वसुधैव कुटुंबकम वाले भारत में आपका स्वागत है. पूरी दुनिया को कुटुंब यानी परिवार मानने वाले भारत की संसद में एक विधेयक पेश हुआ है. जिस भारत के सभी धर्मों को मानने वाले लोगों ने दुनिया के कई देशों में स्वेच्छा से नागिरकता ली है, उन्हें मिली भी है, उनके भारत में एक विधेयक पेश हुआ है. जिन्हें हम नॉन रेजिडेंट इंडियन कहते हैं उन्हें भी यह जानना चाहिए कि नागिरकता संशोधन विधेयक के तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश यानी सिर्फ तीन पड़ोसी देशों से प्रताड़ना यातना के शिकार हिन्दू, ईसाई, पारसी, जैन, सिख और बौद्ध को नागरिकता दी जाएगी. इसमें एक मज़हब का नाम नहीं है. मुसलमान का. इस आधार पर कहा जा रहा है कि यह संविधान की मूल भावना यानी सेकुलरिज़्म के खिलाफ है क्योंकि भारत का संविधान धर्म, जाति और लिंग के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा. अमित शाह कहते हैं कि किसी के खिलाफ नहीं है. किताब की भूमिका पढ़ लेने से न तो आप पूरी किताब समझ आती है और न ही आधी किताब पढ़ने वाला विश्व गुरु तो छोड़िए गांव गुरु भी नहीं हो सकता है. भारत के पड़ोस में सिर्फ पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश नहीं है. नेपाल, श्रीलंका और म्यानमार भी है. जो बिल लाया गया है अगर उसका आधार सिर्फ प्रताड़ना है तो सिर्फ एक धर्म पर चुप्पी क्यों है. अगर सिर्फ मज़हब आधार है तो फिर प्रताड़ना का सहारा क्यों लिया जा रहा है.
मार्च 2018 में न्यूयार्क टाइम्स में Dan Arnold और Alicia Turner का छपा लेख पढ़ सकते हैं. भारत के दो पड़ोसी देश म्यांमार और श्रीलंका है. हम मानते आए हैं कि बौद्ध संगठन अपने मज़हब की किताब की तरह शांति और संयम के उपासक ही होंगे. म्यांमार में बौद्ध संगठनों पर हिंसा हुई है लेकिन बौद्ध लामाओं ने रोहिंग्या मुसलमानों पर भी ज़ुल्म ढाए हैं. बौद्ध पहचान से जुड़ी राजनीति ने यहां मुसलमानों को प्रताड़ित किया है. श्रीलंका देख लीजिए. यहां भी बौद्ध राष्ट्रवाद उग्र रहा है. जिसका शिकार तमिल हिन्दू रहे हैं. बौद्ध राष्ट्रवाद के शिकार मुसलमान भी हैं. अमित शाह ने जो बिल रखा है उसमें सिर्फ तीन देश हैं और उन तीन देशों के प्रताड़ितों में बौद्ध का भी नाम है. लेकिन पड़ोस में जहां बौद्ध हिंसा का शिकार मुसलमान और तमिल हो रहे हैं, उनकी बात नहीं है. पाकिस्तान में शियाओं के साथ कितनी हिंसा हुई है. कितने ही शिया डॉक्टरों की हत्या कर दी गई है. अहमदिया समुदाय के लोग भी प्रताड़ना के शिकार हुए हैं. हिन्दू भी हुए हैं. लेकिन भारत प्रताड़ना को सिर्फ एक मज़हब की निगाह से देखेगा. शियाओं की प्रताड़ना की तरफ नहीं देखेगा. अहमदिया की प्रताड़ना की तरफ नहीं देखेगा.
