भगवान कृष्ण और सुदामा की मित्रता की पौराणिक कथा दोस्ती की मिसाल के रूप में उद्धृत की जाने वाली कहानी है. लेकिन इस सीधी सपाट कहानी में सुदामा के चरित्र का कोई प्रतिपक्ष भी हो सकता है. द्वापर युग के सुदामा के चरित्र की यदि कलयुग की परिस्थितियों में कल्पना की जाए तो उसमें आज की दूषित मानसिकता भी दिखाई दे सकती है. कहानी वही है, चरित्र भी वही हैं लेकिन इन चरित्रों का आचार-विचार वह है जो आज के आम जीवन में देखा जाता है. नाटक 'सुदामा के चावल' में इस पौराणिक कथा की प्रभावी प्रस्तुति हुई. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रतिष्ठित आयोजन 'भारत रंग महोत्सव' के तहत रविवार को दिल्ली के कमानी थिएटर में हुई इस शानदार नाट्य प्रस्तुति का प्रेक्षकों ने जमकर आनंद लिया. प्रस्तुति के दौरान हाल कई बार तालियों और ठहाकों से गूंजा.
मध्यप्रदेश के सागर शहर के नाट्य समूह 'अन्वेषण थिएटर ग्रुप' की प्रस्तुति 'सुदामा के चावल' में केंद्रीय भूमिका में स्वयं नाटक के निर्देशक जगदीश शर्मा थे. सुदामा के चरित्र में उन्होंने प्रभावी अभिनय से प्रेक्षकों को अपना मुरीद बना लिया. सुदामा की पत्नी सावित्री का किरदार निभा रहीं दीपगंगा साहू ने भी लोगों को अपने अभिनय कौशल से रूबरू कराया.
वसंत देव की नाट्य रचना 'सुदामा के चावल' में सुदामा और उनकी पत्नी सावित्री अभावपूर्ण जीवन से परेशान हैं. सावित्री सुदामा से द्वारिका जाकर कृष्ण से मिलने के लिए कहती है. वे द्वारिका जाते हैं और कृष्ण उनका भावविभोर होकर स्वागत करते हैं, सेवा करते हैं, लेकिन कोई भेंट नहीं देते. सुदामा खाली हाथ लौट जाते हैं. लेकिन जब वे अपने घर पहुंचते हैं तो वहां उन्हें अपनी झोपड़ी का जगह महल मिलता है. इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सुदामा के अंदर जो विचार उमड़ते हैं, वे जिस मानसिकता का प्रदर्शन करते हैं वह द्वापर युग की न होकर आज के समाज की मानसिकता है. यही मनोविज्ञान सावित्री के चरित्र में भी प्रतिबिंबित होता है. नाटक में द्वारपाल के चरित्रों में मंच पर आए अतुल श्रीवास्तव, मनोज सोनी और कपिल नाहर की चेष्टाओं में भी आज के इंसान का दोहरा चरित्र सामने आया.
हिंदी मिश्रित बुंदेली बोली के इस नाटक में बुंदेलखंड के लोकनृत्य 'ढिमरयाई' का युक्तिपूर्ण उपयोग किया गया. बुंदेली बोली वास्तव में प्रेक्षकों को सुदामा के ग्राम्य चरित्र के ज्यादा समीप ले जाने में कामयाब हुई. नाटक में लीलाधर रैकवार ने नृत्य के जरिए प्रेक्षकों को बुंदेली लोक परंपरा से परिचित कराया. उन्हें उनके कला कौशल का अच्छा प्रतिसाद मिला.
नाट्य प्रस्तुति में कृष्ण मंच पर नहीं थे. उनके लिए प्रतीकों और 'शेडो प्ले' का इस्तेमाल किया गया. नाटक में लोक संगीत का प्रयोग किया गया. नाटक में नितिन दुबे, ऋषभ सैनी, अमर रैकवार, खेमचंद सेन, रंजीत रैकवार, राजीव जाट, सतीश साहू, संतोष दांगी, आकाश विश्वकर्मा, प्रवीण कैम्या और करिश्मा गुप्ता ने मंच पार्श्व की संगीत, सेट, प्रकाश, ध्वनि और मेकअप आदि की जिम्मेदारी निभाईं. सागर का अन्वेषण थिएटर ग्रुप सन 1992 में स्थापित हुआ था और यह तभी से रंगकर्म में सक्रिय है.
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राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का अंतरराष्ट्रीय रंगमंचीय उत्सव 'भारत रंग महोत्सव' एक फरवरी को शुरू हुआ. यह महोत्सव 21 फरवरी को संपन्न होगा. इस रंग महोत्सव में देश की कई नाट्य संस्थाओं के अलावा कई विदेशी रंग मंडलियां भी शिरकत कर रही हैं.
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