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Explainer अथ श्री महाकुंभ कथा... समुद्र मंथन से प्रयागराज तक, कुंभ और उसके अखाड़ों की संपूर्ण कथा जानिए

Mahakumbh 2025: इतिहास में कुंभ मेले का वर्णन सबसे पहले क़रीब 1400 साल पूर्व मिलता है. चीनी यात्री ह्वेनसांग की किताब शि-यू-की में कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण मिला. ह्वेनसांग 630 से 645 ईसवी में भारत आए थे. तब राजा हर्षवर्धन का दौर था. 644 ईसवी में ह्वेनसांग राजा हर्षवर्धन से मिलने गए तो उन्होंने एक ऐसा सांस्कृतिक आध्यात्मिक मेला देखा कि चकित रह गए थे.

महाकुंभ के बारे में डिटेल में जानिए.

प्रयागराज:

दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक-आध्यात्मिक-सांस्कृतिक आयोजन महाकुंभ प्रयागराज (Mahakumbh 2025) में शुरू हो चुका है. देश और दुनिया से करोड़ों श्रद्धालु मोक्ष प्राप्ति की कामना लिए प्रयागराज में मौजूद हैं या फिर प्रयागराज की ओर चल पड़े हैं. करोड़ों लोग आने वाले दिनों में प्रयागराज पहुंचने की तैयारी कर रहे हैं. 13 जनवरी से शुरू हुआ महाकुंभ 26 फरवरी तक चलेगा. इस दौरान कुल छह बड़े स्नान होंगे और अनुमान है कि क़रीब 40 करोड़ श्रद्धालु 45 दिन चलने वाले इस धार्मिक-आध्यात्मिक समागम में हिस्सा लेंगे. धार्मिक उल्लास, आध्यात्मिक रहस्यों और सांस्कृतिक विविधताओं से भरे इस महाकुंभ के बारे में डिटेल में जानिए.

महाकुंभ की महाकवरेज यहां देखिए

संगम में आस्था की डुबकी

प्रयागराज महाकुंभ का मुख्य स्नान 13 जनवरी से शुरू हुआ. पौष पूर्णिमा के पवित्र स्नान के लिए देश-दुनिया के कोने-कोने से श्रद्धालु प्रयागराज पहुंचे और अध्यात्म के इस महासरोवर में आस्था की डुबकी लगाई.जानकारी के मुताबिक महाकुंभ के पहले ही पवित्र स्नान में क़रीब डेढ़ करोड़ श्रद्धालुओं ने प्रयागराज में गंगा, यमुना और मिथकीय नदी सरस्वती के संगम पर पवित्र डुबकी लगाई और ये सिलसिला अनवरत जारी है. संगम का घाट श्रद्धालुओं की पवित्र आस्था का जीता जागता प्रमाण है. संगम तट पर एक पल के लिए भी श्रद्धालुओं की तादाद कम नहीं हो रही और ये सिलसिला आने वाले डेढ़ महीने तक चलता ही रहेगा.

कुंभ मेले का ये अद्भुत आकर्षण पूरी दुनिया को अपने सम्मोहन में ले चुका है. यही वजह है कि साल 2017 में यूनेक्को ने कुंभ मेले को 'मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत' की सूची में शामिल किया था. ये सूची दुनिया भर में अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों को बेहतर तरीके से संरक्षित करने और उनके महत्व के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए बनाई गई है.

महाकुंभ में 3 अमृत स्नान

मानवता की इस अमूर्त विरासत महाकुंभ के तहत इस बार छह मुख्य स्नान हैं. इनमें से तीन अमृत स्नान हैं जो साधु-संन्यासियों के अखाड़ों के शाही स्नान के साथ शुरू होते हैं. इसके अलावा तीन कुंभ स्नान हैं. 13 जनवरी को पौष पूर्णिमा के साथ महाकुंभ का पहला स्नान हो चुका है. इसके साथ ही कुंभ में आध्यात्मिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कल्पवास का समय शुरू हो चुका है.

  1. 14 जनवरी को मकर संक्रांति के मौके पर सूर्य के उत्तरायण होने के साथ महाकुंभ का पहला अमृत स्नान है जो साधु संन्यासियों के अखाड़ों के शाही स्नान के साथ शुरू होगा. अखाड़ों के शाही स्नान के बाद ही आम श्रद्धालु संगम तट पर पवित्र डुबकी लगाने के लिए उतरते हैं.
  2. 29 जनवरी को मौनी अमावस्या के दिन दूसरा शाही स्नान है या अमृत स्नान है.कुंभ में डुबकी लगाने के लिए इससे सबसे पवित्र दिन माना जाता है.
  3. 3 फरवरी को बसंत पंचमी को तीसरा शाही स्नान होगा. शीत ऋतु के ख़त्म होने और बसंत ऋतु के आरंभ के इस पवित्र दिन लोग पीले वस्त्रों के साथ संगम के तट पर एक अद्भुत आभा पेश करेंगे. 12 फरवरी को संगम तट पर माघी पूर्णिमा का स्नान होगा. 26 फरवरी को महाशिवरात्रि के मौके पर महाकुंभ में स्नान का आख़िरी बड़ा दिन होगा.
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कहां-कहां होता है महाकुंभ या कुंभ?

