अच्छी कार कंपनी अक्सर किसी पुर्ज़े की ज़रा सी ख़राबी के कारण अपनी बिकी हुई कारें ग्राहकों से वापस मंगा लेती है. एक साल से पीएम केयर्स के तहत दिए जा रहे वेंटिलेटर की ख़राबी की ख़बरें आप सुन रहे हैं, क्या आपने एक भी ऐसी खबर देखी है कि ख़राबी की शिकायत आने पर प्रधानमंत्री ने सारे वेंटिलेटर मंगा लिए हैं. क्या इस वजह से कोई जाकर उस वेंटिलेटर पर दम तोड़ दे कि उसका संबंध पीएम केयर्स फंड से है? किसी भी ऐसे देश में जहां जान की ज़रा भी कीमत मानी जाती है वहां एक वेंटिलेटर की शिकायत से हड़कंप मच जाता है. एक दिन में रिपोर्ट आ जाती और वेंटिलेटर वापस ले लिए जाते. हर दिन कहीं न कहीं से पीएम केयर्स फंड की ख़राबी की ख़बर बाहर निकल आती है. बांबे हाई कोर्ट की औरंगाबाद बेंच के सामने एमजीएम मेडिकल कालेज एंड हास्पिटल के डीन ने वो सच कह दिया है जिस पर पर्दा डाला जा रहा था.
अस्पताल के डीन ने जस्टिस आर वी घुगे और जस्टिस बी यू देबाद्वार की बेंच को बताया है कि पीएम केयर्स फंड से 150 वेंटिलेटर मिले थे. इनमें से 17 वेंटिलेटर में छह ऐसी खामियां पाई गईं जिससे मरीज़ के इलाज को गंभीर खतरा हो सकता था. आक्सीजन का प्रेशर घट गया और वेंटिलेटर पर रहते हुए भी मरीज़ की सांस टूटने लगी. इससे जान जा सकती थी. डीन ने प्रशासन को लिखा है कि जो खराबियों वाले इन वेंटिलेटर को ले जाएं. यही नहीं अदालत को बताया गया कि 41 वेंटिलेटर उस्मानाबाद के पांच निजी अस्पतालों को दिए गए. इस आधार पर कि वे मरीज़ों से पैसा नहीं लेंगे, उनमें से भी 37 वेंटिलेटर की पैकिंग खुली तक नहीं.
कोई नहीं बताता कि खराब वेंटिलेटर के कारण किसी की जान तो नहीं गई, डर भी तो होगा, लेकिन यह ज़रूर बताता है कि जान जाते जाते बची है. बांबे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने पीएम केयर्स के वेंटिलेटर की ख़राबी को बेहद गंभीर माना है.
क्या आप वाकई इतना बोर हो चुके हैं कि ऐसे वेंटिलेटर की कहानी से नींद आ रही है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि चलते चलते आक्सीजन कम हो जाता है और मरीज़ की सांस टूटने लगती है. वह मर सकता है. क्या इसी तरह की बात पीएम केयर्स के वेंटिलेटर को लेकर दूसरी जगहों के डाक्टरों ने नहीं कही है. फिर किस बात का डर है कि इसके खराब होने को लेकर खुल कर नहीं बोला जा रहा है. क्या लोगों का मर जाना इतना सस्ता है कि एक खराब वेंटिलेटर पर चुप्पी है. एक साल से इसके खराब होने की रिपोर्ट आ रही है. हम नहीं जानते कि खराब वेंटिलेटर सप्लाई करने वालों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई है.
