हमारे जैसे लोकतंत्र में, सेंसर बोर्ड बहुत 'अलोकतांत्रिक' है : मनोज बाजपेयी

हमारे जैसे लोकतंत्र में, सेंसर बोर्ड बहुत 'अलोकतांत्रिक' है : मनोज बाजपेयी

नई दिल्‍ली:

'इससे पहले कि आप कुछ पूछें, मैं पहले कुछ बोलना चाहता हूं'.. जिस स्कूल में एडमिशन नहीं मिला, उसी स्कूल ने जब संवाद के लिए बुलाया तो मनोज बाजपेयी पूरी तैयारी में दिखे और सवाल-जवाब के पहले अपनी बातें रखीं. मौक़ा था 19वें भारत रंग महोत्सव के अंतर्गत आयोजित इंटरफेस श्रृंखला का. इस कार्यक्रम के तहत सिनेमा में रंगमंच से गए अभिनेताओं को दर्शकों, एनएसडी के छात्रों और पत्रकारों से संवाद करने के लिए बुलाया जा रहा है और इससे पहले नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी को बुलाया गया था.

गौरतलब है कि अपने संघर्ष के दिनों में मनोज बाजपेयी ने एनएसडी में एडमिशन के लिए कई प्रयास किए थे, लेकिन वह नाकामयाब रहे. उनकी यह कसक इस दौरान भी झलकी, लेकिन शिकायती अंदाज में नहीं. मनोज बाजपेयी इसका गर्व से उल्लेख करते हैं कि एनएसडी ने उन्हें अपने यहां पढ़ने का मौका नहीं दिया, लेकिन पढ़ाने के लिए बुलाया. पढ़ाने के लिए पारिश्रमिक के रूप में मिले चेक को अभी तक मनोज बाजेपयी ने संभाल कर रखा हुआ है.

एनएसडी क्यों आना चाहते थे? इसके जवाब में मनोज बाजपेयी ने कहा कि 'एनएसडी में एडमिशन मिलने से उनका बहुत सारा संघर्ष कम हो जाता, जो उन्हें बाहर रहते हुए करना पड़ रहा था. एनएसडी में बेहतरीन रंगकर्मियों के साथ ट्रेनिंग होती थी तो अभिनय का जो क्राफ्ट होता है, उसको तराशने में मदद मिलती'. एनएसडी में एडमिशन नहीं मिला तो मनोज ने देवेन्द्र राज अंकुर के नेतृत्व में चल रहे एनएसडी पासआउट के समूह 'सम्भव' को ज्वॉइन किया. 'सम्भव' का नाटक  'अपना मोर्चा' बेहद चर्चित रहा था, जिसमें मनोज ने अभिनय किया था.  

एक्टर के लिए अनुशासन को मनोज बाजपेयी जरूर बताते हैं. उनका कहना था कि 'मैंने जीवन में अनुशासन का पालन किया है. अभिनेता बनना है तो आपकी सुबह रिहर्सल से शुरू होनी चाहिए, शिकायत से नहीं. ये आपकी जीवनशैली है, जिससे आप किसी दूसरे व्यक्ति या अभिनेता से अलग दिखते हैं'. अभिनेता को प्रेरणा बदलती रहनी चाहिए. जीवन के इतने रूप में किसी एक रोल मॉडल से काम नहीं चल सकता, इसलिए उन्होंने कहा कि अभिनय की मांग के आधार पर मेरे रोल मॉडल बदलते रहे हैं'.  
 
सिनेमा या थियेटर के लिए डायरेक्टर की भूमिका को अहम बताते हुए उन्‍होंने कहा कि मेरे लिए कैरेक्टराइजेशन की-प्वाइंट रहा है. निर्देशक मेरे लिए सुप्रीम है. एक्टर को अपने काम से उसके विजन को एक्सटेंड करना चाहिए. एक्टर वह है जो निर्देशक को निगेट न करे'.

सिनेमा की सीमा बताते हुए मनोज बाजपेयी ने देश में सेंसर बोर्ड पर चल रही बहस पर भी अपना मत प्रकट किया. उन्‍होंने कहा कि 'सेंसर बोर्ड बहुत अलोकतांत्रिक है, हमारे जैसे लोकतंत्र में. फिल्मों को आयुवर्ग के अनुसार रेट करना चाहिए और बोर्ड को केवल सर्टिफिकेट देने चाहिए. अभिभावक बेहतरीन सेंसर होते हैं, अगर वो काम नहीं करते तो सेंसर भी नहीं कर सकेगा. इस डिजिटल समय में सेंसर अपना महत्‍व खो चुका है'.

मनोज बाजेपयी ने एक बहुत जरूरी बात कही कि 'सिनेमा और नाटकों में हम रियलिज्‍़म शब्द पर बहुत जोर देते हैं. हम कैरेक्टर को भूलते जा रहे हैं.रियलिज्म के नाम पर देश में बहुत बड़ा फ्रॉड चल रहा है.


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