करीना कपूर और अर्जुन कपूर - फिल्म के दृश्य से ली गई तस्वीर...
मुंबई:
फिल्म 'की एंड का' के डायरेक्टर हैं आर बाल्की और 'की' यानी किया हैं, करीना कपूर और 'का' यानी कबीर हैं अर्जुन कपूर। फिल्म में इनके साथ हैं रजित कपूर, स्वरूप संपत साथ में मेहमान भूमिका में हैं, अमिताभ बच्चन और जया बच्चन।
फिल्म की कहानी में करीना कपूर एक कामकाजी महिला हैं, जो अपनी मां के साथ रहती हैं और अर्जुन कपूर एक बहुत बड़े बिजनेसमैन के बेटे हैं। अर्जुन कपूर यानी कबीर का जिंदगी को लेकर फलसफ़ा कुछ और ही है। वह न तो अपने पिता के बिजनेस से जुड़ना चाहते हैं और न ही कोई और काम करना चाहते हैं। वह अपनी मां जैसा बनना चाहते हैं यानी घर संभालना चाहते हैं और जब किया यानी करीना की मुलाकात कबीर से होती है तो दोनों एक-दूसरे को शादी के लिए बिलकुल सटीक लगते हैं।
शादी हो जाती है, लेकिन फिर इनकी ज़िंदगी में अभिमान और ईर्ष्या जैसे विलेन आते हैं। आगे की कहानी सिनेमा हॉल में टिकट लेकर देखें तो बेहतर होगा।
अब फिल्म के बारे में मेरी राय जिसमें सबसे पहले बात खामियों की। पहली खामी फिल्म का शुरुआती हिस्सा जहां निर्देशक आर बाल्की कबीर की फ़िलॉसफ़ी दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं, जो किसी स्कूल की क्लास जैसा लगता है।
इसे कहने के तरीके की बजाय बहुत ज्यादा बातचीत के कुछ और हो सकता था। फिल्म की स्क्रिप्टिंग और स्क्रिनप्ले में थोड़ा और गहराई में जाने की ज़रूरत थी। फ़िल्म के कई सीन्स में टॉय ट्रेन्स का काफ़ी इस्तेमाल हुआ है। यहां तक इनका घर भी किसी प्लेटफ़ार्म से कम नहीं लगता।
फिल्म की फ़िलॉसफ़ी के हिसाब से ट्रेन्स का इस्तेमाल मुझे समझ आया, यानी जिंदगी की गाड़ी दो पटरियों के बिना नहीं चलेगी। पति और पत्नी पर सेट या बाकी का तामझाम फ़िल्म के विषय पर हावी होता दिखा। तो ये थीं फिल्म की खामियां।
अब बात खूबियों की, जिसमें सबसे पहले बात फिल्म के विषय की जेंडर इक्वालिटी यानी लिंग समानता अपने आपमें एक बड़ी बहस का विषय रहा है। उसको इस तरह फिल्म में ढालना अपने आप में काबिल-ए-तारीफ है, वह भी तब जब आज शहरों में कामकाजी महिलाओं का संख्या काफी बढ़ी है।
हर घर में घर संभालने को लेकर बहस है, दूसरी बात आर बाल्की ने यह कहानी उन महिलाओं पर फोकस करने की कामयाब कोशिश की है, जो घर संभालती हैं, यानी हाउस वाइफ़्स हैं, जिनके काम को कामकाजी समाज अनदेखा करता है।
आर बाल्की हाउस वाइफ को आर्टिस्ट बताते हैं। अभिनय की बात करें तो करीना कपूर का सधा हुआ और अच्छा अभिनय है। वहीं अर्जुन कपूर भी अपने किरदार में एकदम फिट हैं। फिल्म में कई जगह परिस्थति के हिसाब से वह अपनी बॉडी लैंग्वेज का अच्छे से इस्तेमाल करते हैं। स्वरूप संपत काफी दिनों के बाद नज़र आईं। उनका किरदार लिखाई में थोड़ा अटपटा जरूर लगता है, पर उनका काम अच्छा है।
फ़िल्म का गाना 'जी हजूरी' और 'मोस्ट वांटेड मुंडा' जबान पर ठहरते हैं और अच्छे हैं। यह फिल्म आपको हंसाती भी है और चुटकी भी लेती है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और जया दोनों को एक साथ देखकर अच्छा लगता है। साथ ही इन दोनों का सीन भी आपको अच्छा लगेगा तो कुल मिलाकर 'की एंड का' एक देखने लायक फिल्म है, पर यह उम्मीद न लेकर जाएं कि आप कुछ गहरी फिलॉसफी वाली फिल्म देखने जा रहे हैं। इस फिल्म में हल्के-फुल्के मनोरंजन के साथ थोड़ा-सा जिंदगा का फ़लसफा है और मेरी ओर से इस फिल्म को 3 स्टार्स।