अब सवाल ये है कि आख़िर इन कुछ दिनों में ऐसा क्या है कि करोड़ों श्रद्धालु पवित्र स्नान के लिए उमड़ पड़ते हैं और महाकुंभ या कुंभ पर ही ऐसा क्यों होता है. इसके लिए हमें हिंदू पौराणिक मान्यताओं की ओर जाना होगा.  सबसे पहले तो ये जान लें कि कुंभ मेला भारत में चार जगहों पर होता है. हर बारह साल पर प्रयागराज में संगम तट, हरिद्वार में गंगा तट, नासिक में गोदावरी के तट और उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर कुंभ का आयोजन होता है. इस तरह से हर तीन साल में इन चार में से किसी एक जगह पर कुंभ का आयोजन होता है. प्रयागराज और हरिद्वार में हर छह साल पर अर्द्ध कुंभ भी होता है. अब सवाल ये कि कुंभ इन चार स्थानों पर ही क्यों होता है. इसके लिए हमें समुद्र मंथन के पौराणिक आख्यान को जानना होगा.

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कुंभ का पौराणिक महत्व जानिए

 कुंभ का संस्कृत में अर्थ है घड़ा... हिंदू पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक धन धान्य की देवी श्रीलक्ष्मी की प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन किया गया. महर्षि दुर्वासा के एक शाप के कारण देवताओं के राजा इंद्र का धन धान्य, ऐश्वर्य समाप्त हो चुका था. ऐसे में भगवान विष्णु ने उन्हें देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन की सलाह दी. इस समुद्र मंथन से देवी श्रीलक्ष्मी समेत 14 वस्तुएं निकलीं.जैसे कामधेनु, कल्पवृक्ष, हलाहल और अमृत... जैसे ही अमृत निकला उसे पाने के लिए देवताओं और असुरों में होड़ मच गई. इंद्र का बेटा जयंत असुरों से बचाकर अमृत कुंभ को ले भागा. जयंत की इस यात्रा के दौरान चार जगहों पर कुंभ से अमृत छलक गया. ये हैं प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन. तब से ही इन चार जगहों पर कुंभ मेले का आयोजन किया जाता है.

 जिन जगहों पर नदियों में अमृत की बूंदें गिरीं वहां सूर्य, चंद्र और बृहस्पति के विशेष राशियों में आने के दौरान कुंभ स्नान किया जाता है. यहां इन मौकों पर स्नान को पापों से मुक्ति और पुण्य की प्राप्ति के तौर पर देखा जाता है. मेले भारत की हज़ारों वर्ष की आध्यात्मिक यात्रा के साथ साथ चलते रहे हैं. लेकिन कुंभ मेला कब शुरू हुआ इसका ठीक-ठीक अनुमान नहीं है. ऋग्वेद और स्कंद पुराण में ऐसे ही बड़े मेलों का ज़िक्र मिलता है लेकिन वो कुंभ मेले थे या नहीं इसे लेकर इतिहासकार एक राय नहीं हैं.

कुंभ एक्सप्लेनर शो से ली गई तस्वीर.

कुंभ एक्सप्लेनर शो से ली गई तस्वीर.

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी की थी कुंभ की तारीख

इतिहास में कुंभ मेले का वर्णन सबसे पहले क़रीब 1400 साल पूर्व मिलता है. चीनी यात्री ह्वेनसांग की किताब शि-यू-की में कुंभ मेले का पहला लिखित प्रमाण मिला. ह्वेनसांग 630 से 645 ईसवी में भारत आए थे. तब राजा हर्षवर्धन का दौर था. 644 ईसवी में ह्वेनसांग राजा हर्षवर्धन से मिलने गए तो उन्होंने एक ऐसा सांस्कृतिक आध्यात्मिक मेला देखा कि चकित रह गए. तब प्रयागराज में त्रिवेणी के संगम पर श्रद्धालुओं का मेला चल रहा था. हालांकि कई इतिहासकार मानते हैं कि वो माघ मेला था. जो भी हो इस मेले में ह्वेनसांग को भारत के लोगों, उनकी मान्यताओं, उनकी संस्कृति को क़रीब से देखने समझने का मौका मिला.

