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This Article is From Jun 22, 2012

नीतीश बनाम नरेन्द्र मोदी : नए समीकरण के संकेत

नई दिल्ली: बिहार में राजनीतिक उथल−पुथल एक संकेत हो सकता है देश में 2014 से पहले एक नए समीकरण का... और इसकी शुरुआत हुई है प्रणब मुखर्जी के बहाने।

इस बार का राष्ट्रपति चुनाव कई वजहों से याद किया जाएगा। इस बार सारे गठबंधन टूट गए साथ ही, यूपीए में दरार... एनडीए में मार... और वामदलों में तकरार।

लेकिन, सबसे अहम है नीतीश कुमार का बीजेपी से धीरे−धीरे किनारा करना। दरअसल, नीतीश और नरेन्द्र मोदी दोनों अपनेआप को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार मान चुके हैं।

मोदी ने बीजेपी पर अपना दबदबा कायम रखा है... संजय जोशी को हटना पड़ा। आडवाणी और सुषमा ने अपने आप को किनारे कर लिया।

नीतीश को मालूम है कि राष्ट्रपति पद के लिए संगमा के नाम का प्रस्ताव जयललिता ने रखा जो नरेंद्र मोदी से काफी नजदीक हैं। यही वजह है कि जेडीयू संगमा के नाम पर बिदक गया। यहां तक कि नीतीश ने संगमा का फोन तक नहीं उठाया। नीतीश को यह भी पता है कि भले ही मोदी अभी बैकग्राउंड में हों लेकिन 2014 के चुनाव की असली कमान उन्हीं के हाथ में रहेगी।

लगता है नीतीश ने तय कर लिया है कि गुजरात चुनाव से ठीक पहले बिहार में जेडीयू और बीजेपी गठबंधन खत्म कर दिया जाए। यही वजह है कि नीतीश ने शिवानंद तिवारी को एनडीए की बैठक में स तौर पर दिल्ली भेजा। शायद नीतीश को शरद यादव पर उतना भरोसा नहीं रह गया होगा।

बैठक में शिवानंद तिवारी ने प्रणब दा का पक्ष लिया लेकिन सुषमा स्वराज अड़ी रहीं। सुषमा ने आडवाणी और जयललिता की बैठक का हवाला दिया और चुनाव लड़ने की बात कही।

बीजेपी को अभी तक कलाम के हां कहने की उम्मीद थी। जेडीयू का कहना था कि यह कौन सी नई परंपरा की हम शुरुआत करने जा रहे हैं जहां एक बार राष्ट्रपति बनने के 5 साल बाद फिर उसी व्यक्ति के नाम पर विचार किया जा रहा है। अभी तक देश में ऐसा हुआ नहीं है। बैठक में कहा गया कि प्रणब मुखर्जी को केवल सोनिया गांधी का उम्मीदवार न मानकर सबका उम्मीदवार बना दिया जाए क्योंकि उनके कद और उनके राजनीतिक अनुभव पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

लेकिन, बात नहीं बनी। बाल ठाकरे पहले ही 'सामना' में प्रणब मुखर्जी को समर्थन दे चुके थे और अब जेडीयू भी अलग हो गई।
अब जरा नीतीश और नरेंद्र मोदी के नरम−गरम रिश्तों पर गौर करें...

याद कीजिए 2009 के चुनाव प्रचार का अंतिम दिन। लुधियाना में एनडीए की रैली में सभी बडे नेता जुटे मोदी भी और नीतीश भी। नीतीश कुमार मोदी से नजर बचा रहे थे लेकिन मोदी भी ठहरे खिलाड़ी खुद चलकर नीतिश के पास पहुंचे, गले मिले और हाथ मिलाया।

मगर इस तस्वीर में दरार उस वक्त दिखी जब पटना में बीजेपी की कार्यकारिणी की बैठक के पहले दिन बिहार के अखबारों में एक इश्तेहार छपा जिसमें इस बात का भी ज़िक्र किया गया कि किस तरह गुजरात ने कोसी की बाढ़ के वक़्त बिहार की मदद की।

इसके बाद नीतीश कुमार भड़क गए। नीतीश कुमार ने फौरन इस पोस्टर से अपनी तस्वीर हटाने के लिए कहा। यही नहीं, कोसी की मदद के नाम पर मिली रकम गुजरात सरकार को वापस कर दी। और बीजेपी की कार्यकारिणी के सम्मान में दी जाने वाली दावत भी रद्द कर दी।

दरअसल नीतीश को मालूम है कि बिहार में अतिपिछड़ों, महादलितों और अल्पसंख्यकों के साथ पिछड़ों का जो गठजोड़ उनकी राजनीति को ताकत दे रहा है उसमें मोदी से उनकी क़रीबी दरार डाल सकती है। इसलिए वह ऐसा कोई मौका जाने नहीं देते जिसमें वह मोदी से अलग और असहमत होते दिखें।

हाल ही में जब मोदी ने बिहार की जातिवादी राजनीति का ज़िक्र किया तो नीतीश ने ताना मारा कि मोदी गुजरात की चिंता करें, बिहार की नहीं।  

यही नहीं, हाल में ही एक अंग्रेजी पत्रिका में नीतीश सरकार पर एक विशेषांक आया जिसमें उनकी सरकार की आलोचना की गई थी। नीतीश कुमार इससे भी खफा हैं कि उसी पत्रिका में गुजरात सरकार का 16 पेज का विज्ञापन वाला एक परिशिष्ट भी छपा है।
नीतीश के नजदीकी इसमें भी मोदी का हाथ देख रहे हैं। वैसे नीतीश को अंदाज़ा है कि मोदी के सवाल पर बीजेपी का एक हिस्सा अचानक संवेदनशील हो उठता है और ऐसे तत्व उनकी सरकार में भी सक्रिय हैं। उनकी ही सरकार के एक मंत्री ने मोदी के हक़ में बयान देने शुरू कर दिए।

हालांकि जेडीयू इस मसले पर पूरी तरह उनके साथ है। जाहिर है नीतिश अपना कद बढ़ाने और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी एक अहम भूमिका भी चाहते हैं। लेकिन क्या इसी बहाने वह यूपीए के नजदीक आ रहे हैं... फिलहाल यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी क्योंकि अभी तक यह नहीं पता कि बदले में केन्द्र से उन्हें क्या मिलेगा। बिहार में कानून व्यवस्था तो ठीक हुई है, लोगों का पलायन भी कम हुआ है लेकिन वहां बिजली की समस्या गंभीर है और अब लोगों का सब्र टूट रहा है।

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