गुजरात में हर साल दलित उत्पीड़न की 1000 घटनाएं
अहमदाबाद:
गुजरात में बीते दिनों स्वघोषित गोरक्षा समूह के लोगों द्वारा चार दलित युवकों की बेरहमी से पिटाई का मामला कोई इकलौता मामला नहीं है। वास्तव में इस साल अप्रैल तक गुजरात में दलित उत्पीड़न के 409 मामले दर्ज हुए हैं।
हालांकि 11 जुलाई को सौराष्ट्र के उना में चार दलित युवकों के साथ घटी घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर दलित उत्पीड़न की जो बहस छेड़ी उसके कारण पुलिस को मई में अमरेली जिले के राजुला कस्बे में नौ दलित युवकों पर हमला करने वाले इसी तरह के छह 'गो रक्षकों' को हिरासत में लेना पड़ा।
केंद्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, गुजरात में 2001 से अब तक दलित उत्पीड़न के 14,500 मामले सामने आए हैं। इस आधार पर देखा जाए तो गुजरात में हर साल दलित उत्पीड़न की 1000 घटनाएं, जबकि प्रतिदिन के हिसाब से तीन घटनाएं प्रतिदिन घटीं।
दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के मामलों में कार्रवाई की दर तीन से पांच फीसदी है, जिससे अपराधियों में कार्रवाई से बच जाने का भरोसा रहता है और इसीलिए भी ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं।
राजुला में 22 मई की दोपहर इसी तरह का गो रक्षकों का एक दल बड़ी गाड़ियों और बाइक पर सवार हो दलित बस्ती में घुस आया था। उना घटना की तरह ही ये तथाकथित गो रक्षक भी लाठियां और छुरी साथ लाए थे। कुछ के पास तो तलवारें भी थीं।
इलाके में काम करने वाले दलित कार्यकर्ता रमेशभाई बाबरिया ने बताया कि गो रक्षकों ने दलितों के हाथ-पैर तोड़ डाले थे और बुरी तरह पिटाई की थी। प्रेमाभाई राठौड़ के भी सिर पर वार किया गया था।
उना के समधियाला की ही तरह गो रक्षकों ने अपने अत्याचारों का निर्लिप्त भाव से वीडियो बनाया था। लेकिन राठौड़ के साथ अन्य लोगों ने पुलिस में इसकी शिकायत की तो पुलिस ने वह वीडियो स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
सबसे अहम बात तो यह है कि दलित समुदाय जीवित पशुओं की नहीं बल्कि मृत पशुओं की चमड़ी उतारता है और इसके लिए स्थानीय निकाय ने बाकायदा उन्हें जगह भी मुहैया करवाई है। राठौड़ ने बताया कि जब वे शिकायत करने गए तो पुलिस ने कहा था, 'तुम्हे लगता है कि तुम इस तरह का कोई भी बेहूदा वीडियो लाओगे और हम उस पर विश्वास कर लेंगे?'
पुलिस ने पूरे एक दिन के बाद इस मामले की शिकायत दर्ज की थी, वह भी सिर्फ 19 लोगों के खिलाफ जबकि घटना में इससे कहीं अधिक लोग संलिप्त थे। हालांकि शिकायत दर्ज होने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। सामाजिक कार्यकर्ता और ग्रामीण फिर से 31 मई को पुलिस के पास गए।
राठौड़ बताते हैं, 'हमें कोई उम्मीद नहीं थी कि पुलिस इसमें कुछ करेगी। पुलिस के सामने हमें फिर से जलील होना पड़ा।' इसके बाद बाबरिया के नेतृत्व में दलित कार्यकर्ताओं ने सात जुलाई को अमरेली से राजुला के बीच 70 किलोमीटर लंबी मोटरसाइकिल रैली निकाली और कार्रवाई की मांग की।
बाबरिया ने कहा, 'उसके बाद 11 जुलाई को समधियाला में घटना घटी और पुलिस डर गई। उन्होंने तत्काल कार्रवाई करते हुए छह लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इससे पहले वे हमसे कहते रहे कि सभी फरार हैं और वे किसी की तलाश नहीं कर पाए हैं।' उन्होंने आगे कहा, 'आरोपी तो बहुत से और हैं। लेकिन कम से कम उन्होंने छह को तो पकड़ा, देर से ही सही।'
इसी बीच अपराध जांच विभाग (अपराध शाखा) ने सुरेंद्रनगर में 2012 में पुलिस की गोलीबारी में तीन दलित युवकों की मौत के मामले में अपनी एक सारांश रिपोर्ट गुजरात हाईकोर्ट को सौंपी है, जिसमें कहा गया है कि किसी के खिलाफ कोई अपराध नहीं पाया गया। उल्लेखनीय है कि पुलिस ने एके-47 से गोलियां चलाई थीं।
दलित कार्यकर्ता और पेशे से वकील जिग्नेश मेवानी ने कहा, 'किसी भी तरह के अत्याचार के मामले में 60 दिनों के भीतर आरोप-पत्र दाखिल करना होता है। लेकिन इस मामले में चार साल हो चुके हैं और अब भी आरोप-पत्र दाखिल नहीं किया गया है।' गिरफ्तार किए गए तीन पुलिसकर्मियों को जमानत मिल चुकी है और एक पुलिस अधिकारी चार साल से फरार है।
कई शिकायतों के बाद गुजरात सरकार ने प्रधान सचिव संजय प्रसाद से मामले की जांच के लिए कहा। लेकिन 2013 में सौंपी गई उनकी रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया।
सूचना का अधिकार के तहत जब कीर्ति राठौड़ ने रिपोर्ट को सार्वजनिक न किए जाने का कारण पूछा तो कहा गया कि 'इससे देश की संप्रभुता और अखंडता को नुकसान पहुंचेगा और समाज में नफरत फैलेगी।'