 ह्वेनसांग के अनुमान के मुताबिक उस कुंभ में क़रीब पांच लाख श्रद्धालु आए थे, जिनमें कई राजा और उनके परिवार भी शामिल थे. राजा हर्षवर्धन अपनी दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे. कुंभ के दौरान खुल कर धन-संपदा दान ग़रीबों को दान कर दिया करते थे. उसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए इस बार के महाकुंभ में कई दानकेंद्र स्थापित किए गए हैं जहां श्रद्धालु समाज के हाशिए पर रह रहे लोगों के हित में दान कर सकते हैं.

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कहा जाता है कि इसके बाद आठवीं सदी में महान हिंदू दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने चार स्थानों पर कुंभ मेले के आयोजन को औपचारिक रूप प्रदान किया. उनकी कोशिश रही कि ऐसे बड़े मेले दार्शनिक चर्चा और विचार विमर्श का केंद्र बनें. कुछ इतिहासकार कुंभ मेले को 12वीं सदी के भक्ति आंदोलन से भी जोड़ कर देखते हैं.

ब्रिटिश रिकॉर्ड्स में प्रयाग के कुंभ मेले का पहला ज़िक्र

आज़ादी से पहले ब्रिटिश रिकॉर्ड्स में प्रयाग के कुंभ मेले का पहला ज़िक्र 1868 में मिलता है, जिसमें कि श्रद्धालुओं की संख्या को देखते हुए साफ़-सफ़ाई के इंतज़ामों की ज़रूरत का ज़िक्र किया गया. 1838 से पहले ब्रिटिश अधिकारी श्रद्धालुओं से टैक्स वसूला करते थे लेकिन उनके लिए कोई इंतज़ाम नहीं करता था. लेकिन 1857 के गदर के बाद ये बदल गया. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक कुंभ मेले लोगों को सामाजिक-राजनीतिक तौर पर भी जागरूक कर रहे थे. इसे देखते हुए ब्रिटिश अधिकारियों इन पर क़रीबी निगाह रखनी शुरू की. इसके साथ ही मेलों के प्रबंधन और साफ़-सफ़ाई पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया.

 उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब तक कुंभ मेलों के इंतज़ामों को ब्रिटिश हुकूमत ने अपने हाथ में नहीं लिया तब तक कुंभ मेलों में श्रद्धालुओं के लिए इंतज़ामों का काम साधु-संन्यासियों के अखाड़ों के हाथ में होता था. साधु-संन्यासियों के ये अखाड़े कुंभ का सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं. कुंभ के अमृत स्नानों में सबसे पहले इन अखाड़ों का ही शाही स्नान होता है. माना जाता है कि नागा साधुओं को उनकी धार्मिक निष्ठा के कारण सबसे पहले स्नान का मौका दिया जाता है. पूरे राजसी ठाठबाट के साथ हाथी, घोड़ों और रथों पर सवार अखाड़ों के साधु शाही स्नान के लिए आते हैं. ये भी माना जाता है कि पुराने दौर में राजा-महाराजा साधु संतों के साथ भव्य जुलूस में स्नान के लिए निकलते थे. साधु-संन्यासियों के शाही स्नान को देखने, उनका आशीर्वाद लेने के लिए करोड़ों श्रद्धालु कुंभ में पहुंचते हैं.

अखाड़ों का इतिहास जानिए

साधु-संन्यासियों के इन अखाड़ों का इतिहास भी बहुत दिलचस्प है. अखाड़ा शब्द का अर्थ है कुश्ती की जगह. ये भी मान्यता है कि अखाड़ा व्यवस्था आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य ने स्थापित की. उन्होंने साधु-संन्यासियों के बीच एक योद्धा वर्ग भी स्थापित किया जो विदेशी आंक्रांताओं से लोहा ले सके. शुरुआत में चार अखाड़े थे जिनकी संख्या समय के साथ-साथ अब 13 हो गई है.