दुनिया में कोई भी ऐसा धर्म नहीं है जिसके खाते में दूसरे धर्म पर हिंसा का उधार नहीं लिखा है लेकिन अगर यह उधार किसी भी तरह से चुकाया जाने लगा तो धरती पर लाशों के सिवा कुछ नहीं बचेगा. धार्मिक आधार पर हिंसा एक हकीकत है. तभी समझाने वालों ने कहा है कि सभी धर्म एक हैं. उनका मकसद एक है. यह भी सोचना चाहिए कि भारत में जिन तीन देशों के छह मज़हबों के लिए नागिरकता का कानून बन रहा है, यह कानून उन देशों में उनकी स्थिति मज़बूत करेगा या कमज़ोर करेगा? क्या इस कानून से पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दुओं की स्थिति मज़बूत होती है? इस कानून के बाद उन्हें इन दो देशों में कैसे देखा जाएगा? बताने की ज़रूरत नहीं है. अगर भारत इतना ही चिन्तित है और तो आप इंटरनेट सर्च करें कि पिछले पांच साल में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना और प्रधानमंत्री मोदी की कितनी बार मुलाकात हुआ है, क्या एक बार भी बांग्लादेश में हिन्दुओं की प्रताड़ना की बात की है? कभी नहीं की है. गृहमंत्री अमित शाह ने जो बिल पेश किया है उसे ज़रूर पढ़ें लेकिन पहले स्वामी विवेकानंद के उस कथन को ज़रूर सुनें. 11 सितंबर 1893 को शिकागो में विवेकानंद ने कहा था, 'मुझे उस धर्म का होने में गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता का पाठ पढ़ाया है. हम न सिर्फ सार्वभौमिक सहिष्णुता में यकीन करते हैं बल्कि हम सभी धर्मों को स्वीकार करते है. मुझे गर्व है मैं एक ऐसे देश से आता हूं जिसने इस धरती के सभी देशों के सभी मज़हबों के सताए गए शरणार्थियों को शरण दी है.'
विवेकानंद आज होते तो क्या गर्व करते, उस भारत पर जिसने सभी देशों और सभी धर्मों के सताए हुए शरणार्थियों को शरण दी है. गृहमंत्री अमित शाह ही बता सकते हैं कि विवेकानंद क्या सोचते, या आज की राजनीति का कोई भरोसा नहीं, सुविधा के लिए विवेकानंद को भी खारिज कर दिया जाता. गृहमंत्री अमित शाह ने नागरिकता संशोधन विधेयक पेश कर दिया. यह बिल एक बार और लोकसभा में पास हो चुका था मगर लोकसभा चुनावों में पूर्वोत्तर में हुए विरोध के कारण राज्यसभा में लैप्स होने दिया. अब नए स्वरूप में यह बिल पेश हुआ है.
अमित शाह ने बताया कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान का राजधर्म इस्लाम है. दुनिया के कोई 50 से अधिक देश हैं जिनका संविधान ईश्वर और अल्लाह से शुरू होता है. संविधान सभा में बहस हुई कि ईश्वर से संविधान शुरू होगा. एच वी कामथ प्रस्ताव ले आए. तो इसका विरोध हुआ. मतदान हो गया तो ईश्वर हार गए. अमित शाह ने कहा कि कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया. अमित शाह को पता है कि विभाजन को लेकर जनता में तरह तरह की धारणाएं हैं. कोई न कोई राय है. खुद से पूछिए कि विभाजन के बारे में जानने के लिए कितनी किताबें पढ़ी हैं. नेताओं को पता है कि कोई संविधान सभा मे हुई बहस को भी नहीं पढ़ेगा. यह बहस हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलबेस का कोहिनूर है. ज़्यादातर लोग इसके दायरे में ही सिमटे रह जाएंगे. अमित शाह से पूछा जाना चाहिए कि अगर कांग्रेस ने धर्म के आधार पर भारत का विभाजन किया तो फिर कांग्रेस ने संविधान सभा में धर्म के आधार पर भारत बनाने पर ज़ोर क्यों नहीं दिया. अगर धर्म के आधार पर बंटवारा होता तो संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा का क्यों विरोध किया था. क्यों कहा था कि 'अगर हिन्दू राज एक तथ्य बन गया तो कोई शक नहीं कि वह देश के साथ सबसे बड़ी त्रासदी होगी. हिन्दू चाहे जो कहें, हिन्दुज़्म स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के खिलाफ है. इस आधार पर यह लोकतंत्र के साथ नहीं चल सकता. हर हाल में हिन्दू राज को रोका जाना चाहिए.'