अब हम इसी सिलसिले में विश्व गुरु भारत के दर्शकों को बताना चाहते हैं कि बिहार के जमुई ज़िले के अस्पताल के कैंटीन में वेंटिलेटर देखे गए हैं. कैंटीन है तो आप वहां समोसा भी खा सकते है. बस जिस अख़बार में लपेट कर खा रहे हों, चेक कर लें कि उसमें यह खबर न छपी हो कि वेंटिलेटर न मिलने से लोग तड़प तड़प कर मर गए. कैंटीन में रखा यह वेंटिलेटर पीएम केयर्स फंड के तहत आया है. आने की तारीख़ के हिसाब से 2020 के अक्टूबर में ही जमुई के सदर अस्पताल में चार वेंटिलेटर का आगमन हो चुका था. इसके अलावा दो वेंटिलेटर तो 2020 के पहले से आकर पड़े हुए हैं. नहीं चल रहे हैं. इस तरह सदर अस्पताल में वेंटिलेटर की संख्या कुल छह होती है लेकिन चलता एक भी नहीं है. हमारे सहयोगी सुशील गौतम ने बताया है कि पीएम केयर्स वाले वेंटिलेटर के चालू करने का दावा तो कर दिया गया था लेकिन 2021 के मई महीने में आपको यह देखने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है कि ये वेंटिलेटर चालू नहीं हैं. कैंटीन में आराम कर रहे हैं. इन्हें कपड़े से ढंक दिया गया है ताकि इस हालत में वेंटिलेटर को देखकर कोई शर्मिंदा न हो. जान बचाने में असफल ये वेंटिलेटर सरकार की लाज बचा रहे हैं, इस पर किसी कवि का दिल पिघल कर पत्थर हो जाना चाहिए. आम जनता को बाद में बता दिया जाएगा कि सरकार तो जाग रही थी लेकिन वेंटिलेटर ही चादर ओढ़ कर सोया था. जनता इस अफसोस को कहां जतन से रखे कि वेंटिलेटर था लेकिन चल नहीं रहा था और उसके अपनों ने तड़प तड़प कर दम तोड़ दिया. वैसे भी इन दिनों अचानक से व्हाट्सएप ग्रुप में रिश्तेदारों के ज़रिए मैसेज आने लगे हैं, आपको पता ही है क्या कह रहा हूं मैं. बिहार सरकार ने नीति बनाई है कि प्राइवेट अस्पताल भी चाहें तो पीएम केयर्स वाले वेंटिलेटर ले जाकर चला सकते हैं, यह ठीक बात भी है लेकिन जमुई में कोई प्राइवेट अस्पताल आगे नहीं आया. वेंटिलेटर को चलाने के लिए टेक्निशियन नहीं हैं. यह इतनी बड़ी जानकारी है जो आज मैं पहली बार दुनिया को बता रहा हूं कि वेंटिलेटर टेक्निशियन से चलता है. जब सरकार सप्लाई कर रही थी तब क्या उसे पता नहीं था? राहत की बात है कि जमुई के अखबारों में एक महीना पहले छपने के बाद भी वेंटिलेटर ने न चलने की कसम नहीं तोड़ी है. चादर से बाहर नहीं आया है. वेंटिलेटर टस से मस नहीं हुआ है. वेंटिलेटर को उस टेक्निशियन का इंतज़ार है, जिसकी भर्ती के लिए महीनों पहले विज्ञापन निकला था, मगर कोई टेक्निशियन नहीं आया.
हमारे सहयोगी गौतम ने जब पता किया कि जमुई ज़िले में वेंटिलेटर कहां हैं तो जानकारी यह मिली कि वेंटिलेटर कहीं नहीं हैं. सदर अस्पताल में एक भी वेंटिलेटर नहीं है जहां की कैंटीन में छह वेंटिलेटर चादर तान कर सो रहे हैं. 18 लाख की आबादी वाले जमुई के सदर अस्पताल में वेंटिलेटर नहीं है. किसी प्राइवेट अस्पताल में वेंटिलेटर नहीं है.
