सुप्रीम कोर्ट ने 15 सितंबर को उस अपील को खारिज कर दिया, जिसमें केरल हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी. केरल हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि राजनीतिक दल 'कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013' (POSH Act, 2013) के प्रावधानों के तहत यौन उत्पीड़न की शिकायतों के लिए आंतरिक शिकायत समिति (ICC) गठित करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं हैं. हाई कोर्ट का कहना था कि किसी व्यक्ति का किसी राजनीतिक दल से जुड़ना नौकरी करने जैसा नहीं है.
सीजेआई जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर की पीठ के समक्ष विशेष अनुमति याचिका (योगमाया बनाम केरल राज्य एवं अन्य (डायरी नंबर—47381/2025) के माध्यम से इसे पेश किया गया था. पीठ के समक्ष दायर याचिका में यह तर्क दिया गया था कि राजनीतिक दलों को भी अन्य संस्थाओं की तरह POSH अधिनियम के तहत आईसीसी गठित करनी चाहिए. लेकिन केरल हाईकोर्ट का मत था कि चूंकि राजनीतिक दल और उसके सदस्य के बीच नियोक्ता–कर्मचारी संबंध मौजूद नहीं है, इसलिए इस अधिनियम को उन पर लागू नहीं किया जा सकता. आज सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी दृष्टिकोण को बरकरार रखते हुए एसएलपी पर विचार करने से इनकार कर दिया.
क्या है POSH अधिनियम?
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, प्रतिषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 का निर्माण कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न की रोकथाम और शिकायत निवारण के लिए एक मजबूत कानूनी ढांचा तैयार करने के लिए किया गया है. इसकी जड़ें 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए ऐतिहासिक 'विशाखा बनाम राजस्थान राज्य' मामले से जुड़ी हैं, जहां यह पाया गया कि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए कोई कानूनी आधार उपलब्ध नहीं था. अतः पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिला सुरक्षा को मौलिक अधिकारों से जोड़ते हुए एक न्यायिक दिशा-निर्देश जारी कियाय इसे हम 'विशाखा गाइडलाइंस' के नाम से जानते हैं.
क्या कहता है यह अधिनियम?
इसमें कार्यस्थल एवं कर्मचारी की परिभाषा को व्यापक बनाया गया है. कार्यस्थल में सरकारी, निजी, शैक्षणिक संस्थान, गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) आदि को शामिल किया गया है. यहां तक कि कृषि एवं घरेलू कार्यस्थल को भी इसमें शामिल किया गया है. वहीं कर्मचारी की परिभाषा में भी न केवल नियमित वेतनभोगी कर्मचारी, बल्कि संविदा कर्मी, प्रशिक्षु, इंटर्न, अस्थायी कार्यकर्ता और घरेलू कार्यों में संलग्न महिलाओं को भी इसके अंतर्गत शामिल किया गया है. अधिनियम में यह प्रावधान है कि जहां भी 10 या उससे अधिक कर्मचारी कार्यरत होंगे, वहां नियोक्ता के लिए आंतरिक शिकायत समिति (ICC) का गठन करना कानूनन अनिवार्य है. समिति शिकायतों की समय पर जाँच और समाधान सुनिश्चित करती है.
याचिकाकर्ता का तर्क था कि राजनीतिक दल भी एक औपचारिक संगठन की तरह ही हैं और कार्यस्थलों की तरह काम करते हैं. वहां भी सैकड़ों-हजारों कार्यकर्ता, जिनमें महिलाएं भी होती हैं, निरंतर सक्रिय रहती हैं. अतः उन्हें POSH अधिनियम से बाहर रखना महिलाओं की सुरक्षा को कमजोर करता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित आधारों पर याचिका को अस्वीकार कर दिया.
नियोक्ता-कर्मचारी संबंध का अभाव
राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्ताओं/सदस्यों के बीच पारंपरिक नौकरी जैसा संबंध नहीं होता. वेतन, अनुबंध, सेवा शर्तें या नियुक्ति जैसी व्यवस्थाएं यहां अनुपस्थित रहती हैं. अधिकांश लोग स्वेच्छा और वैचारिक निष्ठा से किसी राजनीतिक दल से जुड़ते हैं. इसके विपरीत, POSH अधिनियम नियोक्ता और कर्मचारी के बीच स्थापित कानूनी संबंध पर आधारित है, जहां अधिकांश मामलों में नियंत्रण, जवाबदेही और वेतन स्पष्ट रूप से परिभाषित होते हैं.