फिल्म की कहानी में करीना कपूर एक कामकाजी महिला हैं, जो अपनी मां के साथ रहती हैं और अर्जुन कपूर एक बहुत बड़े बिजनेसमैन के बेटे हैं। अर्जुन कपूर यानी कबीर का जिंदगी को लेकर फलसफ़ा कुछ और ही है। वह न तो अपने पिता के बिजनेस से जुड़ना चाहते हैं और न ही कोई और काम करना चाहते हैं। वह अपनी मां जैसा बनना चाहते हैं यानी घर संभालना चाहते हैं और जब किया यानी करीना की मुलाकात कबीर से होती है तो दोनों एक-दूसरे को शादी के लिए बिलकुल सटीक लगते हैं।
शादी हो जाती है, लेकिन फिर इनकी ज़िंदगी में अभिमान और ईर्ष्या जैसे विलेन आते हैं। आगे की कहानी सिनेमा हॉल में टिकट लेकर देखें तो बेहतर होगा।
अब फिल्म के बारे में मेरी राय जिसमें सबसे पहले बात खामियों की। पहली खामी फिल्म का शुरुआती हिस्सा जहां निर्देशक आर बाल्की कबीर की फ़िलॉसफ़ी दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं, जो किसी स्कूल की क्लास जैसा लगता है।
इसे कहने के तरीके की बजाय बहुत ज्यादा बातचीत के कुछ और हो सकता था। फिल्म की स्क्रिप्टिंग और स्क्रिनप्ले में थोड़ा और गहराई में जाने की ज़रूरत थी। फ़िल्म के कई सीन्स में टॉय ट्रेन्स का काफ़ी इस्तेमाल हुआ है। यहां तक इनका घर भी किसी प्लेटफ़ार्म से कम नहीं लगता।
फिल्म की फ़िलॉसफ़ी के हिसाब से ट्रेन्स का इस्तेमाल मुझे समझ आया, यानी जिंदगी की गाड़ी दो पटरियों के बिना नहीं चलेगी। पति और पत्नी पर सेट या बाकी का तामझाम फ़िल्म के विषय पर हावी होता दिखा। तो ये थीं फिल्म की खामियां।
अब बात खूबियों की, जिसमें सबसे पहले बात फिल्म के विषय की जेंडर इक्वालिटी यानी लिंग समानता अपने आपमें एक बड़ी बहस का विषय रहा है। उसको इस तरह फिल्म में ढालना अपने आप में काबिल-ए-तारीफ है, वह भी तब जब आज शहरों में कामकाजी महिलाओं का संख्या काफी बढ़ी है।
हर घर में घर संभालने को लेकर बहस है, दूसरी बात आर बाल्की ने यह कहानी उन महिलाओं पर फोकस करने की कामयाब कोशिश की है, जो घर संभालती हैं, यानी हाउस वाइफ़्स हैं, जिनके काम को कामकाजी समाज अनदेखा करता है।
आर बाल्की हाउस वाइफ को आर्टिस्ट बताते हैं। अभिनय की बात करें तो करीना कपूर का सधा हुआ और अच्छा अभिनय है। वहीं अर्जुन कपूर भी अपने किरदार में एकदम फिट हैं। फिल्म में कई जगह परिस्थति के हिसाब से वह अपनी बॉडी लैंग्वेज का अच्छे से इस्तेमाल करते हैं। स्वरूप संपत काफी दिनों के बाद नज़र आईं। उनका किरदार लिखाई में थोड़ा अटपटा जरूर लगता है, पर उनका काम अच्छा है।
फ़िल्म का गाना 'जी हजूरी' और 'मोस्ट वांटेड मुंडा' जबान पर ठहरते हैं और अच्छे हैं। यह फिल्म आपको हंसाती भी है और चुटकी भी लेती है। फिल्म में अमिताभ बच्चन और जया दोनों को एक साथ देखकर अच्छा लगता है। साथ ही इन दोनों का सीन भी आपको अच्छा लगेगा तो कुल मिलाकर 'की एंड का' एक देखने लायक फिल्म है, पर यह उम्मीद न लेकर जाएं कि आप कुछ गहरी फिलॉसफी वाली फिल्म देखने जा रहे हैं। इस फिल्म में हल्के-फुल्के मनोरंजन के साथ थोड़ा-सा जिंदगा का फ़लसफा है और मेरी ओर से इस फिल्म को 3 स्टार्स।
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