सबने अपनी सुविधा के पन्ने चुन लिए थे और प्रताड़ना और यातना को साबित करने में लगे थे. इतिहास के पन्नों का खतरनाक इस्तमाल हुआ. सांसदों ने निराश किया. मर्जी हुई तो विभाजन के लिए गांधी को दोषी ठहरा दिया, मर्जी हुई तो कांग्रेस को दोषी ठहरा दिया. हम इतिहास से सबक सीख रहे हैं या भविष्य की चिन्ता छोड़कर इतिहास का बदला ले रहे हैं. शिवसेना के सांसद विनायक बी राउत ने सवाल किया कि इस बिल में अफगानिस्तान की चिन्ता है, श्रीलंका के तमिलों के लिए क्यों नहीं है. पूछा कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से कितने लोग भारत आए हैं इसका कभी ठीक से पता नहीं चला. 16 नवंबर 2016 को राज्यसभा में सरकार ने कहा था कि दो करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठीये हैं. लेकिन जब एनआरसी की लिस्ट बनी तो 19 लाख लोग ही लिस्ट से बाहर निकले. इसमें भी 14 लाख हिन्दू इस बिल के बाद भारत के नागरिक बन जाएंगे. ज़ाहिर है राजनीति ने संख्या का भूत खड़ा किया. अब एनआरसी सारे देश में लागू होने की बात कही जाती है.
अमित शाह ने जिस रिजनेबल क्लासिफिकेशन का ज़िक्र किया वो क्या है, क्यों उसके आधार पर इस बिल की वैधानिकता का विरोध हो रहा है. क्यों विरोध करने वाले कह रहे हैं कि संविधान के अनुच्छेद 14 की भावना का उल्लंघन है जो धर्म जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव करने से रोकता है.
कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने भी अपने भाषण में कहा कि भारत अंतरराष्ट्रीय संधि के तहत वचनद्ध है कि वह हर तरह के शरणार्थी को स्वीकार करेगा. कांग्रेस ने इस बिल का विरोध किया है. मनीष तिवारी ने कहा कि यह विधेयक संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है. इससे संविधान का बेसिक चरित्र बदला जा रहा है जो 1973 के केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद नहीं बदल सकता है. इस बिल धर्म के आधार पर नागरिकता को परिभाषित करता है. मनीष तिवारी ने अमित शाह को जवाब देते हुए कहा कि कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन नहीं किया था. टू नेशन की थ्योरी सबसे पहले 1935 में हिन्दू महासभा के सत्र में सावरकर ने रखी थी.
वाईएसआर कांग्रेस ने इस बिल का समर्थन करते हुए कहा कि दूसरे समुदायों के शरणार्थियों को भी शामिल किया जाना चाहिए. डीएमके सासंद दयानिधि मारन का भी पक्ष हिन्दी प्रदेशों में हो रही बहस से अलग रहा. किसी को ध्यान नहीं आया कि दुनिया में बहुत से लोग हैं जो किसी भी धर्म के किसी भी ईश्वर को नहीं मानते हैं. भारत में इसके सबसे बड़े आइकॉन शहीद भगत सिंह हैं. 'मैं नास्तिक क्यों हूं' आप पढ़ सकते हैं. डीएमके सांसद दयानिधि मारन ने नास्तिकों का सवाल उठाते हुए कहा कि मुझे इस बिल में ईसाई देखकर हैरानी हुई. अचानक इतना प्यार कहां से आया. आप पश्चिम देशों के भय से माइनॉरिटी को मुसलमान और ईसाई में बांट रहे हैं. ताकि आप पश्चिमी देशों से अलग थलग न पड़ जाएं. मारन ने यह भी कहा कि जो ईश्वर को नहीं मानते हैं, उनके बारे में इस बिल में कुछ नहीं है. दुनिया में बहुत से लोग हैं जो किसी धर्म के किसी ईश्वर को नहीं मानते हैं. भारत में उनके सबसे बड़े आइकॉन भगत सिंह हैं.
