बहुजन समाज पार्टी (BSP) की मुखिया मायावती के दिल्ली स्थित आवास पर समाजवादी पार्टी (SP) प्रमुख अखिलेश यादव के साथ दो घंटे तक चली उनकी मुलाकात उन डरावने सपनों का हिस्सा जरूर होगी, जो भारतीय जनता पार्टी (BJP) के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को आते होंगे.
उत्तर प्रदेश की दोनों पार्टियों के प्रमुखों ने आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे की 80 सीटों पर अपने गठबंधन को अंतिम रूप दे दिया है - दोनों दल 37-37 सीटों पर प्रत्याशी खड़े करेंगे, तीन सीटें चौधरी अजित सिंह तथा जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल (RLD) के लिए छोड़ी गई हैं, और एक सीट क्षेत्रीय निषाद पार्टी के लिए तय की गई है. SP और BSP राज्य की दो लोकसभा सीटों - कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तथा UPA अध्यक्ष सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्रों अमेठी और रायबरेली - में प्रत्याशी खड़े नहीं करेंगी, क्योंकि कांग्रेस भले ही राज्य में बने 'मिनी-गठबंधन' का हिस्सा नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय चुनाव में उन्हीं के पास सबसे ज़्यादा मौके होंगे.
सो, इस तरह हाल ही में तीन बड़े राज्यों - राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ - में जीतने वाली कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में पूरी तरह गठबंधन से बाहर भी नहीं किया गया है. यह और कुछ नहीं, किसी भूलभुलैया जैसा है, और यही उत्तर प्रदेश की राजनीति है.
उत्तर प्रदेश पर मोदी-शाह की जोड़ी का कब्ज़ा रोकने के लक्ष्य को लेकर राहुल गांधी, मायावती और अखिलेश यादव के साथ हैं. वर्ष 2009 में कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में 21 लोकसभा सीटें जीती थीं. इसके बाद वर्ष 2014 में उन्होंने सिर्फ दो सीटें जीतीं और उनकी वोट हिस्सेदारी सिर्फ 7.53 फीसदी रह गई, जो मोटे तौर पर सिर्फ अगड़ी जातियों से मिले थे.
अखिलेश यादव और मायावती के बीच गठबंधन की औपचारिक घोषणा नहीं की गई है, और मायावती के करीबी सहयोगी सतीश मिश्रा ने इस बात से इंकार किया है कि बहनजी के जन्मदिन - 15 जनवरी - को बड़ी घोषणा के लिए चुना गया है. लेकिन सूत्र इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि मंगलवार को हुई मुलाकात में सभी पहलुओं को अंतिम रूप दे दिया गया है, और इसका जश्न मनाने के लिए अखिलेश यादव ने पारम्परिक रूप से खिलाए जाने वाले 'लड्डुओं' के स्थान पर 'बुआ जी' को उनकी पसंदीदा सीताफल आइसक्रीम खिलाई.
राहुल गांधी भले ही औपचारिक रूप से उत्तर प्रदेश में बने BJP-विरोधी मोर्चे का हिस्सा नहीं बने हों, लेकिन माना जा रहा है कि उन्होंने अखिलेश यादव से बात की है, ताकि ऐसी किसी योजना पर काम किया जा सके, जिसमें कांग्रेस, BJP के सवर्ण वोटों में सेंध लगा सकें, और राजनैतिक शब्दावली में कहें, तो 'वोट कटुआ' की भूमिका निभा सके.
वर्ष 2017 में अखिलेश यादव ने दोबारा मुख्यमंत्री पद हासिल करने की कवायद में कांग्रेस के साथ गठजोड़ किया था, लेकिन नतीजे विनाशकारी रहे. BJP को शानदार जीत हासिल हुई. तभी से अखिलेश यादव साझीदार बनाने के लिए अतीत में शत्रु रहीं मायावती की ओर झुक गए, और BJP के गढ़ माने जाते रहे इलाकों में अहम उपचुनाव में उनके गठजोड़ ने बड़ी जीत पाई, और यह बात सभी को समझ आ गई कि अगर वे एकजुट हो जाते हैं, तो देश में राजनैतिक रूप से सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से विपरीत दिशा में झुकाया जा सकता है...
मायावती के दलित तथा अखिलेश यादव के यादव सरीखी अन्य पिछड़ी जातियों के वोटों के एकजुट हो जाने के अलावा व्यापक रूप से फैली इस धारणा ने भी उनके पक्ष में काम किया कि इस वक्त मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे योगी आदित्यनाथ (भगवा चोले में रहने वाले साधु) के राज में अहम प्रशासनिक और पुलिस पदों पर सवर्णों की तैनाती की गई है, जिससे छोटी जातियों को सताने वाला 'ठाकुर राज' कायम हो रहा है.
BJP की दिक्कतों को दोबाला करने वाले कारणों में नाराज़ सहयोगी - अपना दल - शामिल है, जिसने पिछले लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीती थीं. अपना दल का कहना है कि वे इस बार कहीं ज़्यादा सीटों के हकदार हैं, और वे BJP द्वारा दरकिनार किया जाना सहन नहीं करेंगे, जिसने अब तक उसके नेताओं को उचित सम्मान नहीं दिया है.
हिन्दू वोटों को एकजुट करने तथा अगड़ी जातियों के वोटों को पूरी तरह BJP के पक्ष में करने की कोशिशों के तहत पार्टी के वैचारिक संरक्षक कहे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने शर्त रखी कि उसके बड़े कार्यकर्ता समूह व ज़मीनी समर्थन के बदले पार्टी चुनाव के लिए गोवर्द्धन झड़पिया को राज्य का प्रभारी नियुक्त करे. झड़पिया दक्षिणपंथी विचारों के लिए जाने जाते हैं, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा BJP प्रमुख अमित शाह के कड़े आलोचक रहे हैं. वह वर्ष 2002 में गुजरात में हुए दंगों के दौरान राज्य के गृह राज्यमंत्री भी थे.
योगी आदित्यनाथ तथा अमित शाह अपने भाषणों में अखिलेश यादव और मायावती के गठजोड़ को लेकर निंदात्मक रहे हैं, लेकिन RSS का दखल दिखाता है कि गठजोड़ को कितनी गंभीरता से लिया जा रहा है.
मायावती स्वभाव से हठी मानी जाती हैं, और कथित भ्रष्टाचार के आरोपों में CBI केसों का सामना करने की वजह से वह संभवतः कुछ दबाव में भी हैं, इसलिए वह इस बारे में सावधानी बरत रही हैं कि वह कब और कैसे अपनी योजनाओं को सार्वजनिक करें. उधर, अखिलेश इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि कितना कुछ दांव पर है, सो, उन्हें भी इस रवैये से कोई परेशानी नहीं है. इस वक्त, जब पूरा देश चुनाव की तारीखों की घोषणा का इंतज़ार कर रहा है, अहम योजनाएं तैयार कर ली गई हैं. लेकिन याद रहे, अक्सर सिर्फ एक फोन कॉल से सभी योजनाएं बदल जाया करती हैं.
स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...
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