हमास ने सात अक्टूबर 2023 को इजरायल पर हमला किया था. इसके बाद से ही पश्चिम एशिया में अशांति, अस्थिरता और अनिश्चितता का दौर जारी है. निकट भविष्य में भी इस दौर के समाप्त होने ही संभावनाएं कम नजर आ रही हैं. इजरायल द्वारा खाड़ी के सबसे धनी देशों में से एक कतर की राजधानी दोहा पर हमले ने परिस्थितियों को और अधिक जटिल बना दिया है. इन सबके बीच इजरायल और अरब देशों के बीच संबंधों को नए रूप से स्थापति करने वाले 'अब्राहम समझौते' की 15 सितंबर 2025 को पांचवी वर्षगांठ है. इसको लेकर अब नई तरह की बहस और चर्चा शुरू हो गई है.
कब और किसकी मध्यस्थता में हुआ था समझौता
अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पहले कार्यकाल में वाशिंगटन में 15 सितंबर 2020 को अमरीका की मध्यस्थता में इस समझौते पर इजरायल, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई), बहरीन और मोरक्को ने दस्तखत किए थे. सूडान ने इस पर 2021 में दस्तखत किया. इसमें द्विपक्षीय समझौते के साथ-साथ एक सामान्य घोषणा भी शामिल है. इस समझौते के तहत यूएई और बहरीन ने इजरायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किए. इस समझौते का उद्देश्य अब्राहमिक धर्मों (इस्लाम, ईसाई और यहूदी) में भाईचारा बढ़ाना है. सूडान में जारी अस्थिरता की वजह से इस द्विपक्षीय समझौते को औपचारिक रूप देने में देरी हुई.
इस समझौते की योजना जून 2019 में बहरीन में ट्रंप के दामाद और तत्कालीन सलाहकार जेरेड कुशनर की ओर से आयोजित मध्य पूर्व कार्यशाला 'शांति से समृद्धि' के बाद बनाई गई थी. इन समझौतों की प्रेरणा इस विश्वास से मिली कि संघर्षों को दरकिनार करने के लिए वित्तीय और आर्थिक प्रोत्साहन देकर पश्चिम एशिया में भू-राजनीतिक तनावों को कम किया जा सकता है.
इस समझौते का हासिल क्या रहा
इस समझौते के पहले तीन साल पश्चिम एशिया में सह-अस्तित्व, सहयोग और शांति की नई उम्मीद लेकर आए. समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल ने राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए तेजी से कई कदम उठाए. एक-दूसरे के नागरिकों के लिए वीजा जरूरतों को हटा दिया और सीधी उड़ानें शुरू कीं, जिससे व्यापारिक संबंधों और पर्यटन को बढ़ावा मिला. इस दौरान दस लाख से अधिक इजरायली पर्यटकों ने संयुक्त अरब अमीरात का दौरा किया. इजरायल और समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले दूसरे देशों ने सुरक्षा, व्यापार, स्वास्थ्य, संस्कृति और अर्थशास्त्र सहित प्रमुख क्षेत्रों में कई समझौतों को आगे बढ़ाया. इसकी परिणति इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच एक मुक्त व्यापार समझौते के रूप में हुई.

इजरायल की ओर से दी गई हमले की चेतावनी के बाद उत्तरी गाजा से पलायन करते फिलिस्तीनी.
इन समझौतों की वजह से 'नेगेव फोरम' का गठन हुआ, जो क्षेत्रीय सहयोग के लिए अपनी तरह का पहला मंच था. इसमें बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात , इजरायल, मोरक्को, मिस्र और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हुए. यह एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था, जहां इजरायली और अरब प्रतिनिधि सार्वजनिक रूप से और नियमित रूप से मिलते थे.
