
- झांसी में 150 रुपये की घड़ी चोरी मामले में 49 साल बाद आया फैसला, जब आरोपी ने थक-हारकर जुर्म स्वीकार कर लिया.
- उत्तर प्रदेश के बांदा में 1994 की मारपीट मामले में गवाहों की गैरमौजूदगी से सुनवाई में 30 साल तक केस लंबित रहा.
- दिल्ली में 1990 के दशक का 350 रुपये का मोबाइल चोरी मामला तीन दशक तक लंबित रहा, फिर से सुनवाई शुरू हुई है.
उत्तर प्रदेश के झांसी में 150 रुपये की घड़ी और रसीदबुक चोरी के मामले में 49 साल बाद फैसला आया है. वो भी तब, जब आरोपी ने खुद ही जुर्म स्वीकार कर लिया. कोर्ट में कहा- 'तारीख पर आते-आते थक गया हूं, बूढ़ा और बीमार हो चुका हूं, अब ताकत नहीं बची, रहम किया जाए.' आरोपी जेल में पहले ही काफी दिन बिता चुका था, सुनवाई चलती रही और अपराध में शामिल उसके दो साथी की मौत भी हो गई. ऐसे में उसने थक-हारकर जुर्म कुबूल कर लिया. कोर्ट ने जेल में बिताई अवधि की सजा सुनाई और 2,000 रुपये का जुर्माना लगाया.
इस तरह का ये कोई पहला मामला नहीं, जब मामूली केस में भी कोर्ट से तारीख पर तारीख मिलती रही और फैसला आने में दशकों बीत गए, ऐसे और भी तमाम मामले हैं, जो भारतीय न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति दिखाते हैं. साथ ही ये भी दिखाते हैं कि न्यायालयों पर कितना बोझ है और ये न्याय में देरी की बड़ी वजह भी है. आइए ऐसे ही कुछ और मामलों के बारे में जानते हैं.
1994 में मारपीट, 2024 में फैसला
उत्तर प्रदेश के बांदा का एक मामला 1994 का था, जिसमें कमासिन थाना क्षेत्र के रामरूप शर्मा को बंधक बनाकर मारपीट की गई थी. गवाहों के पेश न होने के चलते 30 साल तक तारीख पर तारीख मिलती रही. 15-16 जज बदल गए. एक आरोपी की मौत भी हो गई. पीड़ित भी बूढ़ा हो गया और आरोपी भी. आखिरकार गवाह पेश हुए, दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए दोनों आरोपियों पर दो-दो हजार रुपये का जुर्माना लगाया.
350 रुपये का मोबाइल चोरी, अब तक केस लंबित
राजधानी दिल्ली का ये मामला 1990 के दशक का है, जो कुछ साल पहले फिर से चर्चा में आया. एक मोबाइल चोरी हुई थी, तब उसकी कीमत 350 रुपये थी, जब मोबाइल कुछ ही लोगों के पास होता था. आरोपी और गवाह कई बार अदालत में उपस्थित नहीं हो पाए. इसके चलते सुनवाई 30 वर्षों तक अटकी रही. तीन साल पहले ये मामला फिर से न्यायालय के संज्ञान में आया और मामले में सुनवाई की प्रक्रिया शुरू हुई.

खेत से मसूर उखाड़ी, मारपीट... 30 साल बाद फैसला
यूपी के छनेहरा लालपुर गांव का मामला है. 12 फरवरी 1992 को गांव की दुजिया सहेवा हार खेत पहुंची, देखा कि पड़ोसी अंतू उसके खेत की मसूर उखाड़ रहा था. मना किया तो उसने दुजिया को पीट दिया. पुलिस ने एससी-एसटी समेत मारपीट की धाराओं में केस दर्ज किया. इस केस में भी तारीख पर तारीख मिलती रही. 30 साल 6 महीने के बाद आखिरकार फैसला आया. तब तक पीड़ित और आरोपी, दोनों बूढ़े हो चुके थे. कोर्ट ने आरोपी अंतू को अनुसूचित जाति महिला के साथ मारपीट करने वाले को दोषी करार दिया. तीन धाराओं में एक-एक हजार रुपये जुर्माना किया. जुर्माना अदा न करने पर 10 दिन जेल की चेतावनी दी.

50 रुपये का कपड़ा चोरी, 40 साल बाद राहत
राजस्थान में 50 रुपये के कपड़े चोरी के मामले में आरोपी को 40 साल बाद कोर्ट से राहत मिली. 1978 में आरोपी ने कुछ कपड़े की चोरी की थी, जिसकी कीमत तब 50 रुपये थी. इस मामूली चोरी के लिए मामला करीब 40 वर्षों तक न्यायालय में लंबित रहा. इन 4 दशकों में आरोपी काफी बूढ़ा हो गया. आखिरकार साल 2018 में कोर्ट ने आरोपी की उम्र और बीमारी को देखते हुए उसे राहत दी और मामले को समाप्त किया.

100 रुपये का चावल चोरी, 20 साल बाद केस क्लोज
महाराष्ट्र में 100 रुपये के चावल चोरी मामले का लंबित रहना भी न्यायिक प्रक्रिया की देरी का एक उदाहरण है. साल 1983 में ये चोरी हुई थी और पुलिस ने मामला दर्ज किया था. किसी न किसी कारण से ये केस कोर्ट में 20 वर्षों तक लंबित रहा. कई बार गवाहों की गैरमौजूदगी और सुनवाई टालने की वजह से देरी हुई. आखिरकार साल 2003 में अदालत ने इसे समाप्त किया.
बिहार में 1985 में हुआ एक मामूली जमीन विवाद भी ऐसा ही एक उदाहरण है, जो 35 साल तक चलता रहा. कई पक्षकार गुजर गए, जो बचे, उनके बीच आखिरकार 2020 में बातचीत से मामला सुलझा और कोर्ट ने केस क्लोज किया.
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