और जब एक बार फिर से इस बार मांजरेकर को पैनल से दूर रखा गया है, तो यह बीसीसीआई पर सवाल खड़ा करने के लिए काफी है. सवाल यह है कि प्रजातांत्रिक तरीके में क्या कमेंटेटर/समीक्षक को खिलाड़ी विशेष की आलोचना करने का हक नहीं है? और बिना आलोचना के कमेंट्री के स्वरूप कैसे पूरा हो सकता है. और क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने का प्रयास नहीं है?
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बहरहाल, बीसीसीआई के इस फैसले से कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है और मीडिया में यही राय बन चली है कि बोर्ड की कार्यशैली तानाशाही भरी हो चली है. फैंस भी इस बारे में खुलकर बातें कर रहे हैं कि आप छोटे नामों या पहचान वालों को कमेंट्री टीम में जगह दे रहे हो, लेकिन मांजरेकर जैसा अनुभवी दिग्गज के साथ ऐसा अपमानजनक बर्ताव हो रहा है. चलिए शुरू होने जा रहे टूर्नामेंट के दोनों भाषाओं की कमेंट्री पैनल के नामों पर नजर दौड़ा लें:
इंग्लिश: इयान बिशप, साइमन डोल, कुमार संगकारा, हर्षा भोगले, सुनील गावस्कर, रोहन गावस्कर, दीप दासगुप्ता, शिव रामा कृष्णन, अंजुम चोपड़ा, मुरली कार्तिक, मार्क निकोलस, केविन पीटरसन, जेपी डुमिनी, लिसा स्टालेकर, डारेन गंगा, पोमी एम बांग्वा, माइकल स्लेटर और डैनी मौरिसन
हिंदी: पार्थिव पटेल, आकाश चोपड़ा, इरफान पठान, गौतम गंभीर, आशीष नेहरा, जतिन सप्रू, निखिल चोपड़ा, किरन मोरे, अजित अगरकर और संजय बांगड़
उम्मीद है कि बीसीसीआई अपने कड़े फैसले और सख्त पॉलिसी पर जल्द ही विचार करेगा और मांजरेकर को उनका वह हक देगा, जिसका हकदार यह बल्लेबाज है.
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