पिछले दौ सौ सालों से मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) भारतीय उपमहाद्वीप के साथ-साथ दुनिया के शीर्षस्थ शाइरों में शुमार रहे हैं. उन्होंने फारसी से लेकर उर्दू तक में शाइरी की है. मिर्ज़ा ग़ालिब और उनके अशआर भारतीय उपमहाद्वीप के जन-मानस में कुछ इस कदर रच-बस चुके हैं कि हर कोई गाहे-बगाहे उनके शेर पढ़ता हुआ नज़र आ जाता है. मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने जीवन में मुग़ल सल्तनत के पतन से लेकर अंग्रेजी हुकूमत के उफान तक का दौर देखा है. हालांकि, इस दौर में उन पर 1857 की क्रांति के दौरान इंकलाबियों का विरोध करने और अंग्रेजों का गुनगान करने का भी आरोप लगा. वहीं मिर्ज़ा ग़ालिब की शाइरी पर काम कर चुके विशेषज्ञों ने उन पर आधुनिकता विरोधी होने का इल्जाम आइद किया, तो कुछ ने कहा कि ग़ालिब ने बेहद गरीबी और मुफलिसी में जिंदगी गुजारी. हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय (University of Delhi) के प्रोफेसर डॉ. सादिक (Dr. Sadiq) का मिर्ज़ा ग़ालिब की फारसी मसनवी 'चिराग़-ए-दैर' का हिंदी अनुवाद किया है. NDTV ने इस अनुवाद को लेकर डॉ. सादिक से खास बातचीत की, जिसमें उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की जिंदगी के कईं ऐसे ही अनछुए पहलूओं पर बात की है जो अब से पहले शायद ही कोई जानता हो.
सवालः मिर्ज़ा ग़ालिब पर आप कई वर्षों से काम करते रहे हैं. उनकी शाइरी के बारे में कुछ बताइए?
जवाबः मिर्ज़ा ग़ालिब ने दो ज़बानों में शाइरी की है. एक तो उर्दू में, जो उनकी मादरी ज़बान थी. दूसरे फारसी में, जो उनके वालिद की ज़बान थी. उर्दू उनकी पहली मौहब्बत थी. उन्होंने अपना उर्दू दीवान 19 बरस की उम्र में तैयार कर लिया था. गाहे-बगाहे उसमें इज़ाफे होते रहे. फिर भी उर्दू का दीवान उनके फारसी दीवान के मुकाबले में बहुत छोटा है. लेकिन ग़ालिब ने उसे ‘रश्क-ए-फारसी' कहा है. यानी जिस पर फारसी को भी रश्क आए.
सवालः इन दिनों हिंदी साहित्य में मिर्ज़ा ग़ालिब की मसनवी ‘चिराग़-ए-दैर' चर्चा में है. ये मसनवी उन्होंने कब और क्यों लिखी थी?
जवाबः उर्दू में ग़ालिब ने कोई काबिल-ए-ज़िक्र मसनवी नहीं लिखी. फारसी में उन्होंने कम से कम तीन शाहकार मसनवियां लिखी हैं, जिनमें से एक ‘चिराग़-ए-दैर' यानी ‘मंदिर का दिया' है. ये मसनवी भारतीय भाषाओं में बनारस पर लिखी गई कविताओं में सर्वश्रेष्ठ कही जाती है. ग़ालिब ने अपनी ख़ानदानी पेंशन के सिलसिले में कलकत्ता का सफर किया था. इसी सफर के बीच वो कुछ अरसा बनारस में भी रहे. यहां आकर उन्होंने सुकून महसूस किया और ये मसनवी भी यहीं लिखी.
सवालः ‘चिराग़-ए-दैर' की ऐसी क्या विशेषता है जिसकी वजह से उसे एक श्रेष्ठ रचना माना जाता है और आपको ऐसा क्यों लगा कि हिंदी में इसका अनुवाद होना चाहिए?
जवाबः ये हिंदुस्तान के एक अदीम और मुकद्दस शहर बनारस पर किसी विदेशी भाषा में लिखी गई पहली लंबी कविता है. इसमें बनारस की प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ इसकी रूहानी फज़ाओं का भी मार्मिक चित्रण मिलता है. ग़ालिब ने इस शहर को ‘हिंदुस्तान का काबा' करार दिया है. दूसरा इस मसनवी के उर्दू में तकरीबन सात अनुवाद छप चुके हैं. जिनमें से चार गद्य में हैं और तीन पद्य में. इनके अलावा अंग्रेजी में भी इसका अनुवाद हो चुका है, जिसका एक हिस्सा देहली यूनिवर्सिटी में एम.ए. अंग्रेजी पाठ्यक्रम में शामिल रहा है, लेकिन इससे पहले हिंदी में इसका कोई अनुवाद नहीं था. मैंने इसी कमी को महसूस करके इसका हिंदी में अनुवाद किया है.