राजनीतिक दलों की गतिविधियां किसी एक निश्चित कार्यालय तक सीमित नहीं रहती हैं. उनका वास्तविक कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक और गतिशील होता है, जिसमें चुनावी रैलियां, जनसभाएं, प्रचार अभियान, गांव-गांव जाकर संपर्क कार्यक्रम, अस्थायी चुनावी शिविर, विभिन्न सार्वजनिक स्थल शामिल होते हैं. ऐसे अस्थिर और असंगठित परिवेश को कार्यस्थल की कानूनी परिभाषा में समाहित करना जटिल हो जाता है.
दुरुपयोग और ब्लैकमेल की आशंका
यदि राजनीतिक दलों को POSH अधिनियम के दायरे में शामिल किया गया, तो इसके दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाएगी. अदालत ने स्पष्ट किया कि विरोधी राजनीतिक गुट या व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्वी झूठे आरोप लगाकर दलों या इसके सदस्यों की छवि धूमिल कर सकते हैं. यह ब्लैकमेल का प्रभावी हथियार बन जाएगा, जिससे न केवल दल की साख प्रभावित होगी, बल्कि उनके संगठनात्मक कार्य, चुनावी अभियान और आंतरिक निर्णय-प्रक्रियाएं भी अनावश्यक विवादों में उलझ जाएंगी.
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राजनीतिक दलों को POSH अधिनियम के अंतर्गत लाने का प्रश्न न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. यह मूलतः विधायिका के कार्यक्षेत्र में आता है, क्योंकि नए कानून बनाना या कानून की परिभाषा का विस्तार करना संसद का कार्य है. विशेष परिस्थितियों को छोड़कर सामान्यतः न्यायालय मौजूदा कानूनों की व्याख्या करता है और यह सुनिश्चित करता है कि यह संविधान के दायरे में है अथवा नहीं.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रासंगिकता
यह फैसला कई नजरिए से महत्वपूर्ण है. राजनीतिक दल लोकतंत्र की आत्मा हैं, इसलिए उनके लिए लोकतांत्रिक स्वायत्तता बहुत आवश्यक तत्व है. उन पर अत्यधिक कानूनी बंधन थोपना उनकी स्वतंत्रता और आंतरिक संरचना पर असर डाल सकता है. राजनीति विरोध और प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र है. यदि हर राजनीतिक मतभेद POSH कानून के तहत मुकदमेबाजी में बदलने लगे तो लोकतांत्रिक विमर्श बाधित होगा. यह भी महत्वपूर्ण है कि बड़े दलों के लिए ICC बनाना आसान हो सकता है, पर छोटे क्षेत्रीय दलों के लिए यह बोझिल साबित हो सकता है. यह भी उल्लेखनीय है कि POSH अधिनियम की परिभाषा को अनावश्यक रूप से विस्तार देने पर विवाद बढ़ेंगे. इससे आने वाले समय में अधिनियम का मूल उद्देश्य कमजोर होगा.
वहीं आलोचकों का कहना है यह फैसला राजनीति से जुड़ी महिलाओं को असुरक्षित छोड़ देता है. राजनीति महिलाओं के लिए पहले से ही कठिन क्षेत्र है, वहां POSH अधिनियम लागू नहीं होगा तो उनकी सुरक्षा कौन सुनिश्चित करेगा? किंतु इस आलोचना के पीछे बहुत ठोस आधार नजर नहीं आता है. महिलाओं के लिए POSH अधिनियम के अतिरिक्त भी अन्य अनेक कानूनी विकल्प उपलब्ध हैं जिनकी आवश्यकता पड़ने पर मदद ली जा सकती है. भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता आदि महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं. यौन उत्पीड़न के मामलों में इन कानूनों में अनेक धाराएं मौजूद हैं.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता की रक्षा करता है. लेकिन इससे राजनीति दलों की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती. राजनीतिक दलों की स्वयं की जिम्मेदारी है कि वे महिलाओं को सुरक्षित वातावरण दें. इस निर्णय से यह स्पष्ट संदेश मिलता है कि कानून की अपनी सीमाएं होती हैं, पर सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारियों की कोई सीमा नहीं होती. राजनीति को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने का भार अब समाज और दलों पर है. यदि भारत का लोकतंत्र वास्तव में समावेशी और प्रगतिशील बनना चाहता है, तो महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना केवल कानून पर नहीं छोड़ा जा सकता. यह राजनीतिक दलों की प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है. राजनीतिक दल स्वेच्छा से यौन उत्पीड़न-रोधी प्रावधान अपने संविधान और आचार संहिता में शामिल करें.
डिस्क्लेमर: लेखक बिहार के बाबासाहेब भीमराव अम्बेदकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर के राजनीति विज्ञान विभाग में शोध छात्र हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.