स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने मनीष कुमार से कहा कि 580 वेंटिलेटर आए थे पीएम केयर्स से, 500 चल रहे हैं, 80 नहीं चल रहे हैं. 80 में से 40 प्राइवेट को दिया गया है चलाने के लिए. तो इसका मतलब 40 नहीं चल रहे हैं? तो क्या सुपौल और जमुई के वेंटिलेटर उसी चालीस में से हैं या मंत्री जी को पता है कि 500 वेंटिलेटर का हाल पता करने में मीडिया हांफ जाएगा. बिहार विधानसभा में गिरधारी यादव ने 2017 और 2018 में दो दो बार आईसीयू और वेंटिलेटर को लेकर सवाल किया था. तब स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था कि 20 ज़िलों के सरकारी अस्पताल में वेंटिलेटर हैं लेकिन 18 ज़िलों में सरकारी अस्पतालों में वेंटिलेटर नहीं हैं. सरकार की नज़र में ये बात थी. हमने भी पिछले साल प्राइम टाइम में कई बार इस बारे में बताया था. लेकिन इसके बाद भी हम वेंटिलेटर है, वेंटिलेटर हो कर भी चालू नहीं है और वेंटिलेटर नहीं है पर अटके हुए हैं.
ज़्यादा पुरानी तो नहीं है ये रिपोर्ट. नौ मई की है. इसमें तीस ज़िलों के नाम के साथ बताया गया है कि हर ज़िले में छह वेंटिलेटर हैं मगर चल नहीं रहे हैं. मार्च और अप्रैल के महीने में दूसरी लहर कहर ढा रही थी. न्यूज़क्लिक की यह रिपोर्ट 9 मई की है. यानी तब तक 180 वेंटिलेटर नहीं चल रहे थे. तीन ऐसे ज़िले हैं जहां पर सात सात वेंटिलेटर हैं जो काम नहीं कर रहे हैं. इस हिसाब से न्यूज़ क्लिक ने बताया है कि 200 से अधिक वेंटिलेटर स्टाफ की कमी के कारण बेकार पड़े हैं. मंत्री जी के बयानों के हिसाब से 500 से अधिक वेंटिलेटर चल रहे हैं. कब से चल रहे हैं?
हमने अपने सहयोगियों के ज़रिए पता लगाया कि न्यूज़क्लिक ने जिन ज़िलों के बारे में बताया है कि वहां पर पीएम केयर्स के वेंटिलेटर बेकार पड़े हैं तो जानकारी मिली कि इनमें से एक में आज भी बेकार पड़े हैं. बेगुसराय और भागलपुर में वेंटिलेटर चल रहे हैं. गोपालगंज की आबादी 25 लाख है. यहां के सबसे बड़े सदर अस्पताल में वेंटेलिटर नहीं है और आईसीयू नहीं है. ऐसी खबरें आप एक साल से देख रहे हैं. अगले साल भी देखेंगे.
न्यूज़क्लिक ने 9 मई को रिपोर्ट किया था कि गोपालगंज में छह वेंटिलेटर हैं लेकिन चल नहीं रहे हैं. 25 मई को गोपालगंज से हमारे सहयोगी सुनील कुमार तिवारी रिपोर्ट कर रहे हैं कि वेंटिलेटर आज भी नहीं चल रहा है क्योंकि डाक्टर नहीं है और चलाने वाला टेक्निशियन नहीं है. इनके आते ही चालू हो जाएगा. सोचिए एक साल का मौका मिला था. सिविल सर्जन ने बताया कि अगर दो डॉक्टर भी आ जाएं तो आईसीयू और वेंटिलेटर चालू हो जाए. ज़िलाधिकारी ने भी स्वास्थ्य विभाग को पत्र लिखे हैं. मुख्यमंत्री को पत्र लिखा गया है. गोपालगंज के सदर अस्पताल में आईसीयू चलाने वाले डाक्टर नहीं हैं. वेंटिलेटर चलाने वाले टेक्निशियन नहीं हैं. इतने लोगों के मर जाने और मार दिए जाने के बाद भी हालात नहीं बदले हैं, न्यूज़ चैनलों पर डिबेट बदल दिया गया है ताकि आपका ध्यान बदल जाए.
