क्या मोदी सरकार ने सूचना के अधिकार क़ानून को कमज़ोर किया है? सोमवार को लोकसभा में चार घंटे तक चली बहस के दौरान विपक्षी दलों ने सूचना के अधिकार क़ानून में संशोधन करने के सरकार के फैसले पर यह सवाल कई बार उठाया. विपक्षी दलों के भारी विरोध के बावजूद यह बिल लोकसभा में बहुमत से पारित ज़रूर हो गया लेकिन इसके खिलाफ संसद के अंदर और बाहर विरोध तेज़ हो रहा है. अब मांग उठ रही है कि इस बिल को राज्यसभा में पेश करने के पहले इसे सेलेक्ट कमेटी के पास भेजा जाए.
लोकसभा में आरटीआई संशोधन बिल पास हो गया. हालांकि इसको लेकर विपक्ष लगातार हंगामा करता रहा. सरकार ने विरोध ताक पर रखकर बिल पास करा लिया.सरकार ने दलील दी कि आरटीआई कानून में बदलाव ज़रूरी है. इस संशोधन बिल में सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन को केंद्र सरकार के दायरे में लाने के प्रावधान का विपक्ष विरोध कर रहा है. सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पहले पांच साल का हुआ करता था और चुनाव आयुक्तों के बराबर वेतन होता था. कांग्रेस, डीएमके, बीजेडी, तृणमूल कांग्रेस और बसपा समेत कई विपक्षी दलों ने इसका जमकर विरोध किया.
बसपा सांसद दानिश अली ने कहा, "हमारे पास संख्या बल नहीं है...लेकिन आप हमारी आवाज़ को बुलडोज़ नहीं कर सकते...आप क्या सरकार में अधिकारियों के घपले छुपाना चाहते हैं?" अब विपक्ष की मांग है कि सरकार बिल को राज्यसभा में पेश करने से पहले सेलेक्ट कमेटी के पास भेजे. कांग्रेस के राज्यसभा सांसद पी भट्टाचार्य ने कहा कि " आरटीआई(संशोधन) बिल को राज्यसभा भेजना जरूरी है. उसकी स्कैनिंग के लिए सेलेक्ट कमेटी में स्क्रूटनी के बाद ही उसे राज्यसभा में लाया जाए."
यहां तक कि राज्यसभा में बीजेपी नेता भी बिल को सेलेक्ट कमेटी को भेजने के पक्ष में दिखे. बीजेपी सांसद सीपी ठाकुर ने कहा कि मेरी राय है कि राजनीतिक सहमति बनाने के लिए आरटीआई(संशोधन) बिल को सेलेक्ट कमेटी के पास भेजा जाना चाहिए.
विपक्षी पार्टियों के कड़े विरोध के बीच RTI संशोधन विधेयक लोकसभा से पास हो गया है. कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने सरकार पर सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक लाकर इस महत्वपूर्ण कानून को कमजोर करने का आरोप लगाया. केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने पारदर्शिता कानून के बारे में विपक्ष की चिंताओं को निर्मूल करार देते हुए कहा कि मोदी सरकार पारदर्शिता, जन भागीदारी, सरलीकरण, न्यूनतम सरकार...अधिकतम सुशासन को लेकर प्रतिबद्ध है. मंत्री के जवाब के बाद एमआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी समेत कुछ सदस्यों ने विधेयक पर विचार किए जाने और इसके पारित किए जाने का विरोध किया और मतविभाजन की मांग की. सदन ने इसे 79 के मुकाबले 218 मतों से अस्वीकार कर दिया. इसके बाद सदन ने विधेयक को मंजूरी प्रदान की. इस विधेयक में उपबंध किया गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा के अन्य निबंधन एवं शर्ते केंद्र सरकार द्वारा तय किए जाएंगे.
मूल कानून के अनुसार अभी मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं निर्वाचन आयुक्तों के बराबर है. कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने सरकार पर सूचना का अधिकार संशोधन विधेयक लाकर इस महत्वपूर्ण कानून को कमजोर करने का आरोप लगाया. विपक्ष ने आरोप लगाया कि सरकार इस संशोधन के माध्यम से राज्यों में भी सूचना आयुक्तों की नियुक्तियों की नियम, शर्तें तय करेगी जो संघीय व्यवस्था तथा संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ है.
उधर आरटीआई कानून में संशोधन के खिलाफ संसद के बाहर सड़कों पर विरोध प्रदर्शन जारी है.
