
बात साल 1999 की है. मुंबई के सेशंस कोर्ट में एक जज साहब थे. रोजाना कोर्ट में अपराधियों से जुड़े मामले सुना करते थे. किसी को जेल भेजते थे तो किसी को जमानत देते थे. किसी को बरी करते थे तो किसी को सजा सुनाते थे. तारीख पर न हाजिर होने पर कभी पुलिस को फटकारते थे तो कभी वकीलों को, बड़ा रुतबा था उनका. अदालत के गलियारों में जब वे चलते तो वहां मौजूद लोग उन्हें रास्ता देते और अगल-बगल में सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते. एक दिन इन्हीं जज साहब के गुमशुदा होने की खबर आती है. कई दिनों की खोजबीन के बाद ये पुलिस के हाथ लगते हैं और पुलिस इन्हें पकड़कर उसी अदालत के उस कठघरे में खड़ा कर देती है, जिनमें मौजूद आरोपियों की किस्मत का फैसला वे रोजाना किया करते थे. आरोपियों को जेल भेजने वाला जज आखिर खुद आरोपियों के कठघरे में क्यों खड़ा हो गया?
दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के घर से बड़े पैमाने पर नकदी मिलने की खबर आने के बाद से न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर चर्चा हो रही है. न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. लोग मजाक में कह रहे हैं कि अदालत में मुकदमा जीतना हो तो वकील क्यों करते हो, जज कर लो. ऐसा ही एक मामला अब से 27 साल पहले मुंबई में भी सामने आया था, जब न्यायपालिका की पवित्रता पर आंच आयी थी और इंसाफ के आसन पर विराजमान एक शख्स पर अंडरवर्ल्ड से सांठगांठ के आरोप लगे थे, चूंकि उस मामले में गिरफ्तार जज बरी हो गए थे, इसलिए यहां उनका असली नाम नहीं बताऊंगा. चलिए, इस कहानी की खातिर उनका काल्पनिक नाम रख लेते हैं सरदार शर्मा.

90 का दशक मुंबई में कानून व्यवस्था के लिहाज से सबसे बुरा दौर था. दशक की शुरुआत में 2 बार सांप्रदायिक दंगे हुए, पूरे देश को दहला देने वाला बमकांड हुआ और इसी दौरान मुंबई अंडरवर्ल्ड भी शहर पर हावी हो गया. जेजे अस्पताल के शूटआउट में करीब 500 राउंड गोलियां चलीं. गैंगस्टर रोजाना बिल्डरों, मिल मालिकों, बार मालिकों, कारोबारियों और फिल्मकारों को जबरन उगाही के लिए फोन करते थे. जो पैसे नहीं देता था, उसको मार दिया जाता था. इन गिरोहों के बीच आपसी गैंगवार भी चलता था, जिस वजह से मुंबई की सड़कें आए दिन लाल हो जाया करतीं थीं. शहर को इस हालात से उबारने के लिए मुंबई पुलिस ने भी एक आक्रामक मुहिम शुरू की. गैंगस्टरों से संपर्क ऱखने वालों की निगरानी शुरू की गई. एनकाउंटर्स में कई गैंगस्टर्स का काम तमाम किया गया. महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण कानून यानी मकोका जैसा सख्त कानून बनाया गया, जिसके तहत हजारों गैंगस्टरों की गिरफ्तारी हुई.

मामला बड़ा दिलचस्प था. जो जज सरदार शर्मा दूसरों को इंसाफ बांटते थे वो अपने लिए एक अंडरवर्ल्ड डॉन से इंसाफ की दरकार कर रहे थे. ये बातचीत वकील लियाकत के मोबाईल फोन से हुई थी. जब लियाकत ने शर्मा को फोन थमाया तो वो छोटा शकील से गिड़गिड़ा कर बताने लगे कि सायन इलाके में दारा नाम के एक चिटफंड चलाने वाले शख्स ने उसके 40 लाख रुपये लिए हैं. जज शर्मा के मुताबिक ये पैसा उसके परिवारवालों का था. उन्होंने शकील से पैसा वापस पाने के लिए मदद मांगी.
एक जज उसके सामने मदद की गुहार लगा रहा है, ये सुनहरा मौका शकील कैसे छोड़ता. उसने जज को भरोसा तो दिलाया कि वो उनका काम कर देगा, लेकिन बदले में अपनी भी एक मांग रख दी.

इस बातचीत के अलावा छोटा शकील और लियाकत की बातचीत भी पुलिस ने सुनी. पता चला कि शकील ने चिट फंड ऑपरेटर से जज शर्मा का आधा पैसा वसूल लिया था. शकील बातचीत में जज को बड़ा कालाकोट कहकर संबोधित कर रहा था. पुलिस ने जब जज शर्मा की ओर से दिए गए फैसलों को खंगाला तो पता चला कि उन्होंने डी कंपनी के दो शूटरों को बरी कर दिया था.
मुंबई पुलिस के लिए ये एक बड़ी दुखद स्थिति थी. एक तरफ पुलिस दिन-रात एक करके शूटरों को पकड़ती थी, तो दूसरी तरफ शर्मा जैसे भ्रष्ट जज उसके किए का मटियामेट कर रहे थे. बॉम्बे हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस के संज्ञान में पूरा मामला लाया गया, जिसके बाद मकोका कानून के तहत मामला दर्ज हुआ. इस मामले में एक अहम कड़ी वकील लियाकत शेख था. जज को गिरफ्तार करने से पहले उसे गिरफ्तार किया जाना जरूरी था, लेकिन इससे पहले कि पुलिस उसे गिरफ्तार कर पाती, 17 नवंबर 1999 को मुंबई के गोरेगांव स्टेशन के बाहर उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई.

6 अगस्त 2002 को फैसले की तारीख मुकर्रर की गई. सभी को अंदाजा था कि मुंबई के इतिहास में पहली बार किसी जज को अंडरवर्ल्ड से सांठगांठ के आरोप में सजा सुनाई जाएगी, लेकिन जब फैसला आया तो सभी दंग रह गए. विशेष मकोका जज अभय ठिपसे ने सरदार शर्मा को बरी कर दिया. उन्होंने छोटा शकील से कथित बातचीत के टेप को सबूत मानने से इनकार दिया, क्योंकि टेलिफोन पर बातचीत रिकॉर्ड करने के लिए जरूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था. उन्होंने पाया कि पुलिस के केस में कई तकनीकी खामियां थीं. इसके अलावा वकील लियाकत शेख, जो कि जज शर्मा और छोटा शकील के बीच अहम लिंक था, उसका बयान भी पुलिस अदालत के सामने नहीं रख पायी, क्योंकि उसकी हत्या हो गई थी. इसके अलावा शर्मा की स्टेनोग्राफर, जिसे पुलिस ने अपना गवाह बनाया था, अदालत में मुकर गई.
इस तरह सबूतों और गवाहों के अभाव में जज शर्मा तो कानून की नजर में बेगुनाह साबित हो गए, लेकिन इस कहानी से ये पता चलता है कि अंडरवर्ल्ड ने मुंबई में जड़ें इतनी गहरी जमा ली थी कि वो अपने लोगों को बचाने के लिए अदालती फैसले भी बदलवा सकता था.
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