आईसीयू नहीं है मगर आईसीयू की प्रभारी हैं. निशी की बात सही है कि सारी चीज़ें होते हुए डाक्टर और टेक्निशियन के न होने से चालू नहीं है. इन सभी की व्यवस्था पिछले साल हो जानी थी. लेकिन अभी तक नहीं हो सकी है. कितने लोग इन दो सुविधाओं के न होने से मरे होंगे इसका कोई हिसाब नहीं. लोगों को जल्दी ही आईटी सेल से हिन्दू मुसलान वाला मैटर दे दिया जाएगा. दिया भी जा रहा है. गोपालगंज में आईसीयू चालू कराने का प्रयास हो रहा है. ज़िला स्तर के अस्पताल की ये हालत है. ब्लाक लेवल की बात नहीं करते हैं. आपको पोज़िटिव रहने को कहा गया है, बने रहिए.
पीएम केयर्स फंड में जो पैसा दिया जा रहा है वो कैसे खर्च हो रहा है, किन चीज़ों पर खर्च हो रहा है उसकी जानकारी आप वेबसाइट से हासिल नहीं कर सकते हैं. इस फंड की पारदर्शिता को लेकर बहुत बार सवाल किए गए लेकिन पब्लिक ने अनदेखा कर दिया. तब देखा जब उनके अपने गुज़र गए. 15 अप्रैल को तुषार मकवाना ने ट्वीट किया है कि उनके दोस्त संजय लोखिल ने पीएम केयर्स फंड में पांच हज़ार डोनेट किया था. आक्सीजन न मिलने के कारण गुज़र गया. 25 मई को अहमदबाद से विजय पारिख ने ट्वीट किया है कि उन्होंने पीएम केयर्स में ढाई लाख रुपये दान दिए थे लेकिन अपनी मां को बिस्तर नहीं दिला पाए. अब कितना दान करूं ताकि तीसरी लहर में मुझे बिस्तर मिल जाए. अफसोस कि रमेशभाई और तुषार मकवाना को यह ध्यान तब आया जब उनके अपनों के साथ दुखद घटना हुई. जान गंवा देने के बाद हम बेसिक सवाल पूछते हैं. वो भी ठीक से नहीं पूछते क्योंकि पीएम केयर्स फंड का है. ख़राब और घटिया वेंटिलेटर को तो लेकर पूछ ही सकते हैं.
अब आते हैं ब्लैक फंगस पर. शरद शर्मा हमारे सहयोगी बता रहे हैं कि दिल्ली के लोक नायक जयप्रकाश अस्पताल में चार दिनों के भीतर ब्लैक फंगस के मरीज़ों की संख्या 13 से 64 हो गई है. सरकार कहती है कि म्यूकर माइक्रोसिस को ब्लैक, यलो या व्हाइट फंगस न कहें. अब देर हो गई. इस बीमारी के मामले में सरकार देर से जागी है. तब तक जनता के बीच यह बीमारी ब्लैक फंगस के नाम से कुख्यात हो चुकी थी. इस बीमारी की जानकारी सबको थी, अगर नहीं थी तो होनी चाहिए थी.
मार्च 2021 में Microorganisms जर्नल में किर्गिस्तान में Medical Microbiology पढ़ा रहे हरिप्रसाद प्रकाश और PGI चंडीगढ़ में पढ़ा रहे अरुन आलोक चक्रवर्ती ने एक रिसर्च पेपर लिखा है. टाइटल है Epidemiology of Mucor-mycosis in India. इसमें दोनों बताते हैं कि भारत में दुनिया के अन्य देशों के मुक़ाबले 70 गुना मामले ज़्यादा पाए जाते हैं. दो साल पहले प्रकाश और चक्रवर्ती ने जर्नल ऑफ़ फ़ंगी में भी एक लेख छापा था. इस लेख में उन्होंने बताया था कि हाल के सालों में ब्लैक फ़ंगस के मामलों में बढ़ोत्तरी देखी गई है जो कि सबसे अधिक एशिया में है. बताया था कि मधुमेह सबसे मुख्य कारण है. उस लेख में ये भी बताया गया था कि Renal mucor-mycosis यानी किड्नी में होने वाले ब्लैक फ़ंगस के मामले सिर्फ़ चीन और भारत में रिपोर्ट हुए हैं. क्या हमारी सरकार के पास ये जानकारी नहीं थी. क्या टास्क फोर्स के सदस्यों ने इस रिसर्च पेपर को नहीं पढ़ा होगा? अगर नहीं तो टास्क फोर्स में क्यों हैं?