सवालः कुछ ‘ग़ालिब' विशेषज्ञों ने अपने लेखों और किताबों में लिखा है कि ग़ालिब यथास्थितिवादी थे. यानी आधुनिकता विरोधी. इस पर आपका क्या कहना है?
जवाबः मिर्ज़ा ग़ालिब यथास्थितिवादी थे, ये सही नहीं है. ग़ालिब आधुनिकता के हिमायती थे. उन्होंने गद्य और पद्य में जो कुछ भी लिखा है उसमें उन्होंने पुरातन परंपराओं के स्थान पर नए चलन और बदलते वक्त को तरजीह दी. सर सैय्यद अहमद खां ने जब ‘आईने अकबरी' के अनुवाद पर मिर्ज़ा ग़ालिब से भूमिका लिखवाई थी तो ग़ालिब ने स्पष्ट शब्दों में ये भी लिख दिया था कि ‘मुर्दा परवदन मुबारक काम नीस्त' मतलब मुर्दों को पूजना कोई मुबारक काम नहीं है. जाहिर है कि उन्हें आधुनिकता विरोधी हरगिज नहीं कहा जा सकता.
सवालः मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने बहुत गरीबी और मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुज़ारी. क्या ये सच है?
जवाबः हरगिज़ नहीं. वो हमेशा हवेलियों में रहे, जिसमें मर्दाना और जनानखाना अलग होता था. वो हमेशा बेहतरीन लिबास पहनते थे. बेहतरीन खाने खाते थे. घर से बाहर हमेशा घोड़े पर या पालकी में सवार होकर जाते थे. रोजाना शराब पीते थे. खिदमत के लिए कई नौकर-चाकर रखते थे. जाहिर है कि मुफलिसी में तो ये सब हो नहीं सकता. सच बात ये है कि उनकी आमदनी कम और खर्चे बहुत ज्यादा थे. इसी वजह से वो अक्सर तंगदस्ती के शिकार रहे.
सवालः ग़ालिब एक जागीरदार घराने से ताल्लुक रखते थे. उन्होंने ज़िंदगी भर कोई सर्विस नहीं की, लेकिन उनकी ज़िंदगी के हालात में पेंशन का जिक्र बार-बार आता है. आपने भी ऊपर एक सवाल के जवाब में इसका जिक्र किया है. ये क्या मामला है?
जवाबः ग़ालिब के वालिद महाराजा अलवर की फौज में किसी बड़े ओहदे पर मुकर्रर थे. एक जंग में उनकी मौत हो गई. वालिद की मौत के बाद वो चचा के घर आ गए, जो रिसालदार थे और आगरा के करीब उन्हें दो गांव जागीर में मिले हुए थे. यहां आने के दो साल बाद एक हादसे में उनके चचा भी मर गए. सरकार ने उनकी जागीर जब्त कर ली और वारिसों के लिए खानदानी पेंशन मुकर्रर कर दी. इस मामले में उनके साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ और सरकार द्वारा मुकर्रर की गई रकम का एक तिहाई से भी कम हिस्सा उन्हें मिलता था. इसी नाइंसाफी के खिलाफ अपना मुकदमा लेकर वो कलकत्ता तक गए. गवर्नर जनरल से मिले, लेकिन आखिर तक उन्हें इंसाफ नहीं मिला.
सवालः अंग्रेज सरकार से इंसाफ न मिलने के बावजूद कहा गया कि मिर्ज़ा ग़ालिब ने पहले गदर के दौरान फिरंगियों की तारीफ में कसीदे लिखे. इसमें कितनी सच्चाई है?
जवाबः पहली बात तो ये कि मिर्ज़ा ग़ालिब ने 1857 की क्रांति के दौरान किसी का कोई कसीदा नहीं लिखा. उन्होंने अंग्रेजों के जो कसीदे लिखे वो पेंशन के मुकदमे के सिलसिले में लिखे थे. उनमें भी अंग्रेजों की तारीफ कम थी और अपने हालात बयान करने पर ज्यादा जोर था.
सवालः फिर 1857 की क्रांति में ग़ालिब की क्या भूमिका रही है? कहा जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों की हिमायत की थी?
