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This Article is From Sep 08, 2015

कभी सोचा है आपने... क्या खाता है हमारा अन्नदाता?

कभी सोचा है आपने... क्या खाता है हमारा अन्नदाता?
प्रतीकात्मक फोटो
नई दिल्ली: मैं शरद शर्मा फिर निकल पढ़ा गाँव की ओर...कुछ महीनों पहले... जब बेमौसम बरसात ने फसल बर्बाद कर दी थी.. तब भी मैं आपको वहां का हाल बताने गया था। तब यूपी के कई इलाकों से कर्जे के बोझ से दबे हुए किसानों की मौत की खबर आई थी। कहीं आत्महत्या की कहानी थी, तो कहीं सदमे से मरने की। उस वक़्त केंद्र और यूपी सरकार ने ऐलान किया था कि मृत किसानों के परिवार वालों को मुआवजा मिलेगा।

मैं बुलंदशहर के गांव हजरतपुर गांव का जायजा लेने पहुंच गया। यह ऐसा गांव है, जहां कुछ साल पहले तक मनरेगा की स्कीम चलती थी। जिसके चलते गरीबी तो थी, लेकिन भुखमरी नहीं। उसी के चलते गरीब के घर में भी फ्रिज दिखता है। गर्मी मारने के लिए कूलर भी है और बच्चों का यूनिफार्म हर रोज धुलता जरूर है।

मैं स्वर्गीय प्रेमपाल सिंह के घर पहुंचा। अप्रैल में फसल बर्बाद हुई तो उनकी सदमे में मौत हो गई। प्रेमपाल की पत्नी सुरेखा देवी को अब मुआवजे का इंतजार है ताकि सिर पर चढ़े दो लाख रुपये का कर्जा चुका सकें। तीन बच्चे हैं... कुछ दिनों पहले तक... तीनों स्कूल जाते थे, लेकिन पिछले हफ्ते फीस न देने के कारण सबसे बड़ी बेटी काजल को स्कूल से निकाल दिया है।

बच्चे बड़े होंगे तो तीन बीघा जमीन पर खेती करने लायक होंगे। अभी गांव वालों की मेहरबानी से गुजारा हो रहा है। किसीने एक गाय उधार पर दी है। गाय दूध देती है जिसे बेचकर सुरेखा देवी रोटी का इंतजाम करती हैं। सुरेखा ने हमको बताया कि बावजूद इसके कि उनके घर में गाय है, वे खुद अपने बच्चों को पीने को दूध नहीं दे पातीं क्योंकि अगर दूध बच्चों को दिया तो घर का खर्चा कैसे चलेगा?

उनके यहां बनते खाने पर नजर गई तो तस्वीर अजीब थी। खाना पेट भरने के लिए है, पौष्टिकता दूर दूर तक नहीं। बस सादी रोटी और उबला हुआ आलू। सुरेखा देवी ने बताया कि आलू सस्ता है इसलिए इससे काम चलता है या कभी चटनी बना लेते हैं... ऐसे ही अपना गुजारा चल रहा है। सब्जी खरीदने की हैसियत नहीं है और दाल की बात यहां बेमानी है।

इसके बाद मैं बुलंदशहर के गाँव अज़ीज़ाबाद पहुंचा, जहां पर स्वर्गीय भंवर सिंह का परिवार रहता है। अप्रैल में जब फसल खराब हुई थी तो इनकी सदमे से मौत हो गई थी। स्वर्गीय भंवर सिंह के घर पहुंचे तो बिलकुल अंधेरा। यहां बिजली कनेक्शन नहीं है। अपने कैमरे की लाइट से काम चलाया। भंवर सिंह की पत्नी अभी भी पति के अचानक यूं चले जाने के सदमे से बाहर नहीं आ पाई हैं। हमसे बात करते-करते रोने लगती हैं।

सात बीघा जमीन है, लेकिन कर्जा उतारने के लिए जमीन एक साल के लिए किसी और के हवाले कर दी है।  दो बेटे हैं लेकिन खेत न रहने के कारण छोटी-मोटी मजदूरी कर लेते हैं। गुजारा बहुत मुश्किल से होता है।

खाने का यहाँ भी बिलकुल वैसा ही हाल दिखा जैसा पिछले गांव में दिखा था। यहां भी सिर्फ आलू और रोटी से काम चलता है। तेल नहीं है तो पानी में मसाले डालकर बिन तड़के की आलू की सब्जी बनती है।

स्वर्गीय भंवर सिंह की पत्नी किरण देवी का कहना है कि दाल महंगी है, इसलिए उनके बस की बात नहीं। एक किलो दाल 40 रुपये की आएगी। इतने में 5 किलो आलू आ जाएगा और कई दिन चलेगा, इसलिए बस आलू खाकर या चटनी बनाकर ही जिंदगी चल रही है। कभी कहीं से दूध मिल जाता है तो चाय बन जाती है वरना परिवार में दो छोटे बच्चों को दूध भी मयस्सर नहीं है।

किरण देवी को भी मुआवजे का सपना दिखाया गया था। अभी तक एक पैसा नहीं मिला है। कहती हैं कि कहा तो था उस समय, लेकिन कुछ मिला नहीं।

कुल मिलाकर इस यात्रा में मुझे दो बात समझ आईं। पहली जो किसान हमारे लिए हमारे परिवार के लिए अनाज उगाते हैं सब्जियां उगाते हैं, खुद उनका परिवार इस समय बस आलू खाकर काम चला रहा है। या यूं कहें कि हमारे लिए पौष्टिक आहार का इंतजाम करने वाले किसान का परिवार पौष्टिकता से दूर है। और दूसरा सरकारी योजनाएं हमेशा की तरह पुरानी कहानी की तरह चल रही हैं। महीनों हो गए और मुआवजे का अतापता नहीं।

वैसे यह स्टोरी करते हुए मेरे मन में यह भी आया कि आलू सस्ता है, इसलिए गरीब किसान का परिवार इससे काम चल रहा है। लेकिन अगर यह भी महंगा होता तो फिर किसान क्या खाता?

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