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अरावली के फैसले को क्यों कहा जा रहा है उत्तर भारत का डेथ वारंट, जानिए इससे जुड़ी हर जरूरी बात

नई परिभाषा के तहत उत्तर भारत का फेफड़ा कही जाने वाली अरावली पर्वतमाला का 90% हिस्सा खतरे में है, पर्यावरणविद इसे उत्तर भारत की जीवनरेखा का “डेथ वारंट” बता रहे हैं.

अरावली के फैसले को क्यों कहा जा रहा है उत्तर भारत का डेथ वारंट, जानिए इससे जुड़ी हर जरूरी बात
  • SC ने अरावली पहाड़ियों की नई परिभाषा स्वीकार की, जिसमें केवल 100 मीटर या उससे ऊंचे पहाड़ ही शामिल होंगे
  • इस नई परिभाषा के कारण अरावली के लगभग 90% हिस्से को कानूनी सुरक्षा से वंचित किया जाएगा जिससे खनन खतरा बढ़ेगा
  • अरावली पर्वतमाला थार रेगिस्तान को फैलने से रोकने और उत्तर भारत के जल स्रोतों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है
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नई दिल्ली:

अरबों साल पहले जब धरा पर जीवन की पहली सांसें ली जा रही थीं, तब भी अरावली सीना ताने खामोश खड़ी थी. इसने न सिर्फ बढ़ते रेगिस्तान को रोका और उत्तर भारत को पानी और हरियाली दी बल्कि खुशहाल जीवन भी दिया . अगर धरती की कहानी को अंतरिक्ष से देखा जाए, तो अरबों साल पहले भी इसकी पहचान एक हरी रेखा से होती थी और वो है अरावली की पर्वतमाला. यह सिर्फ पहाड़ नहीं, बल्कि समय का गवाह है जिसने महाद्वीपों की हर छोटी-बड़ी हलचल को देखी, कई नई सभ्यताओं को जन्म दिया और रेगिस्तान को रोककर उत्तर भारत को नई जिंदगी दी. लेकिन आज, उसी अरावली के अस्तित्व पर खतरा मंडर रहा है. इसके पीछे की वजह है इंसानी लालच, नीतिगत भूल और कॉरपोरेट हित. सवाल यह है कि क्या हम इस जीवनरेखा को बचा पाएंगे, या इतिहास में इसे एक “डेथ वारंट” के तौर पर दर्ज कर देंगे?

पर्यावरण एक्टिविस्ट प्रणय लाल ने साल 2019 के अपने लेख “Aravallis: A Mountain Lost” में लिखा था, “अरावली अब नेताओं और कंपनियों की संकीर्ण सोच के सामने जिंदा रहने के लिए जूझ रही है.” छह साल बाद, 2025 में, यह चेतावनी एक बार फिर हकीकत बनकर सामने आ गई है.

क्यों फिर चर्चा में है अरावली?

नवंबर 20, 2025 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से देशभर में चिंता की लहर दौड़ा दी. अदालत ने अरावली पहाड़ियों की एक नई और बेहद संकीर्ण परिभाषा को स्वीकार कर लिया. वो ये था कि अब केवल वही पहाड़ “अरावली” माने जाएंगे, जो अपने आसपास के इलाके से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचे हों. इसके पीछे सरकार का तर्क था कि इससे “प्रशासनिक स्पष्टता” आएगी और टिकाऊ विकास की योजना बनाना आसान होगा. लेकिन पर्यावरणविदों का कहना है कि यह फैसला अरावली के 90% हिस्से से कानूनी सुरक्षा छीन लेगा और यही वजह है कि इसे “डेथ वारंट” कहा जा रहा है.

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90% अरावली खतरे में क्यों?

सरकारी हलफनामे के आधार पर बनी इस परिभाषा के मुताबिक, राजस्थान में चिन्हित 12,081 अरावली पहाड़ियों में से केवल 1,048 (करीब 8.7%) ही इस नए मानक पर खरी उतरती हैं. यानी बाकी पहाड़ जिनकी ऊंचाई में कम हैं, लेकिन भूजल रिचार्ज, जैव विविधता और धूल-तूफानों को रोकने में अहम भूमिका निभाते हैं, वो भी अब खनन और रियल एस्टेट के लिए खुल सकते हैं. GIS मैपिंग पहले ही 3,000 से ज्यादा जगहों पर खनन से हुए नुकसान दिखा रही है. एक्सपर्ट चेता रहे हैं कि अगर निचली पहाड़ियों पर खनन शुरू हुआ, तो न सिर्फ ग्राउंड वाटर लेवल गिरेगा बल्कि राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-NCR के एक्विफर भी दूषित होंगे.मानव–वन्यजीव संघर्ष बढ़ेगा और थार रेगिस्तान का फैलाव और भी तेज होगा.

