बॉम्बे हाईकोर्ट का फाइल फोटो
मुंबई:
मुंबई और महाराष्ट्र में मीडिया का काम कठिन होने वाला है। खासकर अपराध से जुड़ें मामलों में। महाराष्ट्र सरकार ने बॉम्बे हाईकोर्ट मे एक हलफनामा दायर कर बताया है कि आरोपी और पीड़ित की निजता बनाए रखने के लिए पुलिस को दिशा-निर्देश जारी किया है, जिसमें आरोपी का नाम, उसकी तस्वीर और उससे जुड़ी कोई भी जानकारी मीडिया को देने के लिए मना किया गया है।
यह हलफनामा बॉम्बे हाईकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में दिया गया है। जनहित याचिका दायर करने वाले वकील राहुल ठाकुर के मुताबिक, किसी पर भी मामला दर्ज होते ही पुलिस उसकी पुरी जानकारी, तस्वीर मीडिया को दे देती है। नतीजा ये होता है कि दोष साबित होने के पहले ही वह शख्स अपराधी मान लिया जाता है, जो अन्याय है।
राज्य सरकार के हलफनामे में 15 दिशा-निर्देश दिए गए हैं, जिसमें आरोपी के साथ पीड़ित और उसके परिवार की जानकारी देने पर भी रोक लगाई गई है। इसके साथ ही आरोपी का इकबालिया बयान, उसके पास से जब्त हथियार और दूसरे सामानों की तस्वीर भी मीडिया को नहीं देने के लिए कहा गया है। और तो और हत्या के मामले में मृतक की तस्वीर भी मीडिया को देने पर रोक लगाई गई है।
इसके मुताबिक, ऐसा तब तक करना है जब तक उस मामले में आरोप पत्र दायर न हो जाए और सभी आरोपी पकड़ न लिए जाएं।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि कहीं ये मीडिया ट्रायल के नाम पर मीडिया पर पाबंदी की कोशिश तो नहीं? वरिष्ठ पत्रकार जतीन देसाई का कहना है कि इस तरह की पाबंदी पारदर्शिता खत्म करती है।
1993 में हुए मुंबई सीरियल बम धमाकों का हवाला देते हुए जतिन देसाई पूछते हैं कि उस मामले में तो अब भी कई आरोपी फरार हैं तो क्या हम उसकी रिपोर्टिंग ही न करें?
देसाई के मुताबिक, इस तरह की पाबंदी के पहले सरकार मीडिया का पक्ष भी जान लेती तो अच्छा होता।
आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली ने तो इसे मीडिया का गला घोंटने की कोशिश करार दिया है। गलगली का कहना है आरोपियों को बेनकाब करने से उनमें भय पैदा होता है और अपराध पर रोक लगती है और मीडिया तभी खबर चलाती है जब पुलिस मामला दर्ज करती या फिर किसी को गिरफ्तार करती है। गलगली का सवाल है पुलिस गलत आदमी को गिरफ्तार ही क्यों करती है?
जबकि पूर्व आईपीएस सुधाकर सुराडकर का कहना है कि जब हम हक की बात करते हैं तो फर्ज भी समझना होगा। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों मे इस तरहं की पाबंदी जरूरी है, लेकिन सभी मामलों में नहीं।
खास बात है कि मीडिया ही नहीं कई पुलिस वाले भी इस परिपत्रक को पुरी तरह से ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि हत्या के कई मामलों में मृतक की शिनाख्त ही मीडिया की वजह से हो पाती है। बिना शिनाख्त के हत्या की गुत्थी सुलझाई नहीं जा सकती।
सवाल इस बात पर भी उठ रहा है कि अगर रोक लगानी है तो दोष साबित होने तक क्यों नहीं? सिर्फ आरोप पत्र दायर होने तक ही क्यों? उसके बाद भी तो कई आरोपी छूट जाते हैं। तो क्या तब उसके साथ अन्याय नहीं होगा? बहरहाल, रोक मीडिया को कुछ खास जानकारी देने पर लगी है। मीडिया में छापने पर नहीं इसलिए इसे मीडिया पर पाबंदी तो नहीं कहेंगे, लेकिन ये मीडिया को काफी हद तक सूचना देने से रोकने की कोशिश जरूर है।
