इस शुक्रवार रिलीज़ हुई है फिल्म 'हवा हवाई', जिसकी कहानी एक गरीब बच्चे की है, जो चाय के ढाबे पर काम करता है... जैसे ही वह रईस घराने के बच्चों को स्केटिंग करते हुए देखता है, उसकी आंखों में भी नए सपने जागने लगते हैं और फिर शुरू होती है, जागती आंखों से देखे गए उन सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद... स्केटिंग के इस सपने को पूरा करने में उसका साथ देते हैं एक स्केटिंग शिक्षक और सड़क के चार गरीब बच्चे, जो उसके दोस्त हैं...
निर्देशक अमोल गुप्ते ने पहले 'तारे ज़मीं पर' की थी, जिसमें बच्चों की शिक्षा के बारे में दिखाया गया... उसके बाद अमोल गुप्ते ने 'स्टैनली की डिब्बा' बनाई, जिसमें उन्होंने फिर बच्चों की कहानी पर ही ज़ोर दिया... अब एक बार फिर अमोल गुप्ते बच्चों के सपनों को फिल्म 'हवा हवाई' के जरिये सामने लाए हैं... साफ दिखता है कि अमोल न सिर्फ बच्चों के मुद्दों को उजागर कर रहे हैं, बल्कि उन्हें अपनी फिल्म के जरिये बेहतरीन तरीके से समझाते भी हैं...
सड़क के गरीब बच्चे किस तरह मेहनत-मज़दूरी कर स्केटिंग के जूते बनाते हैं... किस तरह एक शिक्षक स्केटिंग की ट्रेनिंग देता है... और इसके अलावा एक मां और बच्चे के बीच जज़्बाती रिश्ता और मासूम बच्चों के बीच बेजोड़ दोस्ती... ये सब भावनाएं बेहद खूबसूरती से अमोल ने पर्दे पर उतारी हैं...
फिल्म के पहले सीन में ही गाना शुरू हो जाता है, "चूल्हे के अंगारे जैसे पहले तड़पते हाथों को तब नसीब रोटी होती है, जीवन सार यही है, तू डर न, अंगार पर चल, यही जीवन ज्योति है..." यानि यह फिल्म संदेश देती है कि दुख के बाद ही सुख है और कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती...
कुल मिलाकर 'हवा हवाई' एक खूबसूरत फिल्म है, जिसमें रिश्ते, जज़्बात, मासूमियत और जागती आंखों से आसमान छूने का जुनून नज़र आता है... मुझे लगता है कि ऐसी फिल्में बननी चाहिए और ऐसी फिल्मों को प्रोत्साहन मिलना बेहद ज़रूरी है... मेरी तरफ से फिल्म की रेटिंग है - 4 स्टार...
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