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This Article is From Dec 29, 2014

राइट लेन लाइफ लेन : दिल्ली की सड़कों पर जाम में फंसती जान

राइट लेन लाइफ लेन : दिल्ली की सड़कों पर जाम में फंसती जान
नई दिल्ली:

सायरन बजता रहता है और मरीज को ले जा रही एंबुलेंस खाली लेन की तलाश में ट्रैफिक से जूझती दिखती है। आगे का ट्रैफिक यह तय नहीं कर पाता कि कब किसे और किधर रास्ता देना है।

सड़क पर रेंगती रहती एंबुलेंस को लेकर हमने अलग-अलग जगहों पर पड़ताल की। दिल्ली की ट्रैफिक और सड़कों की हकीकत डराती है।

शुरुआत पूर्वी दिल्ली के खिचड़ीपुर स्थित लालबहादुर शास्त्री हॉस्पिटल से की। दोपहर 3 बजे का वक्त। यहां कैट्स यानी सेंट्रलाइज्ड एक्सिडेंट एंड ट्रॉमा सर्विस की एंबुलेंस लेबर रूम से एक मरीज को लेकर 3 बजकर 5 मिनट पर निकली और करीब 14 किलोमीटर दूर दिल्ली गेट के पास एलएनजेपी अस्पताल पहुंचने में एंबुलेंस को 50 मिनट का वक्त लग गया। जब मरीज के लिए एक-एक पल भारी हो और सवाल जिंदगी और मौत का, ऐसे में दिल्ली की सड़कों पर एंबुलेंस की औसत स्पीड का यह सच डरावनी हकीकत से कम नहीं।

चुनौती वक्त रहते पहुंचने की होती है, लिहाजा पूरा खेल रफ्तार का है। लेकिन कहीं बाइक वाला ओवरटेक कर गया, तो कहीं डीटीसी बस बिल्ली की तरह रास्ता काट कर जल्दबाजी दिखा गई। कई बार एंबुलेंस के पीछे गाड़ियां चुंबक की तरह चिपकी चलती हैं, यह सोचकर कि जाम में ट्रैफिक की टेंशन खत्म हो जाए और एंबुलेंस है कि पहले रेड लाइट के ग्रीन होने का इंतजार करती रही। वक्त फिसलता रहा। फिर चली नहीं कि दाएं-बाएं से गाड़ियां तीर की तरह निकलने लगी।

इमरजेंसी का कोई कायदा कानून नहीं होता यह सोचकर एंबुलेंस ने थोड़ी देर के लिए रॉन्ग साइड लिया, लेकिन बेतरतीब ट्रैफिक की वजह से यह कवायद भी बेकार गई। हालांकि यह भी सच नहीं कि हर कोई आगे निकलने की होड़ में होता है। कुछ ने साइड दे दिया, तो कुछ ने रास्ता छोड़ दिया, लेकिन आगे बढ़े तो लक्ष्मीनगर के पास ठहरी गाड़ियों ने एक बार फिर रफ्तार थाम लिया।

यहां से छूटी एंबुलेंस अभी रफ्तार पकड़ ही रही थी कि एक कार वाला करतब दिखाता सामने से मुंह चिढ़ा गया। ट्रैफिक के लिहाज से सबसे बदनाम चौराहा आइटीओ जहां सायरन बजता रहा, जिंदगी की कीमती लम्हें यूं ही फिसलते रहे। लेकिन कौन किसकी सुनता है।

राजघाट चौराहे पर लालबत्ती एक बार फिर रोड़ा बनी और जैसे-तैसे जाम से निकलते किसी तरह एंबुलेंस एलएनजेपी में दाखिल हो पाई। तब तक 50 मिनट का वक्त निकल चुका था। इसी तरह की हकीकत टटोलने एक बार फिर हम महारानी बाग से एक एंबुलेंस के साथ चले। इस वक्त घड़ी में दोपहर के 1 बजकर 25 मिनट हो रहे थे। पीक आवर में पस्त पड़े ट्रैफिक को किसी सायरन की आवाज सुनाई नहीं पड़ती। यहां भी जाम में जिंदगी फंसी रही और एंबुलेंस जूझती रही।

हर लेन मे गाड़ियों की लंबी कतार और वह भी एक-दूसरे के सिर पर सवार। आप चाहें तो इसे बंपर टू बंपर ट्रैफिक कह सकते हैं। ऐसे में कभी दाएं तो कभी बाएं काटकर निकलती एंबुलेंस। इस हाल में अंदर मौजूद मरीज और उसके घरवालों की हालत का अंदाजा लगाना आसान नहीं है। जिसने इसे समझा वह रास्ता दे दिया, लेकिन इस तरह का समझ रखने वाले भी न के बराबर ही हैं।  किसी तरह एंबुलेंस ट्रॉमा सेंटर तक पहुंच गई। लेकिन करीब 7 किलोमीटर की दूरी तय करने में 27 मिनट का अनमोल लम्हा निकल गया। दिन और दोपहर से दूर, हमें रात के वक्त सड़क की हालत और ट्रैफिक के टेंशन से जूझती एंबुलेंस भी दिखी।

गाजीपुर चौराहे से हम एक एंबुलेंस के पीछे पीछे लगे। रात के 9 बजकर 23 मिनट पर एंबुलेंस इस चौराहे से निकली और गुरु तेग बहादुर हॉस्पिटल के करीब 5 किलोमीटर तक की दूरी तय करने में 39 मिनट का वक्त लग गया। रात में भी ट्रैफिक का बुरा हाल। रफ्तार बमुश्किल से 10 किलोमीटर प्रति घंटा।

आनंद विहार में लंबे वक्त फंसी रही। फिर जैसे ही निकली लोगों ने एंबुलेंस से साइड लेने की खातिर हॉर्न तक बजाना शुरू कर दिया। किसी की जान जोखिम में देखकर भी कोई एक पल के रुकने पर तैयार नहीं। ये न सिर्फ लोगों की सोच पर सवाल उठाता है, बल्कि यह अहसास भी कराता है कि एंबुलेंस होने का क्या फायदा अगर वक्त पर इलाज ही न मिले।

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