इजरायली और अरब स्थिरता और शांति को बढ़ावा देने के लिए बातचीत के लिए तैयार, इच्छुक और प्रतिबद्ध थे. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि फिलिस्तीनियों ने, जिनका इजरायल के साथ तनाव का एक लंबा इतिहास रहा है, इस मंच का बहिष्कार किया. फिलिस्तीनियों के लगातार इनकार के बाद भी सामान्यीकरण की दिशा में गति तेज हुई. इन समझौतों का व्यापक लक्ष्य इजरायल और कई तथाकथित उदारवादी अरब देशों के बीच संबंधों को सामान्य बनाकर पश्चिम एशिया में तनाव कम करना था. इन देशों का मानना था कि इसके बदले में उन्हें अमेरिका से उन्नत तकनीकों और नए व्यापारिक अवसरों तक पहुँच प्राप्त होगी. इस लाभ के अलावा, वे ईरान को एक रणनीतिक खतरे के रूप में देखने के साझा दृष्टिकोण से भी प्रेरित थे. इसके साथ-साथ यह समझौता उनके लिए इजरायल के सबसे बड़े सहयोगी अमेरिका के करीब आने का भी एक अवसर था.
वहीं अमरीका के दृष्टिकोण से इस समझौते ने उसके दो उद्देश्यों को पूरा किया. पहला तो यह की इस समझौते ने क्षेत्रीय सुरक्षा गारंटर के रूप में उसकी भूमिका को मजबूत किया और दूसरा यह की भले ही कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन इसने इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष की प्रासंगिकता को क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से दरकिनार कर दिया. ट्रंप की हार के बाद सत्ता संभालने वाले जो बाइडेन ने भी इस समझौते का समर्थन किया. उन्होंने समझौतों को आगे बढ़ाने की कोशिश की. इसके विस्तारित सामान्यीकरण प्रयासों का केंद्र सऊदी अरब था. हालांकि सात अक्टूबर, 2023 के हमास के हमलों के बाद से यह प्रक्रिया ठप पड़ गई.
गाजा युद्ध का समझौते पर क्या असर पड़ा
हमास के आतंकी हमले के जवाब में इजरायल द्वारा की गई कार्रवाई के बाद संयुक्त अरब अमीरात ने व्यापार-प्रेरित अमीरात-इजरायली मेल-मिलाप को ठंडा कर दिया. अमीराती सरकार समर्थित संस्थाओं ने अपने इजरायली समकक्षों के साथ संपर्क बनाए रखा है, लेकिन प्रमुख परियोजनाओं को स्थगित कर दिया है. हालांकि उसने गाजा युद्ध में इजरायली गतिविधियों की सार्वजनिक रूप से निंदा की है, फिर भी राजनयिक संबंध नहीं तोड़े हैं.
अमीरात और बहरीन के हस्ताक्षर के बाद इसका अगला पड़ाव पश्चिम एशिया के सबसे प्रभावशाली देश सऊदी अरब को माना जा रहा था. इसके लिए अमरीका और इजरायल लंबे समय से प्रयास कर रहे थे. सऊदी अरब ने भी गाजा संघर्ष से पहले इजरायल के साथ मेल-मिलाप की दिशा में काम किया था. 2016 में सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने भी इजरायल के साथ सद्भावना के कई संकेत दिए. इनमें इजरायली वाणिज्यिक उड़ानों के लिए सऊदी हवाई क्षेत्र खोलना भी शामिल था. उन्होंने अक्टूबर 2023 से पहले भी द्विपक्षीय वार्ता में प्रगति के संकेत दिए थे, लेकिन हमास के हमलों और इजरायली प्रतिक्रिया ने इस प्रक्रिया को बाधित कर दिया. इससे सऊदी अरब को अधिक आलोचनात्मक रुख अपनाने और सामान्यीकरण और फिलिस्तीनी राज्य के प्रति इजरायल की प्रतिबद्धता के बीच एक प्रतिदान की मांग करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

सात अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद बंधक बनाए गए अपने परिजनों की रिहाई के लिए प्रदर्शन करते इजरायली.
आगे की राह नहीं है आसान
इस समझौते की प्रासंगिकता को लेकर इसके समर्थकों और विरोधियों में व्यापक बहस चल रही है. आलोचकों का मानना है की 2023 में चीन की मध्यस्थता में हुए सऊदी-ईरानी समझौते और उसके बाद के तनाव-मुक्ति के उपरांत अरब देशों और ईरान के बीच संबंधों के सामान्यीकरण ने उनके लिए ईरान के विरुद्ध भू-राजनीतिक सुरक्षा के लिए अब्राहम समझौते जैसे किसी ढांचे की अनिवार्यता को कम कर दिया है. इस तरह के घटनाक्रमों का अर्थ यह हुआ है कि अरब देशों के लिए अब्राहम समझौते जैसे अमेरिका-प्रायोजित ढांचों में शामिल होने की प्रेरणा कम हो गई है.