अरावली क्यों है उत्तर भारत की जीवनरेखा?

अरावली कोई साधारण पहाड़ नहीं है. यह चंबल, साबरमती और लूणी जैसी नदियों का प्रमुख स्रोत है. थार रेगिस्तान को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकता है. वहीं दिल्ली-NCR के लिए ग्रीन लंग्स यानी इंसानी फेफड़ों की तरह काम करता है. 650 किलोमीटर में फैला, करीब 2 अरब साल पुराना पर्वत तंत्र है. पर्यावरण कार्यकर्ता नीलम आहूजा, जो पिछले 12 सालों से People for Aravallis के जरिए संघर्ष कर रही हैं. इस मसले पर उनका कहना है कि अगर अरावली हट गई, तो उत्तर-पश्चिम भारत रेगिस्तान बन जाएगा. इसका सीधा असर पानी, भोजन और लाखों लोगों की ज़िंदगी पर पड़ेगा.

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फैसले पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?

यह पहला मौका नहीं है. साल 2018 में खुद सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि 31 अरावली पहाड़ खनन से गायब हो चुके हैं.फिर भी, अदालत ने 2010 के एक पुराने मानक को अपना लिया, जिसे अब पर्यावरणविद बेहद ही “विनाशकारी” बता रहे हैं. ये विवाद तब और भी बढ़ गया जब यह सामने आया कि केंद्र सरकार के हलफनामे में चित्तौड़गढ़ (जहां अरावली की ऊंची चट्टान पर किला है) और सवाई माधोपुर (रणथंभौर टाइगर रिजर्व) जैसे इलाके शामिल ही नहीं थे.

ज़मीन पर हकीकत कितनी भयावह है? हरियाणा के भिवानी और चरखी दादरी में कई पहाड़ पूरी तरह मिट चुके हैं. महेंद्रगढ़ में पानी 1,500–2,000 फीट नीचे चला गया है अवैध खनन से उड़ती धूल ने सिलिकोसिस, त्वचा रोग और फेफड़ों की बीमारियों को बढ़ाया है. बच्चों तक की जान जा रही है, ब्लास्टिंग से उड़ते पत्थर और डेटोनेटर रोज़मर्रा का खतरा हैं.

राजनीति और जनआंदोलन

इस फैसले के बाद इंटरनेट की दुनिया में #SaveAravalli और #SaveAravallisSaveAQI ट्रेंड कर रहे हैं. गुलाबी नगरी जयपुर से लेकर दिल्ली तक प्रदर्शन हो रहे हैं. ग्रामीण समुदायों ने 21 दिसंबर को प्रतीकात्मक उपवास का ऐलान किया है, खासकर हरियाणा के तोशाम हिल्स में, जो अरावली की उत्तरी आखिरी सीमा मानी जाती है. कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार पर खनन लॉबी को फायदा पहुंचाने का आरोप लगाया है. वहीं कई विशेषज्ञ सुप्रीम कोर्ट से फैसले पर पुनर्विचार की मांग कर रहे हैं.

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आखिर आगे रास्ता क्या?

नीलम आहूजा साफ़ कहती हैं कि अरावली को 100 मीटर के पैमाने से नहीं नापा जा सकता. यह सिर्फ पहाड़ नहीं, हमारी लाइफलाइन ही है. पूरे अरावली क्षेत्र को क्रिटिकल इकोलॉजिकल ज़ोन घोषित करना होगा. सवाल अब सिर्फ कानून का नहीं है, बल्कि यह तय करेगा कि उत्तर भारत भविष्य में हरा रहेगा या रेगिस्तान का रूप ले लेगा. अरावली बचेगी, तो पानी, हवा और जीवन बचेगा, वरना यह फैसला इतिहास में एक ऐसे “डेथ वारंट” के तौर पर दर्ज होगा, जिसने सब कुछ बदल दिया.

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