कोविड ने हमें घरों में नहीं, खामोशी में कैद किया था. जब दरवाजे खुले, तो इंसान सिर्फ बाहर नहीं निकला, वह उस वक्त को ढूंढने निकल पड़ा जो लॉकडाउन में छूट गया था. तब से हर रास्ता एक जवाब है और हर यात्रा एक जिद.
पत्थरों के कठोर शहरों से निकलकर लोग अब हवा, आकाश और चलती सड़कों में सांसें तलाशते हैं. कहीं मंदिरों की सीढ़ियों पर थकान रख दी जाती है, कहीं पहाड़ों के मोड़ों पर डर. यह घूमना सिर्फ शौक नहीं, एक तरह की तसल्ली है. तसल्ली ऐसी कि जिंदगी अब भी चल रही है, कि लौट आना अब भी मुमकिन है.
कोविड के बाद की यह यात्रा उस बेचैनी की कहानी है जो रुकने से डरती है और उस उम्मीद की भी, जो हर नए रास्ते पर परिंदा बनकर उड़ जाना चाहती है.
जब घर ही सबसे बड़ा बंधन बन गया
कोविड काल से पहले घूमना एक प्लान हुआ करता था.लंबी छुट्टियां, बजट, साथियों की उपलब्धता. तीर्थयात्रा या पर्यटन सीमित था, भीड़ अनुमानित थी. लेकिन लॉकडाउन के महीनों ने यह एहसास करा दिया कि जिंदगी किसी कैलेंडर की मोहताज नहीं. अचानक बीमारी, अचानक मौत, अचानक सब कुछ रुक जाना. इन सबने लोगों को सिखा दिया कि कल का इंतजार करना सबसे बड़ा जोखिम है.

उत्तरकाशी के केदारकांठा ट्रेक पर न्यू ईयर सेलिब्रेट करने पहुंची भीड़.
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न्यू ईयर नहीं, नया स्वभाव
आज न्यू ईयर हो या दो दिन का वीकेंड. लोग गाड़ी उठाते हैं और निकल पड़ते हैं. ट्रेन, बस, फ्लाइट नहीं मिली तो कार ही सही. यह सिर्फ घूमने का शौक नहीं, बल्कि एक तरह का मानसिक रिहैबिलिटेशन है. लंबे समय तक बंद कमरों में रहने के बाद खुले रास्तों की चाह स्वाभाविक है.
वृंदावन के मंदिर हों या वैष्णो देवी का दरबार, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर हो या उत्तराखंड-हिमाचल की पहाड़ियां. हर जगह वही तस्वीर है...
घंटों की कतारें
होटलों की एडवांस बुकिंग
जाम से भरी सड़कों पर धैर्य खोते लोग
आस्था और पर्यटन की सीमाएं धुंधली हुईं
एक बड़ा बदलाव यह भी है कि आस्था और पर्यटन अब अलग-अलग खांचों में नहीं रहे. लोग तीर्थ पर सिर्फ पूजा के लिए नहीं जाते, वे उसे यात्रा अनुभव की तरह जीना चाहते हैं. मंदिर के साथ कैफे, दर्शन के साथ ड्राइव, भक्ति के साथ रील सब एक ही पैकेज में है.
सोशल मीडिया ने इसमें आग में घी का काम किया है. किसी की स्टोरी, किसी की रील और फिर वही जगह अगला वीकेंड डेस्टिनेशन बन जाती है. भीड़ अब सिर्फ श्रद्धालुओं की नहीं, फॉलोअर्स की भी है.
क्या यह भीड़ सिर्फ उत्साह है?
नहीं. यह भीड़ दरअसल उस डर की देन है जो कोविड छोड़ गया. कहीं फिर से सब बंद न हो जाए. इसलिए लोग आज को जी लेना चाहते हैं. पैसा बाद में, सुविधा बाद में, आराम बाद में. पहले निकल चलो.
लेकिन इस उफान की एक कीमत भी है. पहाड़ों पर दबाव बढ़ा है, तीर्थस्थलों की व्यवस्थाएं चरमराई हैं, और कई जगह श्रद्धा शोर में बदलती दिखती है. सवाल यह नहीं कि लोग क्यों घूम रहे हैं, सवाल यह है कि हम इस नई भीड़ के लिए तैयार हैं या नहीं.
कोरोना ने लोगों को घूमने का शौक नहीं दिया, उसने रुकने का डर दे दिया. यही डर आज सड़कों पर, मंदिरों में, पहाड़ों पर और हर वीकेंड की भीड़ में साफ दिखता है. यह सिर्फ यात्रा का दौर नहीं है, यह उस पीढ़ी की प्रतिक्रिया है जिसने घर में बैठकर समझ लिया 'जिंदगी टलती रही, तो छूट जाती है'