दिल्ली में संसद परिसर से कुछ ही दूरी पर आरटीआई कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया और आरटीआई क़ानून में बदलाव का विरोध किया.
क्यों हो रहा है विरोध
सामाजिक कार्यकर्ता आरटीआई कानून में संशोधन के प्रयासों की आलोचना कर रहे हैं. उनका कहना है कि इससे देश में यह पारदर्शिता पैनल कमजोर होगा. विधेयक को पेश किये जाने का विरोध करते हुए लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि मसौदा विधेयक केंद्रीय सूचना आयोग की स्वतंत्रता को खतरा पैदा करता है. कांग्रेस के ही शशि थरूर ने कहा कि यह विधेयक वास्तव में आरटीआई को समाप्त करने वाला विधेयक है जो इस संस्थान की दो महत्वपूर्ण शक्तियों को खत्म करने वाला है. एआईएमआईएम के असादुद्दीन ओवैसी ने कहा कि यह विधेयक संविधान और संसद को कमतर करने वाला है. ओवैसी ने इस पर सदन में मत विभाजन कराने की मांग की. कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस ने इस दौरान सदन से वाकआउट किया.
मत विभाजन से पहले तृणमूल कांग्रेस के सौगत राय ने मांग की कि विधेयक को संसद की स्थायी समिति को विचार के लिये भेजा जाए. उन्होंने कहा कि 15 वीं लोकसभा में 71 प्रतिशत विधेयक समितियों को भेजे गए थे जबकि16 वीं लोकसभा में केवल 26 प्रतिशत विधेयकों को संसदीय समितियों को भेजा गया. इस नयी लोकसभा में अभी तक एक भी विधेयक किसी संसदीय समिति को नहीं भेजा गया है और कई संसदीय समितियों का अभी तक गठन भी नहीं हुआ है.
केंद्रीय मंत्री जितेन्द्र सिंह ने कहा कि पूर्ववर्ती सरकार में आरटीआई आवेदन कार्यालय समय में ही दाखिल किया जा सकता था. लेकिन अब आरटीआई कभी भी और कहीं से भी दायर किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने सीआईसी के चयन के विषय पर आगे बढ़कर काम किया है. सोलहवीं लोकसभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं था. ऐसे में सरकार ने संशोधन करके इसमें सबसे बड़ी पार्टी के नेता को जोड़ा जो चयन समिति में शामिल किया गया.
नए विधेयक की क्या हैं खास बातें
- विधेयक के उद्देश्यों एवं कारणों में कहा गया है कि आरटीआई अधिनियम की धारा13 मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों की पदावधि और सेवा शर्तो का उपबंध करती है. इसमें उपबंध किया गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों का वेतन , भत्ते और शर्ते क्रमश: मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के समान होगी.
- इसमें यह भी उपबंध किया गया है कि राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन क्रमश : निर्वाचन आयुक्त और मुख्य सचिव के समान होगी.
- मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के वेतन एवं भत्ते एवं सेवा शर्ते सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समतुल्य हैं. ऐसे में मुख्य सूचना आयुक्त , सूचना आयुक्तों और राज्य मुख्य सूचना आयुक्त का वेतन भत्ता एवं सेवा शर्तें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समतुल्य हो जाते हैं.
- वहीं केंद्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग , सूचना अधिकार अधिनियम2005 के उपबंधों के अधीन स्थापित कानूनी निकाय है. ऐसे में इनकी सेवा शर्तो को सुव्यवस्थित करने की जरूरत है.
- संशोधन विधेयक में यह उपबंध किया गया है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन , भत्ते और सेवा के अन्य निबंधन एवं शर्ते केंद्र सरकार द्वारा तय होगी.
क्या है सरकार का पक्ष
- RTI से जानकारी लेना आसान होगा
- RTI से जुड़े प्रबंधन में आसानी होगी
- पारदर्शिता लाना, सरकार की प्राथमिकता
- 2005 में जल्दबाज़ी में लाया गया बिल
- क़ानून बनाते वक़्त सही नियम नहीं बने
- RTI क़ानून को मज़बूत कर रही है सरकार
कौन-कौन सी पार्टियां हैं विरोध में
- कांग्रेस, टीएमसी, डीएमके, बीएसपी, एसपी
सूचना के अधिकार की क्या हैं मूल बातें
- सरकारी रिकॉर्ड देखने का मौलिक अधिकार
- 30 दिन के अंदर देना होता है जवाब
- देरी पर 250 रुपये प्रति दिन जुर्माना
- 2005 में UPA सरकार के दौरान बना क़ानून
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