इस बिल की चर्चा के कई भौगोलिक प्रदेश हैं. हिन्दी भाषी प्रदेशों में इसे अलग तरीके से देखा जा रहा है. दक्षिण से आने वाले गैर भाजपा और गैर कांग्रेस दलों के सांसदों का नज़रिया अलग है. लेकिन पूर्वोत्तर के राज्यों में जाकर बिल की चर्चा पूरी तरह बदल जाती है. असम इस बिल के प्रावधानों को लेकर आंदोलित है. वहां के मूल निवासी इंडिजिनेस समुदाय के लोग सड़कों पर हैं. अनेक संगठन इसमें हिस्सा ले रहे हैं.
असम की शायद ही कोई ऐसी प्रमुख यूनिवर्सिटी होगी जहां इस बिल के विरोध में विरोध प्रदर्शन न हुए हों. नेशनल मीडिया के कैमरों से दूर इन प्रदर्शनों का वीडियो व्हाट्सऐप के इनबॉक्स में घूमता रहा है. गुवाहाटी यूनिवर्सिटी, कॉटन यूनिवर्सिटी, डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी, तेज़पुर यूनिवर्सिटी, एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से लेकर कोकराझार के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालजी में भयंकर विरोध प्रदर्शन हुआ है. छात्रों के साथ-साथ प्रोफेसर भी इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हैं. दिन में प्रदर्शन कर रहे हैं, रातों को मशाल जुलूस लेकर चल रहे हैं. असम के नौजवानों का कहना है कि उनके लिए भाषा सर्वोच्च है. धर्म नहीं है. घुसपैठियों को धर्म के आधार पर बांटने के खिलाफ हैं. यह बिल हिन्दू घुसपैठियों को नागरिकता देने के लिए है. जबकि 80 के दशक का असम आंदोलन घुसपैठियों के खिलाफ था. घुसपैठियों के धर्म के खिलाफ नहीं. असम आंदोलन अपनी भाषा और संस्कृति की पहचान के लिए हुआ था जिसके लिए 885 लोगों ने शहादत दी थी. इसलिए नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध में असम में जगह जगह रैलियां हो रही हैं. असम के लोगों की बेचैनी इस बात से भी बढ़ी कि नेशनल मीडिया ने इस बिल के खिलाफ हो रहे प्रदर्शन को नज़रअंदाज़ किया. इनका कहना है कि बीजेपी ने भी इन्हें घुसपैठिया कहा. ये नहीं कहा कि इनमें से कोई प्रताड़ित घुसपैठिया है. अब क्यों कह रही है कि हिन्दू घुसपैठिया हैं और प्रताड़ित होकर आए हैं. सवाल पूछा जा रहा है कि यह किस आधार पर कहा जा रहा है कि असम के हिन्दू यानी बंगाली घुसपैठिए प्रताड़ित होकर ही आए हैं. घुसपैठ नहीं की है.
अनुच्छेद 370 जब हटा तो कहा गया कि एक देश एक कानून है. लेकिन क्या नागरिकता संशोधन विधेयक एक देश एक कानून के पैमाने पर खरा उतरता है. जवाब है नहीं उतरता है. जिस पूर्वोत्तर को ध्यान में रखकर लाया गया है वहीं पर यह बिल एक समान लागू नहीं हो रहा है. किसी राज्य में लागू नहीं होगा तो किसी राज्य में किस हिस्से में लागू नहीं होगा.