यही नहीं पिछले साल दिसंबर में गुजरात सरकार ने अपनी एक एडवाइज़री में ब्लैक फंगस को लेकर आगाह किया था. तब फिर सरकार देर से क्यों जागी? 24 मई को मंत्रियों के समूह की बैठक में डॉ हर्षवर्धन कहते हैं कि भारत में ब्लैक फंगस के मरीज़ों की संख्या 5424 है. इसके दो दिन पहले 22 मई को रसायन व उर्वरक मंत्री सदानंद गौड़ा ट्वीट करते हैं कि ब्लैक फंगस के मरीज़ों की संख्या 8,848 है. एक दिन में दो बयानों में 3400 मामलों की कमी आ गई.
दस हज़ार मरीज़ नहीं है तब भी उनके लिए दवा नहीं है. मरीज़ के आने के बाद दवा का आयात हो रहा है, उत्पादन के लिए लाइसेंस दिए जा रहे हैं. गुजरे 24 मई को डॉक्टर हर्षवर्धन ने कहा है कि ब्लैक फ़ंगस की दवाई की 9 लाख शीशियों का आयात किया जा रहा है.
इस बीमारी में समय की बड़ी भूमिका है. इलाज शुरू होने और दवा देने में एक पल की देरी भारी हो सकती है. लेकिन इसके हासिल करने की सरकारी प्रक्रिया इतनी जटिल बना दी गई है कि फार्म भरने और आदेश देने में ही दस बीस घंटे की देरी हो जाए. अब जिन मरीज़ो को यह बीमारी हो गई है उनमें से बहुतों को इंतज़ार करना पड़ा है. सरकार आखिरी वक्त में आयात करने चली है. कम से कम इतना तो अंदाज़ा होना ही चाहिए था. दवा न मिलने से जिनकी जान गई होगी उनकी हताशा को समझिए.
सरकार भले दावा करती रही हो कि दवा है लेकिन दवा है नहीं. आप मरीज़ों से पूछ लें. 24 मई को रसायन मंत्री सदानंद गौड़ा ने ट्वीट किया है कि 21 मई को 23680 और आज 19,420 इंजेक्शन राज्य सरकारों को दिए जा चुके हैं. यानी कुल क़रीब 43,100. जबकि आज की ही इंडीयन एक्सप्रेस की रिपोर्ट है कि 1500 मामले तो सिर्फ़ महाराष्ट्र में हैं. इस हिसाब से महाराष्ट्र को क़रीब 3 लाख इंजेक्शन की ज़रूरत है. गौड़ा ने आज ट्वीट किया है कि महाराष्ट्र को 4060 इंजेक्शन दिए हैं. चाहिए तीन लाख इंजेक्शन और दिया गया है 4000. ये है हमारी तैयारी.
ब्लैक फंगस के कई मरीज़ों को दिन में चार चार बार इंजेक्शन लगाना पड़ सकता है. इस हिसाब से मंत्री जी ने जो आंकड़ा दिया है वो एक दिन के हिसाब से भी पर्याप्त नहीं लगता है. कोरोना से जंग का एलान किया गया था. ये है जंग की तैयारी. सामने शत्रु है और दो आदमी साइकिल से जा रहा है बंदूक लाने.
20 मई की रिपोर्ट के मुताबिक़ केंद्र ने कहा था कि दिल्ली को 11 से 19 मई के बीच 2,750 इंजेक्शन दिए गए थे. जबकि दिल्ली सरकार ने कहा है कि 18 मई को ही हर हफ़्ते 15,000 इंजेक्शन की ज़रूरत है. 20 मई को दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि केंद्र को पूरी दुनिया छान कर ब्लैक फ़ंगस के लिए ज़रूरी दवा का आयात करना चाहिए. कोर्ट ने केंद्र से कहा कि केंद्र इस मामले में एक स्टेटस रिपोर्ट फ़ाइल करे कि क्या क़दम उठाए हैं. कोर्ट ने कहा कि लोकल उत्पादन अगर अपनी क्षमता दुगनी कर दें तो भी मांग को पूरा नहीं कर सकेंगे और समय की कमी है इसलिए केंद्र को अभी क़दम उठाने पड़ेंगे.