यह भी सच है कि आरोपी और पीड़ित के अधिकार का ख्याल रखना चाहिए, लेकिन साथ में ये देखना भी जरूरी है कि जांच में पारदर्शिता बनी रहे वर्ना रसूखदार लोग पुलिस से मिलकर मामले को रफादफा करने से बाज नही आएंगे। आखिर कई ऐसे मामले हैं, जो मीडिया की वजह से ही अंजाम तक पहुंच पाए हैं। इसलिए मीडिया जैसा पहरेदार भी जरूरी है।
यह हलफनामा बॉम्बे हाईकोर्ट में दायर एक जनहित याचिका के जवाब में दिया गया है। जनहित याचिका दायर करने वाले वकील राहुल ठाकुर के मुताबिक, किसी पर भी मामला दर्ज होते ही पुलिस उसकी पुरी जानकारी, तस्वीर मीडिया को दे देती है। नतीजा ये होता है कि दोष साबित होने के पहले ही वह शख्स अपराधी मान लिया जाता है, जो अन्याय है।
राज्य सरकार के हलफनामे में 15 दिशा-निर्देश दिए गए हैं, जिसमें आरोपी के साथ पीड़ित और उसके परिवार की जानकारी देने पर भी रोक लगाई गई है। इसके साथ ही आरोपी का इकबालिया बयान, उसके पास से जब्त हथियार और दूसरे सामानों की तस्वीर भी मीडिया को नहीं देने के लिए कहा गया है। और तो और हत्या के मामले में मृतक की तस्वीर भी मीडिया को देने पर रोक लगाई गई है।
इसके मुताबिक, ऐसा तब तक करना है जब तक उस मामले में आरोप पत्र दायर न हो जाए और सभी आरोपी पकड़ न लिए जाएं।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि कहीं ये मीडिया ट्रायल के नाम पर मीडिया पर पाबंदी की कोशिश तो नहीं? वरिष्ठ पत्रकार जतीन देसाई का कहना है कि इस तरह की पाबंदी पारदर्शिता खत्म करती है।
1993 में हुए मुंबई सीरियल बम धमाकों का हवाला देते हुए जतिन देसाई पूछते हैं कि उस मामले में तो अब भी कई आरोपी फरार हैं तो क्या हम उसकी रिपोर्टिंग ही न करें?
देसाई के मुताबिक, इस तरह की पाबंदी के पहले सरकार मीडिया का पक्ष भी जान लेती तो अच्छा होता।
आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली ने तो इसे मीडिया का गला घोंटने की कोशिश करार दिया है। गलगली का कहना है आरोपियों को बेनकाब करने से उनमें भय पैदा होता है और अपराध पर रोक लगती है और मीडिया तभी खबर चलाती है जब पुलिस मामला दर्ज करती या फिर किसी को गिरफ्तार करती है। गलगली का सवाल है पुलिस गलत आदमी को गिरफ्तार ही क्यों करती है?
जबकि पूर्व आईपीएस सुधाकर सुराडकर का कहना है कि जब हम हक की बात करते हैं तो फर्ज भी समझना होगा। राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मामलों मे इस तरहं की पाबंदी जरूरी है, लेकिन सभी मामलों में नहीं।
खास बात है कि मीडिया ही नहीं कई पुलिस वाले भी इस परिपत्रक को पुरी तरह से ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि हत्या के कई मामलों में मृतक की शिनाख्त ही मीडिया की वजह से हो पाती है। बिना शिनाख्त के हत्या की गुत्थी सुलझाई नहीं जा सकती।
सवाल इस बात पर भी उठ रहा है कि अगर रोक लगानी है तो दोष साबित होने तक क्यों नहीं? सिर्फ आरोप पत्र दायर होने तक ही क्यों? उसके बाद भी तो कई आरोपी छूट जाते हैं। तो क्या तब उसके साथ अन्याय नहीं होगा? बहरहाल, रोक मीडिया को कुछ खास जानकारी देने पर लगी है। मीडिया में छापने पर नहीं इसलिए इसे मीडिया पर पाबंदी तो नहीं कहेंगे, लेकिन ये मीडिया को काफी हद तक सूचना देने से रोकने की कोशिश जरूर है।
यह भी सच है कि आरोपी और पीड़ित के अधिकार का ख्याल रखना चाहिए, लेकिन साथ में ये देखना भी जरूरी है कि जांच में पारदर्शिता बनी रहे वर्ना रसूखदार लोग पुलिस से मिलकर मामले को रफादफा करने से बाज नही आएंगे। आखिर कई ऐसे मामले हैं, जो मीडिया की वजह से ही अंजाम तक पहुंच पाए हैं। इसलिए मीडिया जैसा पहरेदार भी जरूरी है।
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