भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 10 साल पूरे कर लिए हैं, और आज बेशक वह दौलत, शोहरत और सफलता के शिखर पर हैं, लेकिन इस ऊंचाई के पीछे वर्षों का कड़ा संघर्ष छिपा है... डीएवी के एक स्कूली छात्र से लेकर 'रांची का राजकुमार' और फिर वर्ल्ड चैम्पियन बनने तक का सफर किसी दंतकथा से कम नहीं है...
बात करीब 33 साल पुरानी है... रांची में मेकॉन के एक स्टाफ क्वार्टर में जश्न मना एक बच्चे के जन्म का... परिवार के मुखिया पान सिंह मेकॉन में जूनियर मैनेजमेंट स्टाफ थे, लिहाजा आमदनी काफी कम थी, लेकिन तब मां देवकी देवी को एहसास नहीं था कि आगे चलकर 'माही' क्या करिश्मा करने वाला है... उत्तराखंड से आकर रांची बसे इस परिवार में पहले से एक बेटी जयन्ती और एक और बेटा नरेंद्र भी था...
कहते हैं, 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात...' सो, रांची में शामली के डीएवी विद्यामंदिर को तब अपने एक छात्र पर बड़ा नाज़ रहने लगा, क्योंकि उसमें कुछ खास था - मासूमियत के बीच उसके चेहरे पर एक चमक थी और आंखों में सपने थे... महेंद्र फुटबॉल का बहुत अच्छा खिलाड़ी था, लेकिन वह उसकी मंज़िल नहीं थी... उसके सपने बदलने वाले थे...
किस्मत कहें या किसी की पारखी नज़र... स्कूल टीम का विकेटकीपर 11वीं क्लास में जा चुका था, और कोच केशब रंजन बनर्जी को एक नए विकेटकीपर की तलाश थी... कोच की नज़र बहुत समय से छठी क्लास के एक छात्र और स्कूल टीम के गोलकीपर महेंद्र पर टिकी हुई थी... दरअसल, महेंद्र पीटी क्लास में क्रिकेट भी खेलता था, और वहीं से बनर्जी उसकी तेज़ी और चपलता के कायल हो चुके थे...
उन्होंने महेंद्र से पूछा, "क्रिकेट टीम के विकेटकीपर बनोगे...?"
महेंद्र ने छूटते ही सवाल किया, "चांस मिलेगा...?"
बस, फिर क्या था, रांची का जयपाल सिंह स्टेडियम उस बालक की काबिलियत का पहला गवाह बना, जिसे आसमान चूमना था... वर्ष 1997 में स्कूल की तरफ से माही और उनके साथी शब्बीर हुसैन ने 373 रन बनाए, जिसमें माही ने 213 रन की पारी खेली... रणजी खिलाड़ी शब्बीर आज भी उस दिन को भूले नहीं हैं... शब्बीर कहते हैं, "वह शुरू से ही बिग शॉट्स के लिए फेमस था..."
धोनी के कोच चंचल भट्टाचार्य कहते हैं, "धोनी शुरू से ही बहुत डिसिप्लिन्ड लड़का था..."
1997-98 के सत्र में वीनू मांकड़ ट्रॉफी अंडर-16 चैम्पियनशिप में माही की पहली पहचान बनी... मगर तब न आईपीएल था, न घरेलू क्रिकेट में पैसा। 20 साल की उम्र में ही धोनी को इस बात का एहसास हो गया था कि उन्हें नौकरी कर लेनी चाहिए... कम ही लोगों को मालूम है कि धोनी खड़गपुर में एक कमरे के मकान में रहे और टिकट कलेक्टर का काम करते थे... चार साल तक वह यहां रहे और रेलवे की टीम से क्रिकेट खेला... माही का करियर संघर्ष से भरा हुआ था... तब माही जॉन अब्राहम के फैन हुआ करते थे और उनकी तरह बाल भी बढ़ा लिए थे, लेकिन सबसे बड़े फैन तो थे सचिन तेंदुलकर के... क्रिकेट के प्रति जुनून इतना था कि एक बार रेलवे ने उन्हें काम छोड़कर क्रिकेट खेलने के लिए नोटिस जारी कर दिया...
झारखंड क्रिकेट संघ के अध्यक्ष अमिताभ चौधरी कहते हैं, "आपने देखा होगा कि जब धोनी ने पहला मैच खेला था, टीम में दो विकेटकीपर थे, लेकिन एक बार उसे मौका मिला, तो उसे रोकने वाला कोई नहीं था..."
वर्ष 2004 में टीम इंडिया की कैप पहनने के बाद माही से महेंद्र सिंह धोनी बनने की कहानी किसी परीकथा से कम नहीं... नया मकान, 23 हाईस्पीड मोटर साइकिलें, हमर गाड़ी और बेशुमार दौलत... महज पांच साल में एक बेहद आम-सा आदमी 'करोड़ों में एक' बन गया... बचपन में माही ने खुद अपने बल्ले पर पेंट से एमआरएफ लिखा, क्योंकि तब सचिन इसी ब्रांड के बैट से खेलते थे, लेकिन तब धोनी को भी एहसास नहीं था कि वह अपने बचपन के हीरो के साथ वर्ल्डकप जीतेंगे... लेकिन अब वर्ष 2011 का वर्ल्डकप जीतने वाले कप्तान की ज़िम्मेदारी उसी कप को दोबारा जीतने की है...
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