जवाबः 1857 में ग़ालिब अपनी उम्र के साठ साल पूरे कर चुके थे. जाहिर है बूढ़े हो चुके थे. ऐसे समय में उन्होंने ‘दस्तबूं' शीर्षक से किताब लिखकर एक बड़ा कारनामा अंजाम दिया. इस दौरान वो अंग्रेजों के खिलाफ तो कुछ लिख नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा करने पर जान से हाथ धोना पड़ता. लिहाजा उन्होंने यह किया कि ‘दस्तंबू' में अंग्रेजों के नुक्ता-ए-नजर से सारे हालात बिल्कुल सच-सच बयान कर दिए, जो जाहिर तौर पर तो इंकलाबियों के खिलाफ मालूम होते हैं, लेकिन दरअसल वो अंग्रेजों के खिलाफ जाते हैं. मैंने अपने एक शोध पेपर ‘आज़ादी-ए-इज़हार का मसला और मिर्ज़ा ग़ालिब' में इस मुद्दे पर काफी विस्तार से लिखा है. इसके अलावा ‘नाटक फेरब-ए-हस्ती' शीर्षक मेरा एक ड्रामा है. उसमें भी मैंने इस बारे में बात की.
सवालः अपने ज़माने से लेकर आज तक मिर्ज़ा ग़ालिब हिंदुस्तान के साथ-साथ दुनिया के सबसे बेहतरीन शाइरों में से एक है. फिर ऐसा क्यों है कि सरकारों की ओर से उन्हें उतनी तवज्जो नहीं मिली जितनी दूसरे भारतीय लेखकों को मिली है?
जवाबः इस सवाल का जवाब तो मेरी बजाय उन लोगों और सरकारों से किया जाना चाहिए, जिन्होंने आज तक दिल्ली तक में ग़ालिब के नाम पर कोई सड़क, कोई स्कूल, कॉलेज या यूनिवर्सिटी वगैरह नहीं बनाई. दिल्ली में आप जो ग़ालिब एकेडमी और ग़ालिब इंस्टीट्यूट देख रहे हैं वो सरकारी इदारे नहीं है. वे उर्दू वालों ने खुद बनाए हैं.
सवालः हिंदी फिल्मों और सीरियलों में ग़ालिब का इश्क़ भी दिखाया गया है. उसकी क्या हकीकत है?
जवाबः सआदत हसन मंटो ने जब फिल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब' की कहानी लिखी थी तो फिल्मी ज़रूरत के लिए एक गाने वाली का किरदार उसमें शामिल कर दिया था, जिसने हिरोइन की कमी पूरी की. मंटो ने मिर्ज़ा ग़ालिब के एक ख़त में लिखे दो-तीन जुमलों की बुनियाद पर ये किरदार गढ़ा था. यही वो राई थी जिसे पर्वत बना दिया गया.
सवालः मिर्ज़ा ग़ालिब की पारिवारिक ज़िंदगी के बारे में कुछ बताइए. कहा जाता है कि बीवी के साथ उनके संबंध अच्छे नहीं थे?
जवाबः ऐसा नहीं है, लेकिन हां ये जरूर है कि उमराव बेगम को ग़ालिब से ये शिकायत रहती थी कि वो नमाज़-रोजे की पाबंदी नहीं करते. ग़ालिब शराब पीते थे इसलिए बीवी ने उनके खाने-पीने के बर्तन अलग कर दिए थे. इसके बावजूद दोनों के बीच सारी उम्र अच्छे संबंध रहे.
सवालः क्या उनके कोई औलाद नहीं थी?
जवाबः उमराव बेगम और ग़ालिब के सात बच्चे पैदा हुए, लेकिन कोई बच्चा साल-डेढ़ साल से ज्यादा नहीं जिया. इसके बाद उन्होंने आरिफ को अपना बेटा बना लिया, लेकिन ऐन जवानी में वो भी इंतकाल कर गया. आरिफ के दो लड़के थे, जो ग़ालिब और उमराव बेगम के पोतों की हैसियत से उनके साथ रहे हैं.
सवालः इसका मतलब मिर्ज़ा ग़ालिब की नस्ल खुद उन्हीं पर खत्म हो गई?
जवाबः जी हां, ये ही बात उनके अंदाज़-ए-बयान के बारे में भी कही जाती है, जो उनके साथ ही खत्म हो गया. जैसे ग़ालिब ने खुद कहा है,
हैं ओर भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयां ओर
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