इस बिल का असर पाकिस्तान से आए उन हिन्दुओं पर भी पड़ेगा जो बरसों से अधिकार और सुविधा के अभाव में जीवन बिता रहे थे. उनमें से बहुत प्रताड़ित हुए हैं और बगैर अधिकार और सुविधा के लंबे समय से राजस्थान के कई हिस्सों में रहते आ रहे थे. अन्य जगहों में भी रहते हैं. लेकिन असम पहुंच कर पूरा मामला भारत की सहिष्णुता और उदारता का इम्तहान लेने लगता है. वो विश्व गुरु कम, छड़ी घुमाने वाला स्कूल का मास्टर ज्यादा लगने लगता है. आज असम में ही वहां के बांग्लाभाषी बेगाने हो गए होंगे. उन्हें अधिकार मिल रहा है मगर वो जश्न नहीं मना रहे हैं. नागरिकता की राजनीति उन्हें आगे भी कभी बंगाली हिन्दू तो कभी बांग्लादेशी घुसपैठिया कहती रहेगी. ये लोग बांग्लादेश के समय भारत आए. उसके पहले भी आए. वो भारत का गौरवशाली क्षण था. यही इस मसले की जटिलता और संवेदनशीलता है. काश कोई होता जो असम में दोनों से आंखें मिलाकर और दोनों को गले लगाकर बातें करता. आज वहां के मूल निवासी अपनी भाषाई पहचान को लेकर चिन्तित हैं. बंगाली अपनी भाषाई पहचान को लेकर सहमे होंगे.
बहस में बांग्लादेश और भारत के बीच मज़हब की दीवार बड़ी दिखाई जा रही है मगर भाषा की उस ज़मीन को नहीं दिखाया जा रहा है जो मज़हब से कहीं ज्यादा हरी भरी है. भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रचयिता एक ही हैं. रबिंद्र नाथ टैगोर. सोचिए मूलनिवासी और बांग्लाभाषी के बीच वो मुसलमान कहां खड़े होंगे, जिन्हें डिटेंशन सेंटर का डर सता रहा होगा. वो किस भारत की तरफ देखें जिसकी राजनीति उन्हें सिर्फ घुसपैठिया पहचानती है, उनकी आंखों में कितना ख़ौफ होगा. उनमें से एक तो कारगिल के योद्धा थे, मगर घुसपैठिया का लेवल लग गया. असम इस बहस से बाहर है. बीजेपी के 9 सांसद हैं असम से, एक भी सांसद ने नहीं बोला. असम से पहले सांसद थे कांग्रेस के गौरव गोगई जिन्होंने बोला मगर बहुत बाद में. गौरव ने बिल का विरोध किया. मणिपुर, मिज़ोरम त्रिपुरा और नगालैंड से किसी सांसद ने इस बहस में हिस्सा नहीं लिया. कहीं ऐसा तो नहीं कि सारी बहस पर उत्तर भारत की राजनीति हावी है. वो जो सोचेगी, वो जो कहेगी बाकी भारत को वही मानना होगा? तो फिर आप करतारपुर जाकर देखिए. जहां से होते हुए पंजाब के सिख दरबार साहिब के दर्शन करने जा रहे हैं. इसलिए अकाली सांसद सुखबीर बादल ने कहा कि मुस्लिम जोड़िए. औवेसी ने कहा कि हमारे पुरखों ने जिन्ना को नहीं माना. मौलाना आज़ाद को माना. संविधान बनाने वालों के साथ धोखा हुआ है.
गांधी ने कहा था कि आंख के बदले आंख नहीं निकाल सकते. विश्व गुरु का ख्वाब वाकई होता तो भारत सबकी बात करता. सबके लिए बोलता.