत सिंह ने सुना था कि मणिकरण घाटी के गांव टिपरन में रहने वाले दुर्गा दत्त नाम के एक ब्राह्मण के पास बहुत ही सुंदर मोती हैं. राजा ने ब्राह्मण से मोती मांगे लेकिन दुर्गा दत्त ने देने से इनकार कर दिया. इस बात से राजा इस कदर क्रोध में आ गए कि उन्होंने अपने सैनिकों के जरिए दुर्गा दत्त को परेशान करना शुरू कर दिया. इस बात से परेशान होकर दुर्गा दत्त ने अपने परिवार के साथ आत्मदाह कर लिया और राजा को शाप दे दिया.
कहा जाता है कि दुर्गा दत्त के शाप के बाद से ही राजा जगत सिंह एक गंभीर बीमारी से पीड़ित हो गए. उनको खाने में सिर्फ कीड़े और खून नजर आने लगा. राजा जगत सिंह की इस परेशानी को ठीक करने के लिए राजगुरु तारानाथ ने उन्हें सिद्धगुरु कृष्णदास पयहारी से मिलने को कहा. सिद्धगुरु कृष्णदास ने राजा से कहा कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से अश्व मेघ यज्ञ के समय निर्मित भगवान राम और माता सीता की मूर्ति अपने राज्य में लेकर आएं और अपना राज पाठ रघुनाथ को सौंप दें. ऐसा करने से उनको इस दोष से मुक्ति मिल जाएगी.
मान्यता है कि इसके बाद राजा जगत सिंह ने अयोध्या से भगवान रघुनाथ की मूर्ति मंगवाई. उन्होंने 1653 में रघुनाथ की मूर्ति को मणिकरण के मंदिर में रखा और 1660 में इसे पूरे विधि विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित कर दिया. इसके बाद राजा ने मूर्ति के चरणामृत का सेवन किया, जिससे उनकी बीमारी बिल्कुल ठीक हो गई.
भगवान के चमत्कार के बाद राजा ने खुद को भगवान रघुनाथ का वंशज और प्रतिनिधि घोषित कर दिया. मान्यता है कि तब से हर साल दशहरे के अवसर पर कुल्लू के सभी देवी-देवताओं को भगवान रघुनाथ के प्रति आदर दिखाने के लिए आमंत्रित किया जाता है. यह देवताओं के मिलन का प्रतीक बन गया और तब से कुल्लू दशहरा एक भव्य उत्सव के रूप में मनाया जाता है."
कुल्लू दशहरा में आते हैं 300 देवी-देवता
यह उत्सव राजा जगत सिंह के श्राप से मुक्ति और भगवान रघुनाथ के प्रति आभार व्यक्त करने का प्रतीक है. कुल्लू दशहरा में स्थानीय देवी-देवताओं के साथ-साथ विभिन्न देशों के सांस्कृतिक दल भी हिस्सा लेते हैं, जिससे यह एक अंतरराष्ट्रीय उत्सव बन गया है. मान्यता है कि कुल्लू अंतरराष्ट्रीय दशहरा में 300 देवी-देवता शामिल होते हैं.

कुल्लू में कब शुरू होता है दशहरा?
खास बात यह है कि जब पूरे देश में दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है, तब देवभूमि कुल्लू में भगवान रघुनाथ के आगमन के साथ ही दशहरा उत्सव शुरू होता है. इस दौरान यहां भगवान रघुनाथ की भव्य रथयात्रा निकाली जाती है. कुल्लूवासियों ने इस दिव्य देव संस्कृति परंपरा को आज भी जिंदा रखा है.
कुल्लू दशहरे का एक और रंग
दशहरा पर्व को यहां अंतरराष्ट्रीय लोक नृत्य उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है. ऐतिहासिक लाल चंद प्रार्थी कला केंद्र कई दशकों से हिमाचल प्रदेश और देश के अन्य राज्यों के अलावा कई अन्य देशों के सांस्कृतिक दलों की शानदार प्रस्तुतियों का गवाह रहा है. देश-विदेश की सांस्कृतिक प्रस्तुतियों का यह क्रम लगातार जारी है, जो बहुत ही सराहनीय है. इस तरह के आयोजनों से सांस्कृतिक आदान-प्रदान और आपसी भाईचारे को बढ़ावा मिलता है. इनके माध्यम से स्थानीय लोक संस्कृति का भी देश-विदेश में प्रचार-प्रसार होता है. लेकिन इस बार इस हिमाचल में आपदा के चलते उत्सव में सिर्फ स्थानीय कलाकार ही हिस्सा लेंगे.
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