ऐसा माना जा रहा है कि इजरायल द्वारा कतर पर किए गए हमले ने खाड़ी देशों के शासकों को दुविधा में डाल दिया है. उन्हें क्षेत्र में इजरायली नीतियों पर दंड लगाने की कोशिश करने के लिए वाशिंगटन और तेल अवीव से प्रतिक्रिया का जोखिम उठाना होगा या फिर उन्हें अपने घरेलू जनता द्वारा इजरायल-प्रभुत्व वाली क्षेत्रीय व्यवस्था के प्रति सहमति जताए जाने का खतरा मोल लेना होगा. इसी कारण इस समझौते को लेकर 2020 वाला उत्साह समाप्त हो चुका है और उसकी जगह ठंडी व्यावहारिकता ने ले ली है.
इस समझौते के समर्थक इस बात की ओर इशारा करते हैं कि 2024 में व्हाइट हाउस लौटने के बाद से ट्रंप ने इस समझौते का विस्तार करने की कसम खाई है, जिसका अंतिम लक्ष्य सऊदी अरब को इसमें शामिल करना है. जानकारों का मानना है कि अब्राहम समझौते में शामिल देशों ने गाजा में चल रहे युद्ध को संभालने के तरीके में अंतर देखा है. उन्होंने अपनी आबादी के भीतर उत्पन्न हो रहे चरमपंथी व्यवहार को कम करने के लिए कई सार्थक कदम उठाए हैं. अमीरात ने गाजा में नागरिकों की पीड़ा को कम करने के उद्देश्य से राहत कार्यों में निवेश करके अपनी नीति में एक मानवीय आयाम जोड़ने की कोशिश की है.
इजरायस और अरब देशों का तनाव
गाजा में युद्ध छेड़ने के इजरायल के प्रयासों ने निस्संदेह अरब देशों के साथ संबंधों में तनाव पैदा किया है, लेकिन किसी भी साझेदार ने अभी तक इस समझौते को स्थगित नहीं किया है. इन देशों में वायु रक्षा और व्यापार जैसे क्षेत्रों में निरंतर सहयोग जारी है. यह लचीलापन एक व्यापक वास्तविकता को दर्शाता है जिसमें इजरायल की सैन्य सफलताओं ने क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को तेहरान के लिए नुकसानदेह बना दिया है. लेकिन अरब पक्ष इजरायल की बढ़ती हुई सैन्य शक्ति और अलग-अलग देशों पर उसके हमलों और अमरीका द्वारा उसकी मौन सहमती को लेकर बेहद चिंतित है. अमीराती अधिकारियों ने इस बात पर और भी जोर दिया है कि स्थायी शांति के लिए फिलिस्तीनी राज्य का दर्जा आवश्यक है.
कई विश्लेषकों ने चेतावनी दी है कि खाड़ी देशों में इजरायल के साथ संबंधों के सामान्यीकरण के प्रति अरब जनता का विरोध अब बहुत अधिक है. उनका कहना है कि अगर यह जारी रहता है तो इजरायल को आने वाले समय में अमीरात और बहरीन के साथ भी मिस्र या जॉर्डन जैसी एक ठंडी शांति का सामना करना पड़ सकता है. वहीं कुछ विश्लेषकों का मानना है की यह समझौता खत्म नहीं हुआ है, बस परिपक्व हुआ है. लेकिन समझौतों की सफलता के बाद भी कोई भी अतिरिक्त अरब देश इसमें शामिल नहीं हुआ है. यह इसकी एक बड़ी कमजोरी को दिखाता है.
अस्वीकरण: डॉ. पवन चौरसिया,इंडिया फाउंडेशन में रिसर्च फेलों के तौर पर काम करते हैं और अंतरराष्ट्रीय कूटनीति पर लगातार लिखते रहते हैं. इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.