  • इनमें सात अखाड़े संन्यासी संप्रदाय के हैं... ये हैं जूना अखाड़ा, आवाहन अखाड़ा, अग्नि अखाड़ा, निरंजनी अखाड़ा, आनंद अखाड़ा, निर्वाणी अखाड़ा और अटल अखाड़ा.
  • वैष्णव संप्रदाय के तीन अखाड़े हैं... निर्मोही अखाड़ा, दिगंबर अखाड़ा और निर्वाणी अणि अखाड़ा...
  •  तीन अखाड़े ऐसे हैं जो गुरु नानक देव की आराधना करते हैं... ये हैं बड़ा उदासीन अखाड़ा, नया उदासीन अखाड़ा और निर्मल अखाड़ा...
  •  इन सभी अखाड़ों के प्रबंधन, उनके बीच सामंजस्य बनाने और विवादों को हल करने का काम अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद करता है, जिसकी स्थापना 1954 में की गई.
  •  अखाड़ों के अध्यक्ष को सभी 13 अखाड़ों के बीच मतदान से चुना जाता है. इनमें सबसे बड़ा है श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा,  जिसका मुख्यालय वाराणसी में है. ये शैव अखाड़ा है जिसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने की. ये अखाड़ा आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों द्वारिका, पुरी, श्रंगेरी और ज्योतिर्मठ से जुड़ा है. इनके इष्ट देव भगवान दत्तात्रेय हैं.
  • दूसरा अखाड़ा है श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी जिसका मुख्यालय इलाहाबाद के दारागंज में है. ये भी शैव संप्रदाय का है.  माना जाता है कि 904 ईसवी में गुजरात के मांडवी में इसकी स्थापना हुई, ये दूसरा सबसे बड़ा अखाड़ा है.
  •  तीसरा अखाड़ा है श्री शंभू पंचायती अटल अखाड़ा. इसका मुख्यालय वाराणसी में है और ये भी शैव संप्रदाय का है.
  • चौथा अखाड़ा है श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी. इसका मुख्यालय इलाहाबाद में है. ये भी शैव अखाड़ा है.
  •  पांचवां अखाड़ा है श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन. इसका मुख्यालय भी इलाहाबाद में है.इसके अनुयायी सिखों के पहले गुरू गुरू नानक देवजी के बड़े बेटे श्रीचंद्रजी हैं.
  •  छठा अखाड़ा है श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन जिसका मुख्यालय हरिद्वार में है. ये उदासीन संप्रदाय के हैं. ये बड़ा उदासीन अखाड़ा से अलग होकर बना. ये अखाड़ा श्री चंद्र भगवान का अनुयायी है.
  • सातवां अखाड़ा है श्री पंच निर्मोही अणि अखाड़ा... इसका मुख्यालय हरिद्वार में है... इसके अनुयायी वैष्णव हैं... निर्मोही अखाड़ा भगवान हनुमान की पूजा करता है...
  • आठवां अखाड़ा है श्री पंच दिगंबर अणि अखाड़ा... इसका मुख्यालय भी हरिद्वार में है... ये भी वैष्णव है...
  • नौवां अखाड़ा है श्री पंच निर्वाणी अणि अखाड़ा... इसका मुख्यालय भी हरिद्वार में है... ये भी वैष्णव अखाड़ा है...
  •  दसवां अखाड़ा है श्री पंचायती अखाड़ा निर्मला... इसका मुख्यालय भी हरिद्वार में है... ये निर्मल संप्रदाय का अखाड़ा है... इसकी स्थापना 1856 में दुर्गा सिंह महाराज ने की थी... इस अखाड़े का भी सिख धर्म से क़रीबी नाता है...
  •  ग्यारहवां अखाड़ा है श्री शंभू पंचगनी अखाड़ा... इसका मुख्यालय गुजरात के जूनागढ़ में है... ये शैव अखाड़ा है...
  • बारहवां अखाड़ा है श्री पंजदशनाम आव्हान अखाड़ा... इसका मुख्यालय हरिद्वार में है... ये भी शैव है..
  • तेरहवां अखाड़ा है तपोनिधि श्री आनंद अखाड़ा पंचायती... इसका मुख्यालय महाराष्ट्र के नासिक में है... ये भी शैव अखाड़ा है..
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कुंभ का सामाजिक और आर्थिक महत्व

 महाकुंभ में साधु-संन्यासियों ये अखाड़े महाकुंभ में जब प्रवेश करते हैं तो बड़ी ही शानो शौकत और शक्ति के प्रदर्शन के साथ निकलते हैं.कुंभ क्षेत्र में जहां ये अखाड़े स्थापित होते हैं उन्हें छावनी कहा जाता है. कुंभ का धार्मिक-आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व तो है ही, आर्थिक महत्व भी कम नहीं. करोड़ों श्रद्धालुओं की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए व्यापार और कारोबार की दुनिया भी यहां मौजूद रहती है.

 उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रयागराज महाकुंभ में श्रद्धालुओं की सुविधाओं के लिए 549 परियोजनाओं को अंजाम दिया है, जिनके तहत बुनियादी सुविधाओँ से लेकर साफ़-सफ़ाई तक की सुविधाएं हैं. इसके लिए 6990 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है. मेला अधिकारियों का अनुमान है कि महाकुंभ से राज्य सरकार को 25,000 करोड़ का राजस्व मिलेगा और उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर इसका कुल असर क़रीब 2 लाख करोड़ का पड़ेगा.

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