बात तो सही है. दवा न मिलने की देरी से अगर किसी की मौत होगी तो इसका ज़िम्मेदार कौन है, जवाब किसी के पास नहीं है. ब्लैक फंगस से जुड़ा एक और मामला सिर उठा रहा है. ब्लैक फंगस का संबंध इंडस्ट्रियल आक्सीजन से जोड़ा जा रहा है. ब्लैक फंगस तो वहां भी हुआ है जहां मेडिसिन आक्सजीन की सप्लाई थी. पिछले साल तो आक्सीजन को लेकर मारामारी नहीं थी लेकिन केस तो तब भी आए थे. कर्नाटक सरकार ने एक कमेटी का गठन किया है जो इस बात पर रिसर्च करेगी कि क्या ब्लैक फंगस का संबंध इंडस्ट्रियल आक्सीजन से है? रविवार को कोविड टास्क फोर्स के अध्यक्ष और राज्य के उप मुख्यमंत्री सी एन अश्वथ नारायण एक बैठक ले रहे थे. उस बैठक में मनिपाल हास्पिटल के डॉ संपत चंद्र प्रसाद राव ने अपनी प्रस्तुति में बताया कि ब्लैक फंगस का संबंध कई प्रकार की अशुद्धियों से हो सकता है. मुमकिन है सिलेंडर की क्वालिटी खराब हो या आईसीयू में जो पाइल होती है उसकी क्वालिटी खराब हो. मुमकिन है कि इंडस्ट्रियल आक्सीजन से भी कोई संबंध हो. ध्यान रहे डाक्टर ने अपनी बात सवाल के तौर पर रखी है. किसी ठोस निष्कर्ष के तौर पर नहीं. इसी की जांच के लिए कर्नाटक ने माइक्रोबायलोजी के एक्सपर्ट की टीम बना दी है. मुंबई से हमारी सहयोगी पूजा भारद्वाज इस सवाल को लेकर पहले भी रिपोर्ट कर चुकी हैं.
प्रोपेगैंडा को नया कुर्ता पाजामा पहनाया जा रहा है. कुर्ता है उम्मीद और पाजामा है पोज़िटिव ताकि आपका ध्यान जल्दी से हटा कर दूसरी तरफ ले जाया जाए. कीचड़ पर राख डाल देने से सूखी मिट्टी नहीं हो जाता है. कीचड़ ही रहता है.
आपने नोटिस किया होगा कि रेडियो जॉकी से लेकर न्यूज़ एंकर और अख़बारों में पोज़िटिव शब्द का ज़िक्र बार बार हो रहा है. पोज़िटिव और होप का खूब इस्तमाल हो रहा है. पोज़िटिव होने में बुराई नहीं है लेकिन इसके मकसद से सावधान रहिएगा. इस बार इसका मतलब यही है कि आपकी जो दुनिया लुट गई है उसे भूल जाएं, इतना भूल जाएं कि ध्यान ही न रहे कि आगे भी आपकी दुनिया लुटने वाली है. गंगा किनारे जिन लोगों ने शवों को दफनाया है उनसे पीली चादरों को हटाया जा रहा है ताकि फोटो खींचने पर पहचानी न जाएं. उन्नाव में भी पुलिस इसी तरह कब्र से पीली चादरों को उठा कर ले गई. आपकी आस्था समझदार हो गई है. इन दिनों आहत नहीं होती है. चादरों को हटा कर लाशों की तस्वीर छिपाई जा रही है. आपको पोज़िटिव होने के लिए कहा जा रहा है. इतिहास इन्हें कफन चोर की तरह नोट भले न करे, लेकिन इन लोगों ने आपकी आंखों से काजल तो चुरा ही लिया है. पाकेटमारी का यह खेल सरेबाज़ार चल रहा है.