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
हालांकि 11 जुलाई को सौराष्ट्र के उना में चार दलित युवकों के साथ घटी घटना ने राष्ट्रीय स्तर पर दलित उत्पीड़न की जो बहस छेड़ी उसके कारण पुलिस को मई में अमरेली जिले के राजुला कस्बे में नौ दलित युवकों पर हमला करने वाले इसी तरह के छह 'गो रक्षकों' को हिरासत में लेना पड़ा।
केंद्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, गुजरात में 2001 से अब तक दलित उत्पीड़न के 14,500 मामले सामने आए हैं। इस आधार पर देखा जाए तो गुजरात में हर साल दलित उत्पीड़न की 1000 घटनाएं, जबकि प्रतिदिन के हिसाब से तीन घटनाएं प्रतिदिन घटीं।
दलित अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के मामलों में कार्रवाई की दर तीन से पांच फीसदी है, जिससे अपराधियों में कार्रवाई से बच जाने का भरोसा रहता है और इसीलिए भी ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं।
राजुला में 22 मई की दोपहर इसी तरह का गो रक्षकों का एक दल बड़ी गाड़ियों और बाइक पर सवार हो दलित बस्ती में घुस आया था। उना घटना की तरह ही ये तथाकथित गो रक्षक भी लाठियां और छुरी साथ लाए थे। कुछ के पास तो तलवारें भी थीं।
इलाके में काम करने वाले दलित कार्यकर्ता रमेशभाई बाबरिया ने बताया कि गो रक्षकों ने दलितों के हाथ-पैर तोड़ डाले थे और बुरी तरह पिटाई की थी। प्रेमाभाई राठौड़ के भी सिर पर वार किया गया था।
उना के समधियाला की ही तरह गो रक्षकों ने अपने अत्याचारों का निर्लिप्त भाव से वीडियो बनाया था। लेकिन राठौड़ के साथ अन्य लोगों ने पुलिस में इसकी शिकायत की तो पुलिस ने वह वीडियो स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
सबसे अहम बात तो यह है कि दलित समुदाय जीवित पशुओं की नहीं बल्कि मृत पशुओं की चमड़ी उतारता है और इसके लिए स्थानीय निकाय ने बाकायदा उन्हें जगह भी मुहैया करवाई है। राठौड़ ने बताया कि जब वे शिकायत करने गए तो पुलिस ने कहा था, 'तुम्हे लगता है कि तुम इस तरह का कोई भी बेहूदा वीडियो लाओगे और हम उस पर विश्वास कर लेंगे?'
पुलिस ने पूरे एक दिन के बाद इस मामले की शिकायत दर्ज की थी, वह भी सिर्फ 19 लोगों के खिलाफ जबकि घटना में इससे कहीं अधिक लोग संलिप्त थे। हालांकि शिकायत दर्ज होने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। सामाजिक कार्यकर्ता और ग्रामीण फिर से 31 मई को पुलिस के पास गए।
राठौड़ बताते हैं, 'हमें कोई उम्मीद नहीं थी कि पुलिस इसमें कुछ करेगी। पुलिस के सामने हमें फिर से जलील होना पड़ा।' इसके बाद बाबरिया के नेतृत्व में दलित कार्यकर्ताओं ने सात जुलाई को अमरेली से राजुला के बीच 70 किलोमीटर लंबी मोटरसाइकिल रैली निकाली और कार्रवाई की मांग की।
बाबरिया ने कहा, 'उसके बाद 11 जुलाई को समधियाला में घटना घटी और पुलिस डर गई। उन्होंने तत्काल कार्रवाई करते हुए छह लोगों को गिरफ्तार कर लिया। इससे पहले वे हमसे कहते रहे कि सभी फरार हैं और वे किसी की तलाश नहीं कर पाए हैं।' उन्होंने आगे कहा, 'आरोपी तो बहुत से और हैं। लेकिन कम से कम उन्होंने छह को तो पकड़ा, देर से ही सही।'
इसी बीच अपराध जांच विभाग (अपराध शाखा) ने सुरेंद्रनगर में 2012 में पुलिस की गोलीबारी में तीन दलित युवकों की मौत के मामले में अपनी एक सारांश रिपोर्ट गुजरात हाईकोर्ट को सौंपी है, जिसमें कहा गया है कि किसी के खिलाफ कोई अपराध नहीं पाया गया। उल्लेखनीय है कि पुलिस ने एके-47 से गोलियां चलाई थीं।
दलित कार्यकर्ता और पेशे से वकील जिग्नेश मेवानी ने कहा, 'किसी भी तरह के अत्याचार के मामले में 60 दिनों के भीतर आरोप-पत्र दाखिल करना होता है। लेकिन इस मामले में चार साल हो चुके हैं और अब भी आरोप-पत्र दाखिल नहीं किया गया है।' गिरफ्तार किए गए तीन पुलिसकर्मियों को जमानत मिल चुकी है और एक पुलिस अधिकारी चार साल से फरार है।
कई शिकायतों के बाद गुजरात सरकार ने प्रधान सचिव संजय प्रसाद से मामले की जांच के लिए कहा। लेकिन 2013 में सौंपी गई उनकी रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया।
सूचना का अधिकार के तहत जब कीर्ति राठौड़ ने रिपोर्ट को सार्वजनिक न किए जाने का कारण पूछा तो कहा गया कि 'इससे देश की संप्रभुता और अखंडता को नुकसान पहुंचेगा और समाज में नफरत फैलेगी।'
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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